ब्वारी का बोल
प्रस्तावना
यह कविता "ब्वारी का बोल" पहाड़ी जीवन की नाज़ुक भावनाओं और पारिवारिक संबंधों को दर्शाती है। इसमें एक बहू और उसकी सास के बीच की बातचीत का वर्णन किया गया है, जिसमें प्रेम, सम्मान और परिवार की एकता की भावना निहित है।
कविता: ब्वारी का बोल
सासुन जब सुणिन,
तब कन्दुड़ि फर हाथ धरि,
बोन्न बैठि,
हे ब्वारी,
न बोल मैकु बुरा बोल,
मैं माणदु छौं आज जमानु तेरु,
पर कुछ मर्यादा कू ख्याल कर,
तेरी कुबानी की बातु सुणि सुणिक,
मेरी मुण्डळी मा,
ऊठण लग्युं छ,
मुंडारु अर जर।
नौनियाळ मैंन खौरि खैक,
तंग हाल मा पाळि पोषी,
पढौण लिखौण का खातिर,
नाक की नथुलि बेचि खोसी।
डोला ढस्कैक ल्हयौं त्वै,
अपणा नौना कू,
ज्व थै मेरी आस,
अब सब कुछ तेरु ही छ,
न कर मैकु निराश।
तेरी मैं सासू तू मेरी प्यारी ब्वारी,
कर टौल पात तू,
भलि ब्वारी की अन्वारी,
तब हमारू परिवार सुखि रलु,
खूब खाणी बाणी होलि हमारी।
निष्कर्ष
यह कविता पहाड़ी परिवारों के रिश्तों की गहराई और प्रेम को दर्शाती है। बहू और सास के बीच का यह संवाद पारिवारिक एकता और आपसी सम्मान की एक सुंदर मिसाल है।
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