इगास-बग्वाल: उत्तराखंड की समृद्ध लोक परंपरा
उत्तराखंड में दिवाली के ठीक 11 दिन बाद मनाई जाने वाली इगास-बग्वाल (बूढ़ी दिवाली) का विशेष महत्व है। खासकर गढ़वाल क्षेत्र के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, और चमियाला जैसे क्षेत्रों में इस पर्व की धूम रहती है। हालांकि, यह पर्व धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर था, लेकिन हाल के समय में लोगों की जागरूकता और सोशल मीडिया की सक्रियता के कारण इसे फिर से जीवित किया जा रहा है।
इगास-बग्वाल क्यों मनाई जाती है?
इगास-बग्वाल मनाने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं और लोककथाएं जुड़ी हुई हैं:
भगवान राम की वापसी की सूचना: माना जाता है कि जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे तो पूरे देश ने कार्तिक अमावस्या को दीप जलाकर उनका स्वागत किया। लेकिन गढ़वाल के पर्वतीय इलाकों में यह खबर 11 दिन बाद पहुंची। इस देरी के कारण यहां के लोगों ने ग्यारह दिन बाद इगास-बग्वाल के रूप में दिवाली मनाई।
वीर माधो सिंह भंडारी की विजय: एक और मान्यता के अनुसार, गढ़वाल के वीर योद्धा माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह के सेनापति थे। वे तिब्बत के दापाघाट में युद्ध लड़ रहे थे। दिवाली के दिन लोग युद्ध में माधो सिंह की अनुपस्थिति के कारण त्योहार नहीं मना पाए। लेकिन, दिवाली के 11 दिन बाद जब माधो सिंह और उनकी सेना विजय प्राप्त कर वापस लौटे, तब गांववालों ने उनके स्वागत में दिवाली मनाई। तब से इस परंपरा की शुरुआत हुई।
देवउठनी एकादशी: धार्मिक दृष्टिकोण से, इगास-बग्वाल के दिन देव प्रबोधिनी एकादशी भी मनाई जाती है। इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की नींद से जागते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन देवताओं ने भगवान विष्णु की पूजा की थी, और इस कारण इसे देवउठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।
इगास की विशिष्ट परंपराएं
इगास-बग्वाल पर्व कई खास परंपराओं और लोक खेलों से जुड़ा हुआ है। इनमें प्रमुख रूप से भैलो खेलना और बर्त खींचना शामिल हैं।
भैलो खेलने की परंपरा: इगास के दिन भैलो खेला जाता है। यह पर्व अंधेरे में उजाले का प्रतीक माना जाता है। चीड़ की लकड़ी से बने भैलो को रस्सियों से बांधकर जलाया जाता है और फिर इसे घुमाया जाता है। यह दृश्य गांवों में एक उत्साहपूर्ण माहौल बनाता है। जहां चीड़ के जंगल नहीं होते, वहां देवदार, भीमल, या हींसर की लकड़ी से भैलो बनाया जाता है। इस आयोजन के लिए गांववाले ढोल-नगाड़ों के साथ जंगल जाते हैं और वहां से लकड़ियां लाते हैं।
बर्त खींचने की परंपरा: इगास-बग्वाल के अवसर पर बर्त खींचने की परंपरा भी प्रचलित है। बर्त एक मोटी रस्सी होती है, जो बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाई जाती है। इसे समुद्र मंथन की प्रक्रिया से जोड़ा जाता है, जिससे यह रस्म और भी पौराणिक महत्व प्राप्त करती है।
रिख बग्वाल: एक अनोखी परंपरा
इगास-बग्वाल के साथ-साथ गढ़वाल के कुछ इलाकों में रिख बग्वाल भी मनाई जाती है। यहां भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी, इसलिए इस क्षेत्र में दिवाली एक महीने बाद मनाई जाती है। इसी तरह, कुछ क्षेत्रों में दिवाली की रात कोई व्यक्ति जंगल से लकड़ी लाने गया और समय पर नहीं लौटा। जब वह 11 दिन बाद लौटा, तब गांववालों ने दिवाली मनाई।
आधुनिकता में इगास का पुनर्जागरण
समय के साथ इगास-बग्वाल पर्व धीरे-धीरे लुप्त हो रहा था। हालांकि, हाल के वर्षों में लोगों की बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया के कारण यह पर्व फिर से प्रचलित हो गया है। युवा पीढ़ी अब इस पर्व के महत्व को समझने लगी है और इसे धूमधाम से मना रही है। यह पर्व हमारी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है और इसे जीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है।
निष्कर्ष
इगास-बग्वाल उत्तराखंड की लोक संस्कृति और समृद्ध परंपराओं का जीवंत उदाहरण है। यह पर्व हमें अपने पुरखों की परंपराओं और मान्यताओं से जोड़ता है, और यह उत्सव न केवल दिवाली का विस्तार है, बल्कि एक संपूर्ण लोक परंपरा का प्रतीक है। इस पर्व के साथ नृत्य, गीत, और सामूहिक उत्साह हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को मजबूत बनाते हैं।
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