इगास-बग्वाल: उत्तराखंड की विशेष दीपावली
उत्तराखंड के लोक पर्वों में इगास-बग्वाल (बूढ़ी दीपावली) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। हर साल इस पर्व को बड़े धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाता है। दीपावली की रौनक के बाद, पहाड़ी क्षेत्रों के लोग बेसब्री से इगास-बग्वाल का इंतजार करते हैं। यह पर्व दीपावली के ठीक 11 दिन बाद, कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन मनाया जाता है। इस अनूठी परंपरा के पीछे कई पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, जो इस त्योहार को और भी विशेष बनाती हैं।
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पौराणिक मान्यता:
पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान श्रीराम अपने 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो कार्तिक अमावस्या के दिन उनके स्वागत के लिए दीप जलाए गए थे। इसी दिन से दीपावली का पर्व शुरू हुआ। लेकिन, उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों में उस समय सूचना के साधन इतने विकसित नहीं थे, जिससे भगवान राम के लौटने की खबर इन पर्वतीय इलाकों में 11 दिन बाद पहुंची। इस देरी के कारण यहां के लोगों ने कार्तिक शुक्ल एकादशी को दीपोत्सव मनाया, जिसे आज हम इगास-बग्वाल के नाम से जानते हैं।
ऐतिहासिक मान्यता:
इस पर्व से जुड़ी एक ऐतिहासिक कथा भी है, जो उत्तराखंड के वीर योद्धा माधो सिंह भंडारी से संबंधित है। कहा जाता है कि लगभग 400 साल पहले, टिहरी के राजा महीपति शाह ने माधो सिंह भंडारी को तिब्बत के साथ एक युद्ध लड़ने के लिए भेजा था। युद्ध के समय ही दिवाली का त्यौहार आ गया, लेकिन माधो सिंह और उनकी सेना युद्ध में व्यस्त थी और वे घर नहीं लौट सके। इससे लोगों ने समझा कि सेना युद्ध में शहीद हो गई होगी, इसलिए किसी ने भी दिवाली नहीं मनाई। लेकिन दिवाली के 11 दिन बाद, माधो सिंह भंडारी युद्ध जीतकर अपनी सेना के साथ लौटे, और इसी खुशी में गांववालों ने दीपावली मनाई। तब से यह दिन इगास-बग्वाल के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
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भैलो खेलने की परंपरा:
इगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। भैलो एक विशेष खेल है, जिसमें चीड़ की सूखी लकड़ी के गठ्ठर से मशालें बनाई जाती हैं। इन मशालों को रस्सी से बांधकर आग लगाई जाती है, फिर उन्हें चारों ओर घुमाया जाता है। यह प्रतीक है अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने का। गांव के लोग समूहों में एकत्रित होकर इस परंपरा का पालन करते हैं और पारंपरिक गीतों के साथ नृत्य करते हैं। बिना भैलो खेले और नृत्य किए यह पर्व अधूरा माना जाता है।
इगास-बग्वाल का महत्व:
उत्तराखंड के लोग इगास-बग्वाल को अपनी सांस्कृतिक पहचान और परंपराओं का प्रतीक मानते हैं। इस पर्व में न केवल भौतिक बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि का भी संदेश निहित है। यह पर्व हमें अपने पूर्वजों के बलिदान, वीरता, और सांस्कृतिक धरोहरों को याद दिलाता है।
समाप्ति:
इगास-बग्वाल उत्तराखंड की प्राचीन संस्कृति और गौरवशाली इतिहास का प्रतीक है। यह पर्व दीपावली से अलग होते हुए भी अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है। उत्तराखंड की लोक परंपराओं में रचे-बसे इस पर्व को मनाना न केवल एक धार्मिक उत्सव है, बल्कि यह हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी संजोने का अवसर प्रदान करता है।
इगास-बग्वाल की सभी को शुभकामनाएं! 🪔🪔
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