रामपुर तिराहा फायरिंग मामला: उत्तराखंड राज्य आंदोलन का काला अध्याय - Rampur Tiraha firing case: A dark chapter in Uttarakhand statehood movement

रामपुर तिराहा फायरिंग मामला: उत्तराखंड राज्य आंदोलन का काला अध्याय

परिचय: रामपुर तिराहा फायरिंग मामला, 2 अक्टूबर 1994 की रात को घटी एक दुखद और हिंसक घटना है, जिसने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्जा पाया। यह घटना तब घटी जब उत्तराखंड के अलग राज्य के लिए आंदोलन कर रहे निहत्थे कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने गोलीबारी की। इस गोलीबारी में छह लोगों की मृत्यु हुई और कई अन्य घायल हो गए, जबकि कुछ महिलाओं के साथ कथित रूप से बलात्कार और छेड़छाड़ की गई। यह घटना उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल के दौरान हुई, जिसने राज्य आंदोलन को और तीव्र कर दिया।

घटना का विवरण: 1 अक्टूबर 1994 की रात को, उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों से आंदोलनकारी कार्यकर्ता दिल्ली में गांधी जयंती के अवसर पर राजघाट पर धरना देने के लिए जा रहे थे। जैसे ही ये लोग मुजफ्फरनगर जिले के रामपुर तिराहा पहुंचे, वहां पुलिस ने अचानक से उन पर गोलीबारी कर दी। आरोप है कि पुलिस ने बिना किसी उकसावे के गोलियां चलाईं, जिसमें छह आंदोलनकारी मारे गए। साथ ही, कुछ महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार के आरोप भी लगाए गए।

पृष्ठभूमि: उत्तराखंड के अलग राज्य की मांग 1990 के दशक में तेज हो गई थी, और यह आंदोलन मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्रों के लोगों द्वारा चलाया गया था। इन इलाकों के लोग उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक अलग राज्य चाहते थे, जो उनकी सांस्कृतिक और भौगोलिक विशेषताओं का सम्मान कर सके। इस आंदोलन के तहत कई रैलियाँ और प्रदर्शन आयोजित किए गए, और 1994 में यह आंदोलन चरम पर था।

पुलिस की कार्रवाई और आरोप: इस घटना की रिपोर्ट में कहा गया कि कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुँचाया, बैरिकेड्स तोड़ने का प्रयास किया, और पुलिस से टकराव की स्थिति बनाई। पुलिस अधिकारी एके सिंह ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए गोलीबारी का आदेश दिया, जिसके परिणामस्वरूप यह दुखद घटना घटी। पुलिस पर यह भी आरोप है कि उन्होंने प्रदर्शनकारियों को उकसाया और कुछ महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया। बाद में सीबीआई जांच में 28 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया, जिन पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमे चले।

जांच और न्यायिक प्रक्रिया:

  • 1995: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड संघर्ष समिति की याचिका पर सुनवाई करते हुए 12 जनवरी 1995 को सीबीआई को मामले की जांच करने का आदेश दिया। सीबीआई ने अपनी जांच में 72 गवाहों से पूछताछ की और 28 पुलिस कर्मियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया।
  • 2000: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने मामले में अभियोजन की अनुमति देने से इनकार कर दिया, जिससे अभियोजन प्रक्रिया में विलंब हुआ।
  • 2003: उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सीबीआई के आरोपपत्र को खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में इस फैसले की समीक्षा की गई और पुनः अभियोजन की प्रक्रिया शुरू की गई।
  • 2007: उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी ने शहीद स्मारक का दौरा किया और लंबित अदालत मामलों को तेजी से निपटाने का वादा किया।

न्याय और निर्णय: वर्षों तक यह मामला अदालतों में चलता रहा, और अंततः 2007 में कुछ पुलिस अधिकारियों को बरी कर दिया गया। इस घटना के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को कठोर सजा दी गई, लेकिन कई वर्षों तक मामला अटका रहा और न्याय में देरी हुई। यह घटना उत्तराखंड आंदोलन के संघर्ष और बलिदान का प्रतीक बन गई।

निष्कर्ष: रामपुर तिराहा फायरिंग घटना ने उत्तराखंड के आंदोलन को और उग्र बना दिया। यह न सिर्फ राज्य आंदोलन के समर्थकों के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए एक ऐसा मुद्दा था जिसने लोगों को गहराई से झकझोर दिया। इस घटना ने यह साबित किया कि उत्तराखंड के लोगों के संघर्ष और बलिदान से ही राज्य का गठन संभव हो सका। आज, उत्तराखंड राज्य का अस्तित्व उन शहीदों की याद दिलाता है जिन्होंने अपने अधिकारों और पहचान की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान की।

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