उत्तराखंड राज्य निर्माण: संघर्ष, बलिदान और विजय की कहानी - Uttarakhand State Formation: A Story of Struggle, Sacrifice and Victory

उत्तराखंड संघर्ष का सफरनामा: राज्य आंदोलन से उत्तराखंड निर्माण तक की कहानी

उत्तराखंड का गठन किसी एक व्यक्ति या संगठन की कोशिशों या बलिदानों का नतीजा नहीं है। यह राज्य आज कई दशक लंबे संघर्षों और बलिदानों का परिणाम है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले से ही उत्तराखंड की मांग उठाई जा रही थी। उत्तराखंड का सपना आज़ादी के पहले से ही कई संगठनों और राज्य प्रेमियों की सोच और शहादत से आकार ले रहा था।

आज हम उत्तराखंड को जिस रूप में देखते हैं, वह दरअसल अनेक आंदोलनों, संगठनों और महान बलिदानों का प्रतिफल है। इस लेख में हम उत्तराखंड के संघर्ष की ऐतिहासिक यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे, जिसमें विभिन्न संगठनों, आंदोलनों और नेताओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है।

प्रारंभिक संघर्ष: कुमाऊं परिषद और श्रीदेव सुमन

उत्तराखंड के क्षेत्रीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए पहली बार 1926 में कुमाऊं परिषद का गठन किया गया। इसके कर्ताधर्ता गोविंद बल्लभ पंत, तारादत्त गेरोला और बद्रीदत्त पांडे जैसे नेता थे। इसके बाद 1938 में श्रीदेव सुमन ने दिल्ली में 'गढ़देश सेवा संघ' की स्थापना की, जिसे बाद में 'हिमालय सेवा संघ' का नाम दिया गया।

पर्वतीय राज्य की मांग: 1950 के बाद का दौर

स्वतंत्रता के बाद, 1950 में हिमालयी राज्य के लिए 'पर्वतीय जन विकास समिति' का गठन हुआ, जिसमें उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश को मिलाकर एक राज्य बनाने का प्रस्ताव था। 1967 में 'पर्वतीय राज्य परिषद' का गठन हुआ, जिसके अध्यक्ष दयाकृष्ण पांडे थे। इसके बाद 1970 में पी.सी. जोशी ने कुमाऊं राष्ट्रीय मोर्चा का गठन किया, जिससे पर्वतीय राज्य की मांग को और बल मिला।

उत्तराखंड क्रांति दल का गठन और 1994 का जनांदोलन

1979 में मसूरी में आयोजित पर्वतीय जन विकास सम्मेलन के दौरान उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) का गठन हुआ। इसके अध्यक्ष कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति डी.डी. पंत चुने गए। 1994 में शुरू हुआ उत्तराखंड का जनांदोलन एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस दौरान उत्तराखंड के विभिन्न संगठनों, छात्र संघों, महिला मोर्चों और दिल्ली स्थित उत्तराखंडी संगठनों ने एकजुट होकर राज्य प्राप्ति आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

रामपुर तिराहा कांड: आंदोलन का दुखद अध्याय

उत्तराखंड राज्य निर्माण के संघर्ष में सबसे दर्दनाक घटना रामपुर तिराहा कांड रही, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। यह घटना 2 अक्टूबर, 1994 को घटी, जब उत्तराखंड के आंदोलनकारी दिल्ली में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करने जा रहे थे। रामपुर तिराहा पर उन्हें पुलिस ने रोका और बेरहमी से लाठीचार्ज किया गया। पुलिस की गोलीबारी में 7 लोगों की मौत हुई और कई महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार हुईं। यह घटना उत्तराखंड के आंदोलन के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है, लेकिन इसने आंदोलन को और भी मजबूत बना दिया।

2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन

1996 में प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य की घोषणा की। इसके बाद 1998 में भाजपा सरकार ने उत्तरांचल राज्य के गठन के लिए विधेयक पारित किया। 9 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड को आधिकारिक रूप से भारत का 27वां राज्य घोषित किया गया। यह तारीख उत्तराखंड के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गई।

उत्तरांचल से उत्तराखंड: नामकरण का सफर

1 जनवरी, 2007 को उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया, जिससे राज्य को उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान मिली। इसके बाद उत्तराखंड के विकास और संघर्ष की कहानी ने एक नया मोड़ लिया।

रामपुर तिराहा कांड का न्यायिक सफर

रामपुर तिराहा कांड का मामला सीबीआई तक पहुंचा और कई पुलिस अधिकारियों पर मुकदमे चलाए गए। 1995 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए, जिसके बाद 2003 में कुछ अधिकारियों को सजा सुनाई गई। हालांकि, कई मामले अब भी न्यायालय में लंबित हैं और पीड़ितों को न्याय की उम्मीद है।

निष्कर्ष: संघर्षों की अमर गाथा

उत्तराखंड राज्य का गठन सिर्फ एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि यह लोगों के संघर्ष, बलिदान और एकजुटता की मिसाल है। इस राज्य की हर गली, हर गाँव, और हर शहर में उन आंदोलनकारियों की कहानियां बसी हैं, जिन्होंने उत्तराखंड को एक अलग पहचान दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।

उत्तराखंड के संघर्ष की यह यात्रा आज भी उन लोगों के दिलों में जीवित है, जिन्होंने इस राज्य को आकार देने में अपना योगदान दिया। चाहे वह रामपुर तिराहा कांड हो या फिर उत्तराखंड क्रांति दल का संघर्ष, हर घटना ने राज्य निर्माण की इस ऐतिहासिक यात्रा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।


काव्य समर्पण: उत्तराखंड का संघर्ष

"बाड़ी-मडुआ खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे,"
हर दिल की आवाज़ बनी थी, ये नारा आंदोलन का।
न्याय और स्वतंत्रता की चाह में,
खून-पसीने से सजी थी संघर्ष की धरती।

रामपुर तिराहा में गूंजा वो क्रंदन,
पर फिर भी रुका नहीं आंदोलन का कारवां।
उन वीरों की कुर्बानी से चमका उत्तराखंड,
बनी एक नयी पहचान, नयी पहचान।

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