पहाड़ तब और अब: यादें, बदलाव, और सच्चाई
पहाड़ का स्वर्णिम अतीत
कतुक सुखद थे, हमारे नन्हे-नन्हे दिन,
हर चिट्ठी, हर पोस्टकार्ड,
जैसे दिदी का प्यार,
और हर शब्द मोती सा चमकता।
पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतों में,
गाय, बकरी, और गोरू-बाछे,
जंगलों में घास और जड़ी-बूटियाँ,
सब कुछ भरपूर था।
दूध, अनाज, फल, और साग,
जैसे प्रकृति का आशीर्वाद।
दिदी की चिट्ठियाँ,
आशा और स्नेह का प्रतीक थीं।
गाँव के छोटे-छोटे सुख,
हर धुरी और आँगन में बसते थे।
अब का पहाड़
अब, सब कुछ बदल गया।
सड़कें बन गईं, गाड़ियाँ आ गईं,
पर प्रेम की भावना,
कहीं खो गई।
स्कूल और कॉलेज तो बढ़े,
पर शिक्षित होने के बाद,
गाँव छोड़कर,
लोग शहरों में बस गए।
खेती-बाड़ी अब कोई नहीं करता,
पशु और हरियाली,
जंगलों के साथ खो गए।
जहाँ पहले चिड़ियों का संगीत था,
अब शोर और उदासी है।
बदलते समय का दर्द
पहाड़ का विकास,
आपदाओं का कारण बन गया।
पेड़ों की कटाई,
और जंगलों का उजड़ना,
नेचर की गोद को वीरान कर गया।
सरकारी योजनाएँ हैं,
पर लोग आत्मनिर्भर नहीं।
नशे और आलस ने,
समाज को जकड़ लिया।
पहाड़ तब और अब: एक तुलना
तब | अब |
---|---|
खेतों में हरियाली | बंजर जमीन |
गाँव में प्रेम और अपनापन | शहरों की दौड़ में अकेलापन |
चिट्ठियों का महत्व | मोबाइल का उपयोग |
प्राकृतिक सौंदर्य | शहरीकरण का अतिक्रमण |
क्या करें?
- प्रकृति को बचाएँ:
जंगलों की कटाई रोकें, हरियाली बढ़ाएँ। - संस्कृति को बनाए रखें:
पारंपरिक त्योहार और रीति-रिवाज को पुनर्जीवित करें। - समाज में प्रेम बढ़ाएँ:
तकनीक के साथ, मानव मूल्यों को न भूलें।
निष्कर्ष
पहाड़ तब और अब,
सिर्फ बदलाव की कहानी नहीं,
बल्कि खोए हुए समय की पुकार है।
आइए, अपने गाँवों को फिर से
वही प्यार और अपनापन दें।
पहाड़ को पहाड़ रहने दें।
📖 यह कविता पहाड़ की भावनाओं और उसके बदलते स्वरूप का प्रतीक है। इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा करें और अपने उत्तराखंड को हरा-भरा और खुशहाल बनाने का संकल्प लें। 🌿
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