उत्तराखंड की लोकभाषाएं - गढ़वाली (Uttarakhand ki Lok Bashayen - Gadhwali)
उत्तराखंड, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां की लोकभाषाओं में गढ़वाली का महत्वपूर्ण स्थान है। गढ़वाली भाषा, जो मुख्य रूप से गढ़वाल क्षेत्र में बोली जाती है, एक प्राचीन और समृद्ध भाषा है। इसे दरद/खस प्राकृत से प्रभावित माना जाता है, लेकिन कुछ भाषाशास्त्रियों के अनुसार इसकी उत्पत्ति शुद्ध शौरसेनी से हुई है। प्रसिद्ध भाषाविद् मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक 'साइंस ऑफ लेंगवेज़' में गढ़वाली को प्राकृत भाषा का एक रूप माना है।
गढ़वाली भाषा का इतिहास
गढ़वाली बोली का संस्कृतनिष्ठ वैदिक शब्द प्रधान होने का उल्लेख बालकृष्ण शास्त्री की 'कनकवंश' और हरीराम धसमाना की 'वेदमाता' जैसी पुस्तकों में किया गया है। पाणिनी की 'अष्टाध्यायी' में आए शब्दों से यह भी पता चलता है कि पाणिनी व्याकरण की रचना गढ़वाल क्षेत्र में ही हुई थी। इसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि वैदिक आर्य भाषा का विकास और उत्कर्ष भी गढ़वाल क्षेत्र में हुआ था।
'अष्टाध्यायी' के 'गोष्ठ' शब्द को गढ़वाली भाषा में 'गोठ' कहा जाता है, जिससे 'गोठियारा' शब्द निकला है। इसी प्रकार, 'लवनि' शब्द का प्रयोग गढ़वाली में 'लौण' के रूप में होता है, जो खेती की फसल काटने के संदर्भ में उपयोग होता है।
गढ़वाली में प्रचलित बोलियाँ
गढ़वाली भाषा, जो कि हिंदी के बहुत निकट है, विभिन्न क्षेत्रों में बदलती रही है। इसकी उपबोलियाँ क्षेत्रीय विशेषताओं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में बोली जाती हैं। यहां हम गढ़वाली बोली की कुछ प्रमुख उपबोलियों के बारे में चर्चा करेंगे:
- बधाणी: पिंडर और नंदाकिनी नदी के मध्य बधाण पट्टी में बोली जाने वाली बोली है। (उदाहरण: "कै आदमी का द्वि छियोडी छ्या।")
- माँझ कुमैया: कुमाऊं क्षेत्र से जुड़ी हुई बोली में कुमाऊंनी शब्दों का मिश्रण है, जिसे 'माँझ कुमैया' कहा जाता है। (उदाहरण: "कै मैस का द्वि चेला छिया।")
- श्रीनगरी: यह बोली गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर और इसके आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। (उदाहरण: "कै आदिमा का द्वि नौनयाल छया।")
- सलाणी: सलाण क्षेत्र के अंतर्गत बोली जाने वाली बोली को सलाणी कहा जाता है। (उदाहरण: "कै झणा का द्वी नौना छया।")
- नागपुरिया: चमोली जनपद के नागपुर पट्टी और इसके संलग्न क्षेत्रों में बोली जाती है। (उदाहरण: "कै बैख का द्वी लौड़ा छया।")
- गंगपरिया: टिहरी गढ़वाल में बोली जाने वाली बोली को गंगपरिया कहा जाता है। (उदाहरण: "एक झणा का द्वि नौन्याल थया।")
- लोहम्बा: राठ से संलग्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोली को लोहब्बा कहा जाता है। (उदाहरण: "कै कजे का द्वि नॉन छाय।")
- राठी: कुमाऊं से संलग्न क्षेत्रों की बोली को राठी कहा जाता है। (उदाहरण: "कै मनखि का द्वि लौड़ छाया।")
- दसौली: नागपुर पट्टी से जुड़ी दशोली पट्टी की बोली को दसौली कहा जाता है। (उदाहरण: "कई आदमी का दुई लड़िक छया।")
कुमाऊंनी और गढ़वाली बोलियाँ
कुमाऊंनी और गढ़वाली भाषाएं वास्तव में एक ही भाषा के दो रूप हैं, जिन्हें मध्य पहाड़ी के रूप में जाना जाता है। मध्यकाल के राजतंत्र के समय उत्तराखंड दो प्रमुख राज्यों – गढ़वाल और कुमाऊं में विभाजित था। इस विभाजन के कारण इन दोनों क्षेत्रों की बोलियों में भी अंतर आया, जिससे इनका नामकरण भी हुआ।
निष्कर्ष
गढ़वाली भाषा उत्तराखंड की एक समृद्ध और ऐतिहासिक भाषा है, जो न केवल यहां के लोगों के दैनिक जीवन का हिस्सा है, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का भी प्रतीक है। विभिन्न बोलियों के रूप में इसके विकास ने इसे और भी अधिक विविधतापूर्ण और आकर्षक बना दिया है। गढ़वाली की इन बोलियों के माध्यम से उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं को सहेजने में मदद मिलती है।
Frequently Asked Questions (FAQs)
1. गढ़वाली भाषा क्या है?
गढ़वाली एक प्राचीन और समृद्ध भाषा है, जो मुख्य रूप से उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में बोली जाती है। यह दरद/खस प्राकृत से प्रभावित मानी जाती है और इसका इतिहास संस्कृत से जुड़ा हुआ है।
2. गढ़वाली भाषा का इतिहास क्या है?
गढ़वाली बोली का इतिहास प्राचीन है, और इसे संस्कृतनिष्ठ वैदिक शब्दों का प्रबल प्रभाव है। पाणिनी की 'अष्टाध्यायी' में वर्णित शब्दों के आधार पर यह माना जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में ही वैदिक आर्य भाषा का उत्कर्ष हुआ था।
3. गढ़वाली भाषा की उपबोलियाँ कौन सी हैं?
गढ़वाली भाषा में विभिन्न क्षेत्रीय उपबोलियाँ पाई जाती हैं, जैसे:
- बधाणी: पिंडर और नंदाकिनी नदी के मध्य बोली जाने वाली बोली।
- माँझ कुमैया: कुमाऊं से जुड़ी बोली।
- श्रीनगरी: गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर और इसके आसपास की बोली।
- सलाणी, नागपुरिया, गंगपरिया, लोहम्बा, राठी, और दसौली भी कुछ प्रमुख उपबोलियाँ हैं।
4. गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाओं में क्या अंतर है?
गढ़वाली और कुमाऊँनी, दोनों मध्य पहाड़ी भाषाएँ हैं, जो गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र में बोली जाती हैं। इन दोनों के बीच भाषाई अंतर हैं, जो क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण उत्पन्न हुए हैं।
5. गढ़वाली बोली में संस्कृत के शब्द कैसे मिलते हैं?
गढ़वाली बोली में संस्कृत के कई शब्द प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए, 'गोष्ठ' (संसकृत में) को गढ़वाली में 'गोठ' कहा जाता है। इस प्रकार, गढ़वाली बोली में संस्कृत के कई शब्दों का प्रयोग होता है, जो इसकी प्राचीनता और गहरी सांस्कृतिक जड़ों को दर्शाता है।
6. गढ़वाली भाषा का सांस्कृतिक महत्व क्या है?
गढ़वाली भाषा न केवल उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, बल्कि यह समाज की पहचान और परंपराओं को जीवित रखने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। गढ़वाली के लोकगीत, लोककविता और अन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ इस भाषा के महत्व को और अधिक बढ़ाती हैं।
7. गढ़वाली भाषा के संरक्षण के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?
गढ़वाली भाषा के संरक्षण के लिए विभिन्न संगठन और समुदाय प्रयासरत हैं। इसमें गढ़वाली साहित्य का प्रकाशन, स्कूलों और कॉलेजों में गढ़वाली की शिक्षा, और लोक संगीत के माध्यम से इसके प्रचार-प्रसार के कार्य शामिल हैं।
8. गढ़वाली भाषा को किस प्रकार सीखा जा सकता है?
गढ़वाली भाषा को सीखने के लिए स्थानीय क्षेत्रों में जाकर लोगों से संवाद करना, गढ़वाली साहित्य का अध्ययन करना, और गढ़वाली गीतों और कहानियों को सुनना एक प्रभावी तरीका हो सकता है। इसके अलावा, कुछ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और पुस्तकें भी उपलब्ध हैं जो गढ़वाली सिखने में मदद कर सकती हैं।
9. गढ़वाली भाषा और संस्कृति में कौन-कौन सी खासियतें हैं?
गढ़वाली भाषा और संस्कृति में प्रमुख रूप से लोकगीत, लोककविता, पारंपरिक नृत्य, और त्योहारों का महत्व है। गढ़वाली समाज में पर्वों, जैसे 'बग्वाल' और 'गंगा दशहरा', का विशेष महत्व है, और इनका आयोजन गढ़वाली भाषा और संस्कृति से जुड़ा हुआ है।
10. क्या गढ़वाली भाषा का भविष्य सुरक्षित है?
गढ़वाली भाषा का भविष्य विभिन्न प्रयासों से सुरक्षित हो सकता है, जैसे इसके साहित्य का संरक्षण, शिक्षा प्रणाली में इसे शामिल करना, और नई पीढ़ी को इसके महत्व का ज्ञान देना। हालांकि, समय के साथ इस भाषा को बचाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो सकता है, जिसे निरंतर प्रयासों द्वारा किया जा सकता है।
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