उत्तराखण्ड का इतिहास (History of Uttarakhand Part 2)

(1) महान हिमालयी क्षेत्र

(1) महान हिमालयी क्षेत्र  इस क्षेत्र की ऊँचाई 4800 से 6000 मीटर के मध्य है और यह  राज्य को तिब्बत की पठारी  सीमाओं से पृथक करता है। लगभग 50 किमी0 चौड़ाई वाला यह  क्षेत्र भारतीय मानसून के हिसाब से वृष्टिछाया क्षेत्र है। इस भाग में अनेक हिमनद है इसलिए कई प्रमुख नदियाँ जैसे भागीरथी, अलकनंदा और यमुना का उद्गम इसी क्षेत्र से है। इस भाग की मिट्टी तलछट की चट्टानो से निर्मित है जिसके कारण इस क्षेत्र में अनेक घाटियो का निर्माण हो गया है। इस क्षेत्र की प्रमुख चोटिया नंदादेवी, कामेत, बंदरपूछ इत्यादि है।












इस भू-भाग की जलवायु अत्यन्त ठण्डी है और इस क्षेत्र की पर्वत चोटियाँ वर्ष भर बर्फ से ढकी रहती हैं। यह क्षेत्र अत्यन्त कटा-फटा है जो पंखाकार आकृति वाली मोड़दार पर्वत श्रंखलाओं द्वारा निर्मित है। यह कठोर जलवायु दशा, वनस्पति शून्य एवं निर्जन भू-भाग वाला क्षेत्र है। प्रसिद्ध मानसरोवर यात्रा का मार्ग भी इस

क्षेत्र में है। इस भाग में जून से सितम्बर के मध्य औसतन, 100-200 मिमी तक वर्षा होती है। हिमालय के इस भाग में शीतोष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन पाये जाते है जिनमें साल, चीड़ और सागौन के वृक्ष बहुतायत में होते हैं। घाटियों के निचले क्षेत्रों में वनस्पति का पूर्ण अभाव होता है।

हिमालय का यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही उद्यमी जनजाति (शौका) का ग्रीष्म कालीन निवास रहा है। तिब्बत व चीन से प्राचीन एवं आधुनिक सम्बन्धों को केन्द्र भी यही क्षेत्र है। इस क्षेत्र के निवासियो का मुख्य व्यवसाय पशुपालन है। इसके अतिरिक्त ऊनी वस्त्र, हस्तशिल्प, जड़ी-बूटी इत्यादि का परम्परागत व्यापार इस क्षेत्र के निवासियों की आय का प्रमुख साधन रहे है।

(2) मध्य हिमालय क्षेत्र महान हिमालय

(2) मध्य हिमालय क्षेत्र महान हिमालय एवं शिवालिक पर्वतमाला के मध्य का क्षेत्र मध्य हिमालय कहलाता है। मध्य हिमालय सरयू, गोमती, रामगंगा, नयार आदि कई नदियों का उदगम स्थल है। इस क्षेत्र की चोटियाँ 3000-4000 मीटर तक ऊँची है। यह हिमालय का नवीन भाग है जिसकी संरचना अवसादी चट्टानो से हुई है। जलवायु की दृष्टि से यह भी शीत प्रदेश है। सर्दियों में कड़ाके की ठण्ड के साथ तापमान शून्य से नीचे चला जाता है जबकि ग्रीप्मकालीन में मौसम अत्यंत ही सुहावना बना रहता है। इस कारण इस क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही बनी रहती है। इस क्षेत्र में ग्रीष्म ऋतु में मानसूनी वर्षा होती है। इस क्षेत्र के आधे भाग में चीड, देवदार, साल के वनों का विस्तार है।

उत्तराखण्ड राज्य के क्षेत्रफल का लगभग आधा हिस्सा मध्य हिमालय पर अवस्थित है। इसमें अधिकाशतः ग्रामीण जनसंख्या एवं बस्तियों का विस्तार है। उत्तराखण्ड में पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण अधिकांश स्थल यथा-नैनीताल, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी, अल्मोड़ा, इत्यादि इस भाग में ही अवस्थित है। इस भाग की दक्षिणी सीमा पर कुमाऊँ का झील प्रदेश एक विशिष्ट इकाई के रूप में लगभग 200 वर्ग किमी में फैला हुआ है। नैनी, भीमताल, नौकुचया इत्यदि प्रमुख झील इस क्षेत्र में स्थित है।

(3) शिवालिक हिमालयी क्षेत्र हिमालय क्षेत्र

(3) शिवालिक हिमालयी क्षेत्र हिमालय क्षेत्र के सबसे निचले हिस्से में स्थित पर्वत श्रंखलाएँ शिवालिक हिमालय के नाम

से जानी जाती है। इन्हे "पाद श्रंखलाओं की संज्ञा भी दी जाती है। इस क्षेत्र के दक्षिण भाग में कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ और मध्य क्षेत्र में कई चपटी घाटियाँ है जिन्हें "दून" कहा जाता है। उत्तराखण्ड राज्य के दक्षिणी अल्मोड़ा, मध्य नैनीताल एवं देहरादून जिले का कुछ हिस्सा इस हिमालय क्षेत्र में पड़ता है। इस क्षेत्र की पहाड़ियों की ऊँचाई 750 से 1200 मीटर के मध्य है। इस क्षेत्र का तापमान शीतकाल में सेल्सियस एवं ग्रीष्मकाल में 33° सेल्सियस तक जाता है। इस क्षेत्र में ग्रीष्मकाल में मानसूनी वर्षा औसतन 150-220 मिमी के मध्य होती है।

हिमालय के इस क्षेत्र में सर्वाधिक वनस्पति पायी जाती है जिनमें मुख्यतः आँवला, शीशम, साल, चीड़, देवदार, बाँस आदि है। इस क्षेत्र में मसूरी, लैन्सडाउन, रानीखेत, चकराता, नैनीताल, भीमताल, खिर्सु, कौसानी इत्यादि प्रमुख पर्यटक स्थल अवस्थित है जहाँ वर्षभर पर्यटकों का तांता लगा रहता है। इसके अतिरिक्त हर की दून, कोटली दून, पाटली दून जैसे प्राकृतिक सौन्दर्य के महत्वपूर्ण स्थान भी इस भाग में ही है। अतः पर्यटन उद्योग की दृष्टि से यह उत्तराखण्ड राज्य का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

(4) गंगा का मैदानी क्षेत्र

(4) गंगा का मैदानी क्षेत्र शिवालिक पर्वतमाला के पाद पर स्थित गंगा के मैदानी भाग का कुछ हिस्सा नवीन राज्य उत्तराखण्ड का हिस्सा है। राज्य का यह क्षेत्र लगभग 10-25 किमी चौड़ा है। इस क्षेत्र में राज्य के काशीपुर, किच्छा, ऊधमसिंह नगर एवं देहरादून पौड़ी जिलो का कुछ भाग आता है। यह अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र है एवं इस क्षेत्र की जलवायु ग्रीष्मकाल में अत्यधिक गर्म होती है। क्षेत्र को तराई-भाबर के नाम से जाना जाता है।

उत्तराखण्ड राज्य प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से अति संवेदनशील है। वस्तुतः यह क्षेत्र दो प्लेटों का मिलन स्थल है। यूरेशियन अथवा तिब्बत प्लेट मिलती हैं और भारतीय प्लेट 5 सेमी० की गति से यूरेशियन प्लेट की ओर खिसक रही है। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में भूकम्प की निरन्तरता बनी रही है। वैज्ञानिको ने सम्पूर्ण राज्य को भूकम्प के जोन-45 में रखा है। भारतीय उपमहाद्वीप की "मेन सेन्ट्रल थ्रस्ट लाईन जो उत्तर की ओर खिसक रही है, क्रमशः चमोली, गोपेश्वर गंगाघाटी से होती कुमाऊँ के कई क्षेत्रो से होकर नेपाल तक जाती है।

नोट- उपरोक्त सभी भूकम्प 6 से अधिक तीव्रता वाले है।

इस क्षेत्र के प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक डॉ० के. एस. वाल्दिया के कथानुसार उत्तराखण्ड राज्य के अधिकांश स्थल फाल्ट लाईन के ऊपर अवस्थित है इस कारण यहाँ भूकम्प, भूस्खलन जैसी आपदाओं की निरन्तरता बनी रहती है। इसी कारण उत्तराखण्ड प्रथम भारतीय राज्य भी है जिसने पृथक आपदा प्रबन्धन मंत्रालय का गठन किया है। इस मंत्रालय का मॉडल ऑस्ट्रेलिया मॉडल पर आधारित है।

राज्य का लगभग 66 प्रतिशत क्षेत्र वनों से घिरा हुआ है जो 1952 की राष्ट्रीय वननीति में रखे गए न्यूनतम वनक्षेत्र (33%) की सीमा से लगभग दो गुना है। इसके बावजूद इस क्षेत्र के लोगो में वनो के प्रति लगाव का अन्दाजा 'चिपको आन्दोलन', मेती आन्दोलन इत्यादि से लगाया जा सकता है। इस प्रदेश में जड़ी-बूटी का विशाल भण्डार मौजूद है। यहाँ तक की पौराणिक महाकाव्य रामायण में वर्णित 'संजीवनी' बूटी भी इसी क्षेत्र में पाई जाती है यद्यपि अब तक इसकी पहचान नहीं हो पाई है, लेकिन फिर भी इस क्षेत्र में कई जीवन रक्षक बूटियाँ उपलब्ध है। किलमोड़ा से पीलिया, मधुमेह का उपचार हो रहा है। कैंसर के ईलाज में प्रयुक्त "टैक्साल" की कई गुना प्रभावी मात्रा थूनेर प्रजाति के वृक्ष के छाल से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त तेजपात, मेथा, सतावरी जैसी अनगिनत प्राकृतिक जड़ी बूटियों का भण्डार इस राज्य में भरा पड़ा है।

वन्य जीवों की दृष्टि से भी उत्तराखण्ड राज्य बहुत धनी है। एशिया का सबसे पहला राष्ट्रीय पार्क हेली नेशननल पार्क वर्ष 1936 में इस क्षेत्र में ही स्थापित किया गया जो वर्तमान में 'कार्बेट नेशनल पार्क' के नाम से प्रसिद्ध है। राज्य में वर्तमान समय से 6 राष्ट्रीय उद्यान और 6 वन्य जीव विहार है।

राज्य में 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या घनत्व 189 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। राज्य में सर्वाधिक जनसंख्या हरिद्वार जिले तथा सबसे कम रूद्रप्रयाग जिले की है। राज्य में स्त्री-पुरूप का अनुपात 963 है। राज्य में सामान्य जाति के लोगो को अतिरिक्त कई जनजातियाँ भी निवास करती हैं इनमें भोटिया-

- बुक्सा, जौनसारी, थारू, महीगीर आदि प्रमुख है। आई आई टी रूडकी के प्रो० डी०के० नोटियाल के शोध कार्य 'मध्य हिमालय की जनजातियों के सामाजिक आर्थिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि राज्य में निवासरत जनजातियों की कुल आबादी तीन लाख है। इनका शैक्षिण स्तर अत्यन्त निम्न है। आज भी ये जनजातियाँ पारम्परिक समाज में ही अपना जीवनयापन कर रहे है।

राज्य का सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय जौनसारी है जो जनपद देहरादून के जौनसार-भावर क्षेत्र में निवास करते है। नैनीताल और ऊधम सिंह नगर के सीमांत क्षेत्रो में रहने वाली थारू जनजाति राज्य की दूसरी बड़ी जनजाति है। जबकि उच्च हिमालय पर निवास करने वाली भोटिया जनजाति में 'मौसमी प्रवास का प्रचलन है।

राज्य निर्माण के पश्चात् वर्ष 2001 में राज्य के राज्य चिन्हों और प्रतीको का निर्धारण किया गया। इसके अनुसार गोलाकार मुद्रा में तीन पर्वतो की एक श्रृंखला के ऊपर अशोक की लाट है जिसके नीचे मुण्डक उपनिषद् का वाक्य 'सत्यमेव जयते उदधृत है तथा ऊपर गंगा नदी के प्रतीक रूप में चार लहरें अंकित है। हिमालयी क्षेत्रो में पाया जाने वाल दुर्लभ प्राणी कस्तूरी मृग को राज्य का राजकीय पशु घोपित किया गया है जिसका वैज्ञानिक नाम 'मास्कस क्राइसोगॉस्टर' है। हिमालय की हिमाच्छादित्त उतुंग पर्वत श्रेणियो पर पाया जाने वाला पक्षी मोनाल (Lophophorw Impejanaus) राज्य पक्षी है। ऊँचे पर्वतों की कठोर चट्टानों एवं दुर्गम क्षेत्रों पर उगने वाले बारहमासी पौधे 'ब्रहाकमल' का (Saussurea abvallata) पुप्प राज्य का पुप्प है तथा महोगेनी प्रजाति के वृक्षों के साथ उगने वाला बुरांश (Rhododendron arbrreum) राज्य का राजकीय वृक्ष है।

इस प्रकार, भूगर्मिक संरचना, धरातलीय विन्यास की विविधता नदी-घाटियों, पर्वतो के विस्तार ढाल, प्राकृतिक एवं जैव विविधता की बहुलता वाले क्षेत्र, राज्य को एक विशिष्ट नैसर्गिक पहचान प्रदान करते हैं, वहीं मानवीय प्रयास की सीमाओं व कियाकलापों के वितरण, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा कार्य व्यवस्था के स्थानीय स्वरूप को भी विलक्षणता प्रदान करते है। इस कारण उत्तराखण्ड राज्य ही नहीं वस्तुतः सभी हिमलायी राज्यों के समग्र विकास के लिए नियोजन के विशिष्ट ढाँचे की जरूरत है जिसमें पर्वतीय क्षेत्र की भौगोलिक विभिन्नताओं का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।

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