उत्तराखण्ड का इतिहास (History of Uttarakhand Part 4)

आध्र- ऐतिहासिक काल

चतुर्थ सहस्त्राब्दी ई०पू० से लेकर ऐतिहासिक काल के आरम्भ के मध्य को समान्यतः आद्य ऐतिहासिक काल कहा गया है। वस्तुतः इस काल में ही वास्तविक सभ्यता का श्रीगणेश हुआ। यह प्राग् ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक काल के मध्य एक संक्रमण काल है। जिसके कुछ भाग की कोई लिखित सामाग्री नहीं प्राप्त हुई जबकि इसके अंतिम चरण के अतिअल्प लिखित प्रमाण मिले है। उत्तराखण्ड राज्य से आद्य ऐतिहासिक काल के दो प्रकार के स्त्रोत प्राप्त होते हैं

(1) पुरातात्विक स्त्रोत

(2) लिखित स्त्रोत

(1) पुरातात्विक स्त्रोत

उत्तराखण्ड राज्य में हुए उत्खनन एवं सर्वेक्षण के पश्चात् आद्य ऐतिहास काल के सम्बन्धित सामाग्री प्रकाश में आई। अध्ययन की सुविधा दृष्टि से हम इन स्त्रोतों का वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते है-

(अ) कप-मार्क्सः- विशाल शिलाखण्ड़ो एवं चट्टानों पर बने ओखली के आकार के उथले गोल-गोल गड्ढे पुरातत्वीय भापा में कप-मार्क्स कहलाते है। सर्वप्रथम 1856 ई० में हेनवुड महोदय ने चम्पावत जिले के देवीधुरा नामक स्थान पर अवस्थित इस प्रकार की ओखलियों का विवरण प्रकाशित किया। इसके पश्चात् 18770 में रिवेट-कारनक ने द्वारहाट के शैलचित्रों का वर्णन किया एवं यूरोप से प्राप्त शैलचित्रों के समान बताया। कारनक को यहाँ के चन्द्रेश्वर मन्दिर में बाहर समानान्तर पक्तियों में लगभग 200 कप-मार्क्स मिले। इसके पश्चात् यशोधर मठपाल महोदय को द्वारहाट में कुछ दूरी पर पश्चिमी रामगंगा घाटी के नौला ग्राम से इन्हीं के समान बहत्तर कप-मार्क्स प्राप्त हुए। कटौच महोदय ने कालान्तर में गोपेश्वर के निकट मण्डल, पश्चिमी नयार घाटी में ग्वाड़ आदि में इसी प्रकार की ओखलियों की खोज की।

(ब) ताम्र उपकरण ऊपरी गंगा घाटी में फतेहगढ़, बिदूर, बसौली, सरथौली, शिवराजपुर आदि स्थलों से ताम्र संचय प्राप्त हुए है। हरिद्वार के निकट बहादराबाद से ताम्रनिर्मित भालाग्र, रिंग्स, चूडियाँ इत्यादि नहर की खुदाई के दौरान मिले। इन उपकरणों के साथ ही लोहित मृदभाण्ड (Red Ware) भी मिले है। एच०डी० सांकलिया ने इन मृदमाण्डों के साम्यता गोदावरी घाटी से प्राप्त मृदमाण्डों से की है। यज्ञदत्त शर्मा के अनुसार बहादराबाद से प्राप्त लोहित मृदभाण्ड मोटे है तथा पर्याप्त पकाये हुए नहीं है। वर्ष 1986 में अल्मोड़ा जनपद से एक एवं वर्ष 1989 ई० में बनकोट (पिथौरागढ़) से आठ उपकरण प्राप्त हुए है। आल्विक महोदय ने इस उपकरण को यज्ञीयकुण्ड" जबकि महेश्वर प्रसाद जोशी ने परशु-पुरूप' (Personified Axe) बताया है परन्तु डी०पी० शर्मा महोदय इन्हें ताम्र संस्कृति के नये "स्कन्धित कुठार" (Hand Axe) मानते हैं।

इन स्कन्धित कुठार के प्रयोग के विषय में इतिहासकार मौन है क्योंकि न तो यह खनन के लिए उपयुक्त लगता है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से सुविधाजनक प्रतीत होता है। आरम्भ में पुराविदों का मानना था कि इस क्षेत्र में ताम्र-आपूर्ति बाहर से होती थी किन्तु अब यह स्पष्ट हो गया है कि इस काल के लोग ताम्र के लिए गढ़वाल-कुमाऊ की धनपुर, डांडा, तम्बखानी, अस्कोट इत्यादि की ताम्र-खानों पर ही निर्भर थे। गढ़देश में उत्तमकोटि के ताम्र मिलने का वर्णन मिलता है। "आगरी" जाति के खनक यहाँ चिरकाल से खनन कार्य करते आ रहे है। अतः कहा जा सकता है। कि उत्तराखण्ड का प्राचीन ताम्र संस्कृति के निर्माण में निश्चित ही योगदान रहा।

(स) महापाषाणीय शवाधान- चमोली जिले के मलारी ग्राम से महापापाणीय संस्कृति के शवाधान एवं अवशेप मिले है। इन शवधानों की आकृति मण्डलाकार गर्तों जैसी है जिनमें शव के चारो ओर अनगढ़ शिलाएँ खड़ी करके रखी गई है एवं इन्हें ऊपर से बड़े-बड़े पटालों से ढका गया है। इन शवाधानों में मानव अवशेपों के साथ अश्व, मेंढ़, तश्तरिया विभिन्न आकार की टोंटी एवं हत्थेयुक्त कुतुप इत्यादि भी रखे गए है। सम्भवतः ये इस बात का संकेत है कि इस काल का मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवन की कल्पना करता है।

यहाँ से प्राप्त एक सुन्दर कुतुप पर चमकदार पॉलिश है एवं उसके हत्थे पर मोनाल पक्षी का आर्कपक चित्र अंकित है। इन श्वाधानों की मुख्य विशेषता है कि शवों को सीधा नहीं अपितु औंधा लिटाकर रखा गया है। धृपमैन महोदय के अनुसार लगभग 2000 ई पू० ऐसी शवधान पद्धति ईरान, अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया में प्रचलित थी। इस क्षेत्र के एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय (हे०न० ग विश्वविद्यालय) ने 1983 से 2001 0 के मध्य मलारी का वृहद सर्वेक्षण किया है। अपने सर्वेक्षण में उन्हें आखेट के लिए प्रयुक्त लौह उपकरणों के साथ एक पशु का पूर्ण ककाल मिला है जिसकी पहचान हिमालयी पशु जुबू के रूप में की गई है। इसके साथ ही कुत्ते, बकरी एवं भेड़ों के अस्थि अवशेप भी मिले हैं। यही से एक मानव कंकाल के ऊपर स्वर्ण मुखौटा एवं दश मृतिका पात्रों के साथ काँसे का कटोरा (Bowl) सर्वेक्षण की मुख्य उपलब्धि है। इन सर्वेक्षणों में लोहित एवं कृष्ण ओपदार पात्र, लौह बाणाग्र तथा छूरियां (Knife) इत्यादि भी प्रकाश में आए है। सम्भवतः मलारी के शवाधानों का निर्माण एक पहाड़ी को काटकर गुफा रूप में किया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें खस जाति की समाधियाँ माना है जबकि एच०डी० सांकलिया महोदय ने इन्हें आर्यों से सम्बद्ध किया है।

यशोधर मठपाल महोदय को अल्मोड़ा जिले की पश्चिमी  रामगंगा घाटी के नौला जैनल गाँव से भी शवधान मिले। उनके  अनुसार ये निश्चित ही महापापाणिक लोग थे जो 2500-3000 सहस्त्र पूर्व इस घाटी में निवास करते थे। गढ़वाल विश्वविद्यालय को पश्चिमी रामगंगा घाटी के सानणा एवं बखेड़ी ग्रामों से दो प्रकार के शवाधान प्राप्त हुए, प्रथम प्रस्तर पेटिका शवाधान (Schist burial) एवं द्वितीय घट-शवाधान (Urn-Burial)। सानणा से प्राप्त नौ शिस्ट वरिअल को चोकोर प्रस्तर पट्टिकाओं से ढका गया है। शव रखने के किसी निश्चित विधान का पालन नहीं है एवं शिस्ट कक्ष को चारो ओर से सुरक्षा भित्ती से घेरा गया है। बसेड़ी में शिस्ट एवं अर्न वरिअल दोनों मिले हैं। इन अर्नबरिअल में हस्तनिर्मित घट के साथ मानव अस्थियों के साथ लौह उपकरण प्राप्त हुए है। इन घटों पर पटाई जैसी छाप बनी है। इन दोनों स्थलो से प्राप्त शिस्ट-कक्षों की योजना आयताकार है जिन्हें लम्बवत खड़ी तीन से छः शिलाओं से निर्मित किया गया है।

सानणा-बसेड़ी से प्राप्त मिट्टी के पात्र चित्रित धूसर मृदभाण्डों (PWG) से मिलते-जुलते हैं। इन शवाधानों से क्रमशः तश्तरियां, कटोर घट, चपक, पिन, कील एवं छत्र इत्यादि उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। संम्भवत् ये शवाधान दूसरी सहस्राब्दी ई०पू० के आस-पास के हैं। इसके अतिरिक्त अलमोड़ा के निकट दीनापानी से प्राप्त एकाश्म शिला का सम्बन्ध भी विद्वानों ने महापापाणीय संस्कृति से बताया है।

(द) चित्रित धूसर मृदभाण्ड (PGW) ऊपरी गंगा घाटी में ताम्र संस्कृति के पश्चात् चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति का उन्नयन हुआ। उत्तराखण्ड के परिवर्ती आद्य ऐतिहासिक काल के लोग पी०जी०डब्लू० का प्रयोग करते थे। इसके साक्ष्य कमशः अलकनन्दा घाटी में थापली, यमुना घाटी में पुरोला एवं पश्चिमी रामगंगा घाटी से प्राप्त हुए है। अतः स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में भी लोह के प्रयोग का श्रेय चित्रित धूसर मृदमाण्ड संस्कृति के लोगो को जाता है। श्रीनगर गढ़वाल के निकट थापली नामक स्थान से मिली तश्तरियों, कटोरों, जार इत्यादि मिले है जिन पर काले रंग से क्षैतिज एवं अनुलम्ब रेखाएँ सूर्य प्रतीक बिन्दु, तरंगे, पत्ते एवं वानस्पतिक आकृतियों आदि का चित्राकंन है। भूसी चिन्हित (husk marked) ढीकरों की प्राप्ति यहाँ धान की खेती के प्रमाण प्रस्तुत करता है। यद्यपि यहाँ से कोई लौह का उपकरण नहीं मिला है। यहाँ से पी०डब्लू०जी० के साथ टेरीकॉटा, चित्रित पक्षी, सुअर, अश्व जैसे पशुओं के दन्त अवशेप, ताम्र के कड़े, श्लाकाएं तथा नखनर्तकी भी प्राप्त हुए है। जबकि पुरोला से लोहित एवं कृष्णलेपित भाण्ड, साधारण धूसर एवं लोहित भाण्ड, टेरीकॉटा सिंह, वृषभ, चक, चकती, घट आकार का मनका आदि मुख्य है। यद्यपि यहाँ धातु उपकरणों का नितान्त अभाव मिलता है।

इतिहासविद् बी०बी० लाल महोदय ने इस चित्रित धूसर संस्कृति का साम्य महाभारत काल से स्थापित किया है। उपरोक्त स्थलो से प्राप्त पुरातत्वीय साक्ष्य एवं महाभारत के साहित्यिक प्रमाण दोनों से भी हिमवन्त का महाभारतकालीन संस्कृति से सम्बन्ध जुड़ता है। इस आधार पर उत्तराखण्ड की चित्रित धूसर संस्कृति का काल 1000 ई०पू० के आस-पास बैठता है।

पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य उत्तराखण्ड राज्य में आद्य-ऐतिहासिक काल में नगर होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। गोविषाण (काशीपुर), गंगाद्वार (हरिद्वार), कनखल, श्रुध्न तथा कालकूट इत्यादि के अतिरिक्त सुबाज की राजधानी श्रीनगर नगरीय स्थिति में थे। गोविपाणसे 2600 ई०पू० की इप्टकाएं प्राप्त हो चुकी है जिससे सिद्ध होता है कि इस स्थान का एक व्यापारिक नगर के रूप में अस्तित्व बन चुका था। अतः हम कह सकते है कि आद्य ऐतिहासिक काल में मध्य हिमालय में नगरीयकरण प्रारम्भ हो चुका था।

लिखित स्त्रोत - ई० पूर्व चतुर्थ सहस्त्राब्दी से मध्य हिमालय के आद्य-इतिहास को जानने के पर्याप्त लिखित स्त्रोत भी उपलब्ध है जो वेद, पुराण, ब्राहम्ण ग्रन्थों में कतिपय पुरातन संदर्भों के रूप में सुरक्षित है।

ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि सप्त सैन्धव प्रदेश, सरस्वती की उपत्यका में आर्यों का निवास था। वैवस्तु मनु के वंशज दीर्घकाल तक मेरू पर्वत के आसपास सरस्वती के तटों पर निवास करते रहे हैं। उत्तराखण्ड नाम का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जिसमें इसे देवभूमि कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार प्रलय के बाद प्राणा ग्राम में सप्तऋपियों ने अपने प्राणों की रक्षा की और यहीं से पुनः सृष्टि  आरम्भ हुई। यहीं स्थिति अलकापुरी नामक स्थान को आदि पुरूप मनु का निवास स्थल माना जाता है। ब्रह्मा के मानस पुत्रो दक्ष, मरीचि, पुलसत्य, पुलह, ऋतु और अत्रि का निवास भी गढवाल क्षेत्र में ही था। इतिहासकार भजनसिंह 'सिंह' और शिवानन्द नौटियाल का मत है कि बद्रीनाथ के समीप स्थित नारद, गणेश, व्यास, स्कंद और मुचकुंद गुफाओं में ही वैदिक ग्रन्थों की रचना की गई थी।

ऐतरेय ब्राहाण में इसे उत्तर कुरूओं का निवास स्थल कहा गया है। स्कन्दपुराण में 5 हिमालयी खण्डों का उल्लेख है। इसमें केदारखण्ड  (गढ़वाल) तथा मानसखण्ड (कुमाऊँ) के मध्य विभाजक नन्दा पर्वत

को उल्लेखित किया गया है। पुराणों में ही केदारखण्ड व मानसखण्ड के सयुक्त क्षेत्र को ब्रह्मपुर, खसदेश अथवा उत्तराखण्ड के नाम से पुकारा गया है।

कनखल एवं मायापुर से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के कारण हरिद्वार को 'गेरूए रंग की संस्कृति सभ्यता का नगर कहा गया है। पुराणो में इस धार्मिक नगरी का 'गंगाद्वार' के नाम से उल्लेख है। यह नगर शिवालिक पर्वतमाला में बिल्व पर्वत और नील पर्वत के मध्य बसा है। यहीं पर सांख्य दर्शन के प्रवर्तक कपिल मुनि का आश्रम था। रामायण के नायक श्री राम ने रावण वध के पश्चात् ब्रह्महत्या के प्रक्षलन के लिए हरिद्वार आकर गंगा स्नान किया तदुपरांत देवप्रयाग में तपस्या कर इस पाप से उऋण हुए।

टिहरी गढ़वाल स्थित विसोन नामक पर्वत पर वशिप्टगुहा, वशिष्ट कुंड तथा वशिष्ठाश्रम है। ऐसी मान्यता है कि राम के वनवास पर जाने के बाद ऋषि वशिष्ठ ने अपनी पत्नी अरूंधती के साथ यहीं निवास किया था। देवप्रयाग की पट्टी सितोन्स्यू में सीताजी के पृथ्वी के गर्भ में समाने की मान्यता के कारण प्रतिवर्ष मनसार मेला लगता है। टिहरी जिले के तपोवन को लक्ष्मण की तपस्थली माना जाता है। रामायणकालीन वाणासूर की राजधानी ज्योतिपपुर (जोशीमठ) थी।

महाभारत के वनपर्वत में हरिद्वार से भृगश्रृंग (केदारनाथ) तक की यात्रा का वर्णन है। इसी पर्व में बद्रीकाश्रम की चर्चा भी है एवं साथ ही लोमश ऋपि के साथ पांडवों का इस क्षेत्र की यात्रा पर आने का वर्णन भी है। वनपर्व के अनुसार इस काल में इस क्षेत्र में पुलिंद (कुणिन्द) एवं किरात जातियों का अधिकार था। पुलिंद राजा सुबाहु ने पाण्डवों के पक्ष में महाभारत युद्ध में भाग लिया था। उसकी राजधानी वर्तमान श्रीनगर थी। इसके पश्चात् राजा विराट का उल्लेख मिलता है जिसकी राजधानी बैराठगढी के अवशेप जौनसार से अभी भी मिल जाते है।

 

महाकाव्य काल में उत्तराखण्ड क्षेत्र उतर कुरू के अधीन था। इस काल में इस क्षेत्र में खश, तगण, रामढ तथा जागुण आदि जातियों का उल्लेख मिलता है। आदिपर्व (महाभारत) के अनुसार अर्जुन का नागराज कौरव्य की पुत्री उलूपी से विवाह गंगाद्वार में हुआ था। कुणिदों का वर्णन महाभारत के सभापर्व, भीप्मपर्व व अरण्यपर्व में मिलता है। इस काल में इस क्षेत्र में कम से कम तीन राजनैतिक शक्तियों, खश, तगण एवं किम्मपुरूप के अस्तित्व का पता चलता है। हरिद्वार क्षेत्र में नागराज कोरव्य, सतलज से अलकनन्दा के मध्य कुणिन्द (राजा सुबाहु की राजधानी श्रीनगर अथवा सुबाहुपुर) और मन्दाकिनी के उत्तरी भाग में असुर बाण की सत्ता महाभारत के रचनाकाल के समय इस क्षेत्र में स्थापित थी।

इस युग में बद्रीकाश्रम व कण्वाश्रम नामक दो विद्या के प्रसिद्ध केन्द्र थे। कोटद्वार गढ़वाल स्थित कण्वाश्रम (मालिनी नदी तट पर) शकुन्तला एवं दुष्यंत की प्रणयकथा के लिए विख्यात है। इसी आश्रम में उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत का जन्म हुआ था। सम्भवतः महाकवि कालिदास ने यही अपने ग्रन्थ अभिज्ञान शाकुन्तलम् की रचना की थी।

धार्मिक ग्रन्थों में कहीं-कहीं इस क्षेत्र को केदार खसमण्डले' भी कहा गया है। सम्भवतः केदारखण्ड को खसप्रदेश का पर्याय माना गया है। खसकाल में ही इस क्षेत्र में बौद्ध मत का का सबसे अधिक प्रचार हुआ। पालि भापा में लिखे बौद्ध ग्रन्थों में उत्तराखण्ड के लिए 'हिमवतं' शब्द का प्रयोग किया गया है।

दूसरे खण्ड 'मानस खण्ड" का प्रयोग उत्तराखण्ड के वर्तमान कुमाऊँ क्षेत्र के लिए प्रयोग हुआ है। पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन चपांवत नदी के पूर्व में स्थित काड़ादेव अथवा कातेश्वर पर्वत पर भगवान विष्णु के कच्छप (कूर्म) अवतार के जन्म के कारण  इस क्षेत्र का नाम कूर्माचल पड़ा। आगे चलकर कूर्माचल का प्राकृत भापा में "कुमू" और हिन्दी में कुमाऊँ नाम पड़ा। कुमाऊँ शब्द का सर्वाधिक उल्लेख स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में हुआ है। ब्रह्मपुराण एवं वायुपुराण के किरात, किन्नर, गंधर्व, यक्ष नाग, विद्याधर आदि जातियों का निवास इस क्षेत्र में बताया गया है। महाभारत से किरात, किन्नर, यक्ष, तंगव, कुलिंद तथा खस जातियों के निवास की पुष्टि करता है।

प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में नाग जाति के निवास की पुष्टि बेनीनाग, धौलनाग, कालीनाग, पिंलगनाग, बासुकीनाग, खरहरनाग आदि स्थलों से प्राप्त नाग देवता के मन्दिरों से होती है। इनमें सर्वप्रसिद्ध नाग मन्दिर बेनीनाग (पिथौरागढ़) में स्थित है। इस क्षेत्र में भी खसकाल में ही बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। किरातों के वंशज आज भी अस्कोट एवां डीडीहाट क्षेत्रों में निवास करते है। इन्होंने अपना स्वतंत्र भापाई अस्तित्व बनाया हुआ। इनकी भापा "मुंडा" है। कुमाऊँ क्षेत्र पर राजपूत नियत्रण से पूर्व तक खस जाति का आधिपत्य बना रहा।

तलिका-2

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