स्वतंत्रता पूर्व उत्तराखंड की पत्रकारिता: तीसरा चरण - (Journalism in Uttarakhand before independence: The third phase.)

स्वतंत्रता पूर्व उत्तराखंड की पत्रकारिता: तीसरा चरण

युगवाणी (साप्ताहिक/मासिक), 1947 ई.

टिहरी जनक्रांति के महानायक श्रीदेव सुमन की शहादत के बाद प्रजामंडल आंदोलन में शिथिलता आ गई थी। रियासत में पुनः राजशाही का खौफ फैल गया। इस स्थिति को देखते हुए प्रजामंडल के शीर्ष कार्यकर्ताओं ने रियासत से दूर देहरादून से आंदोलन का संचालन करने का निर्णय लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर टिहरी के कुछ बुद्धिजीवियों और प्रजामंडल कार्यकर्ताओं ने देहरादून में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें प्रजामंडल आंदोलन को पुनः प्रारंभ करने का निश्चय किया गया। साथ ही, आंदोलन को उचित दिशा देने और समाचारों को जनता तक पहुँचाने के उद्देश्य से एक समाचार पत्र प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया।

इसके लिए देहरादून को उपयुक्त स्थान माना गया। इस निर्णय के तहत टिहरी के मूल निवासी और काशी विद्यापीठ के प्राचार्य भगवती प्रसाद पांथरी के संपादन में 15 अगस्त 1947 को देहरादून से युगवाणी नामक समाचार पत्र का पहला अंक प्रकाशित हुआ। प्रजामंडल के सक्रिय कार्यकर्ता तेजराम भट्ट ने इसके प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारंभ में यह पाक्षिक पत्र के रूप में प्रकाशित हुआ, लेकिन कुछ समय बाद यह साप्ताहिक हो गया। इसके पश्चात् संपादन की पूरी जिम्मेदारी आचार्य गोपेश्वर कोठियाल पर आ गई।

चूंकि युगवाणी का प्रकाशन स्वतंत्रता दिवस पर हुआ था, इसलिए इस पत्र का स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष योगदान नहीं रहा। लेकिन टिहरी जनक्रांति में इस पत्र ने राजा के अत्याचारों को उजागर कर उनकी आलोचना की, जिससे यह राजा के क्रोध का शिकार बना। राजा के आदेश से इस पत्र का रियासत में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया, फिर भी यह हर क्रांतिकारी के पास पहुंचता था।

1949 में टिहरी रियासत का उत्तर प्रदेश में विलय हो जाने के बाद, रियासत विरोधी आंदोलनों का अंत हुआ और युगवाणी के तेवर भी नरम पड़ गए। अब यह आम जनता के उत्थान के लिए रचनात्मकता की ओर बढ़ने लगा। इतिहासकारों ने टिहरी जनक्रांति में युगवाणी की भूमिका की तुलना रूस की क्रांति में लेनिन द्वारा संपादित पत्र इस्त्रां से की है। गोविंद नेगी 'आग्नेय' और अन्य कई पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत इसी पत्र से की। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ाने में भी युगवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गोपेश्वर कोठियाल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र संजय कोठियाल ने संपादन का दायित्व संभाला। 2001 से यह मासिक पत्रिका के रूप में नियमित प्रकाशित हो रही है।


प्रजाबंधु (साप्ताहिक), 1947 ई.

रानीखेत के मूल निवासी स्वतंत्रता सेनानी जयदत्त वैला ने 1947 में प्रजाबंधु नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन रानीखेत से प्रारंभ किया। यह पत्र प्रारंभ से ही कांग्रेसी विचारधारा का समर्थक रहा, लेकिन कुछ समय तक नियमित चलने के पश्चात् इसका प्रकाशन बंद हो गया।


स्वतंत्रता पूर्व पत्रकारिता का स्वरूप

स्वाधीनता पूर्व की पत्रकारिता के 105 वर्षों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इसे तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। लेकिन इन तीनों चरणों को एक साथ देखने पर पत्रकारिता के स्वरूप को दो भागों में बांटा जा सकता है:

1. प्रारंभिक स्वरूप

इस दौर की पत्रकारिता में उपनिवेशवाद की छाप स्पष्ट रूप से दिखती है। अधिकांश समाचार पत्र अंग्रेजी प्रशासन के अनुरूप प्रकाशित होते थे और इनमें उतनी ही सूचना जनसामान्य तक पहुँचती थी, जितनी अंग्रेजी सरकार चाहती थी। कभी-कभी सामाजिक पिछड़ेपन के मुद्दों को उठाया जाता था, लेकिन उनके संदर्भ में भी अंग्रेजों के अनुसार ही विचार प्रस्तुत किए जाते थे।

2. द्वितीय स्वरूप

बीसवीं सदी के पहले दशक के अंत तक पत्रकारिता का रुख राष्ट्रीयता की ओर हुआ। देश में स्वतंत्रता आंदोलन तेज होने लगा, जिससे तत्कालीन पत्रकारिता भी प्रभावित हुई। अब पत्रकारों और संपादकों के विचार बदलने लगे और समाचार पत्रों का स्वरूप भी बदल गया। पहले जो समाचार पत्र अंग्रेजी सरकार का गुणगान करते थे, वे अब राष्ट्रीय विचारधारा के वाहक बन गए।

अल्मोड़ा अखबार और गढ़वाली समाचार पत्र इसका प्रमुख उदाहरण हैं। प्रारंभ में ये सरकार समर्थक थे, लेकिन 1910-11 के बाद से राष्ट्रीयता के प्रचारक बन गए। दूसरे दशक के मध्य में पत्रकारिता और अधिक मुखर हो गई। अब समाचार पत्र न केवल राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार करने लगे, बल्कि अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे सामाजिक उत्पीड़न और शोषण जैसे मुद्दों को भी उजागर करने लगे।

इस परिवर्तन का प्रमुख परिणाम यह हुआ कि अब अंग्रेजी प्रशासन को राष्ट्रीय और सामाजिक दोनों आंदोलनों का सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता पूर्व की पत्रकारिता जन-जागृति की पत्रकारिता थी और इसका उद्देश्य व्यावसायिक लाभ कमाना नहीं, बल्कि देश की स्वतंत्रता प्राप्त करना था। राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों के बावजूद पत्रकारिता की चेतना और प्रखरता कभी कम नहीं हुई। हालाँकि, स्वतंत्रता पूर्व अधिकांश समाचार पत्र अल्पजीवी रहे, लेकिन उनका उद्देश्य एक ही था— "देश की स्वतंत्रता।"

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