व्यक्तिगत सत्याग्रह और सत्याग्रह पर प्रतिबंध (Prohibition on individual satyagraha and satyagraha.)

व्यक्तिगत सत्याग्रह और सत्याग्रह पर प्रतिबंध

व्यक्तिगत सत्याग्रह

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार को कांग्रेस का समर्थन आवश्यक था। इसी संदर्भ में वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने महात्मा गांधी से मुलाकात की और युद्ध में ब्रिटिश सरकार का सहयोग करने को कहा। कांग्रेस ने इसके बदले भारत की स्वतंत्रता की मांग की, जिसे ब्रिटिश सरकार ने ठुकरा दिया। इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने 15 अगस्त 1940 को बंबई अधिवेशन में निर्णय लिया कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया जाएगा, जिसे व्यक्तिगत सत्याग्रह का रूप दिया जाएगा।

महात्मा गांधी ने विनोबा भावे को पहला सत्याग्रही चुना, और उनके बाद जवाहरलाल नेहरू ने सत्याग्रह किया। 8 दिसंबर 1940 को डाडामंडी में कांग्रेस कार्यकर्ताओं का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें गढ़वाल जनपद में व्यक्तिगत सत्याग्रह को सुव्यवस्थित रूप से चलाने का प्रस्ताव पारित किया गया। इस सम्मेलन के आधार पर प्रथम सत्याग्रही जगमोहन सिंह नेगी ने अपने निर्वाचित क्षेत्र से सत्याग्रह प्रारंभ किया और लैंसडौन में ब्रिटिश शासन विरोधी भाषण देकर अपनी गिरफ्तारी दी। यहीं से गढ़वाल में सत्याग्रह की शुरुआत हुई।

चमोली में व्यक्तिगत सत्याग्रह का नेतृत्व अनसूया प्रसाद बहुगुणा कर रहे थे, जिन्हें नंदप्रयाग में गिरफ्तार किया गया। कांग्रेस कमेटी ने गढ़वाल के 308 सत्याग्रहियों की सूची प्रशासन को भेजी, जिनमें से लगभग 108 सत्याग्रहियों को जेल में डाल दिया गया।

जिला कांग्रेस कमेटी की एक गुप्त बैठक देवीखेत (ढाँरी) में आयोजित की गई, जिसमें जिले के विभिन्न तहसीलों से जनप्रतिनिधि एकत्रित हुए। 17 जनवरी 1941 को गीताराम पोखरियाल ने सल्ट महादेव में जनसभा को संबोधित किया और प्रशासन विरोधी भाषण देकर अपनी गिरफ्तारी दी। अन्य सत्याग्रहियों में विद्याधर डंगवाल 'भिखारी', बंशीपाल, नारायण पालीवाल, सकलानंद डोभाल (पौड़ी), कृपाराम मिश्र (देवीखेत), और रूकमेश्वर दत्त मैठाणी (श्रीनगर) शामिल थे।

सत्याग्रह पर प्रतिबंध

गढ़वाल में सत्याग्रह तेजी से आगे बढ़ रहा था, लेकिन डोला-पालकी की समस्या के कारण 25 जनवरी 1941 को महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह पर प्रतिबंध लगा दिया। उस समय गढ़वाल की आंतरिक स्थिति अशांत थी। सवर्ण हिंदुओं द्वारा हरिजनों पर अत्याचार किए जा रहे थे। गढ़वाल में विवाह के अवसरों पर सवर्णों और स्थानीय मुस्लिम बारातों की डोला-पालकी शिल्पकार समुदाय द्वारा उठाई जाती थी। रमेश चंद्र बहुखंडी, जो गांधीजी के करीबी थे, ने 6 जनवरी 1941 को गांधीजी को पत्र लिखकर बताया कि गढ़वाल के सत्याग्रही दलित उद्धार में रुचि नहीं रखते।

इसके अतिरिक्त, 'लीडर' समाचार पत्र के संवाददाता गोविंद प्रसाद नौटियाल ने नंदप्रयाग से एक उत्तेजनात्मक समाचार भेजा, जिसमें उल्लेख किया गया था कि गढ़वाल के शिल्पकार सवर्णों के खिलाफ सत्याग्रह शुरू करने वाले हैं और शीघ्र ही धर्म परिवर्तन करेंगे। गांधीजी ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी और कहा कि जहाँ आज भी शिल्पकारों पर अत्याचार होते हैं, वहाँ सत्याग्रह का अधिकार नहीं है।

व्यक्तिगत सत्याग्रह पर प्रतिबंध से उत्पन्न असंतोष को दूर करने के लिए उत्तरी गढ़वाल के सिलोगी गाँव में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बैठक आयोजित की गई। इस बैठक में एक उपसमिति का गठन किया गया, जिसमें निर्णय लिया गया कि शिल्पकारों को भी डोला-पालकी का अधिकार मिलना चाहिए। इस समिति में रमेश चंद्र बहुखंडी, भक्तदर्शन, श्रीदेव सुमन, दयाशंकर भट्ट, और भगवती चरण निर्मोही सम्मिलित थे।

23 फरवरी 1941 को लैंसडाउन में एक सर्वदलीय सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें सत्याग्रह कमेटी, आर्यसभा, शिल्पकार सभा, हिमालय सेवा संघ (दिल्ली), अधिवक्ता संघ गढ़वाल, और सर्वेन्ट सोसायटी ऑफ इंडिया के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके बाद गढ़वाल कांग्रेस कमेटी का एक प्रतिनिधिमंडल 28 फरवरी को इलाहाबाद में गांधीजी से मिलने गया। इस मंडल में प्रताप सिंह नेगी, भक्तदर्शन, श्रीदेव सुमन, रमेश चंद्र बहुखंडी और कलम सिंह नेगी शामिल थे।

महात्मा गांधी से चर्चा के बाद प्रतिनिधिमंडल ने आश्वासन दिया कि भविष्य में डोला-पालकी की घटनाएँ नहीं होंगी। इसके बाद 28 फरवरी 1941 को गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह से प्रतिबंध हटा लिया। इस समस्या की पुनरावृत्ति रोकने के लिए बलदेव सिंह आर्य और कलम सिंह नेगी के नेतृत्व में एक स्थायी समिति का गठन किया गया।

ब्रिटिश सरकार ने भी हरिजनों के उत्पीड़न के विरुद्ध कड़े दंड का प्रावधान बनाया। दिसंबर 1941 तक गढ़वाल में व्यक्तिगत सत्याग्रह कार्यक्रम शिथिल पड़ गया। इस आंदोलन में ब्रिटिश गढ़वाल के लगभग 308 सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया। इस सत्याग्रह ने न केवल गढ़वाल की जनता, बल्कि प्रवासी भारतीयों को भी प्रभावित किया। भगवान दास मुल्तानी जैसे व्यापारियों ने साबुन की पेटियों में राष्ट्रीय अखबार छिपाकर टिहरी की जनता तक पहुँचाया। इस प्रकार, व्यक्तिगत सत्याग्रह ने गढ़वाल में स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।

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