भारत छोड़ो आन्दोलन और उत्तराखण्ड
महात्मा गांधी के 'करो या मरो' के नारे के साथ ही सम्पूर्ण देश में भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गढ़वाल में इस दौरान कांग्रेस कार्यकर्ताओं की कई आपात बैठकें बुलाई गईं। इनमें सभी कार्यकर्ताओं को अपने-अपने क्षेत्रों में पद यात्राएँ कर जनता को आन्दोलन में सम्मिलित करने का निर्देश दिया गया। उदयपुर, लैन्सडौन, गुजडू, डाडामण्डी, चमोली, सियासैंण, पौड़ी, टिहरी आदि क्षेत्रों में व्यापक रूप से आन्दोलन हुआ। इस आन्दोलन में प्रवासी गढ़वालियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं ने भी आन्दोलन में कार्यकर्ताओं का साथ दिया।

गढ़वाल में भारत छोड़ो आन्दोलन
गांधी जी के पहले के आन्दोलनों की अपेक्षा यह आन्दोलन अधिक संगठित व व्यापक रूप से प्रारम्भ हुआ। केन्द्रीय नेताओं की गिरफ्तारी के कारण किसी भी बड़े नेता द्वारा किसी भी तरह का कोई भी आदेश नहीं दिया गया था। इसलिए सभी प्रान्तीय नेताओं व व्यक्तियों द्वारा अपने तरीके से विरोध प्रकट किया गया। गढ़वाल में संचार साधन विकसित न होने के कारण, केन्द्र में क्या हो रहा है, इसकी सूचना बाद में ही मिलती थी। इस कारण आन्दोलन पूरी तरह संगठित नहीं हो सका, फिर भी स्थानीय नेताओं ने इसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
गढ़वाल के बाहर जो प्रवासी गढ़वाली लखनऊ, बम्बई, दिल्ली व बनारस आदि अन्य क्षेत्रों में थे, वे देश में चल रही गतिविधियों व घटनाओं की सूचना पत्र द्वारा गढ़वाल में भेजते थे। "आजादी की घोषणा और जनता का कर्तव्य" शीर्षक युक्त पत्र, जिसे राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रकाशित व प्रचारित किया गया था, गढ़वाल के कुछ भागों में भी पहुँचा। 13 अगस्त 1942 को कांग्रेस के तत्वाधान में पौड़ी में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें सकलानन्द डोभाल को अध्यक्ष बनाया गया। इस सभा में अधिकतर नवयुवक वर्ग सम्मिलित था। जन जागरण कार्यक्रम के अंतर्गत उदयपुर क्षेत्र में जगमोहन सिंह नेगी, छवाण सिंह, डबल सिंह ने अपने कार्यकर्ताओं के साथ आन्दोलन का प्रचार-प्रसार किया।
ब्रिटिश गढ़वाल से सर्वप्रथम भक्तदर्शन 10 अगस्त 1942 को गिरफ्तार किए गए और उन्हें बिजनौर जेल भेज दिया गया।
आन्दोलन और बलिदान
सरकार द्वारा दमन चक्र चलाए जाने व स्थानीय नेताओं की गिरफ्तारी से आन्दोलन धीमा जरूर हुआ, लेकिन नवयुवकों के उत्साह में कमी नहीं आई। सुन्दर लाल ध्यानी के नेतृत्व में पौड़ी, सितौनस्यूं, सबदरखाल, देवप्रयाग के ग्रामीण क्षेत्रों में आन्दोलन तेज हुआ। जेल में सुन्दर लाल ध्यानी के साथ अमानवीय अत्याचार किए गए, जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। हालत गंभीर होने पर उन्हें पौड़ी अस्पताल लाया गया, जहाँ 29 दिसम्बर 1942 को उन्होंने दम तोड़ दिया। पौड़ी कारावास पहले से ही कैदियों के प्रति अत्याचार के कारण बदनाम था।
भैरवदत्त धूलिया, जो दिल्ली के तिब्बतिया कॉलेज में अध्यापक थे, गढ़वाल में चल रहे आन्दोलन से जुड़े हुए थे। थानसिंह रावत, छवाण सिंह एवं योगेश्वर प्रसाद बहुखण्डी के विरुद्ध पुलिस ने वारंट जारी कर दिया। ये तीनों क्रांतिकारी साहित्य गढ़वाल भेजने लगे। भैरवदत्त धूलिया ने 'अंग्रेजों को भारत से निकाल दो' नामक पुस्तक लिखकर गढ़वाल भेजी।
इस पुस्तिका में गढ़वाल के आन्दोलनकारियों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ प्रमुख निर्देश दिए गए:
संचार साधनों को नष्ट कर दिया जाए।
लगानबन्दी आन्दोलन चलाया जाए।
मालगुजारों से इस्तीफा दिलवाकर उनके धन को सार्वजनिक कार्यों में लगाया जाए।
संपत्ति कुर्क होने की स्थिति में नीलामी रोकने के प्रयास किए जाएं।
पटवारियों को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया जाए, उनकी लाठियाँ और बंदूकें छीनी जाएं।
अंग्रेज सैनिकों को जहाँ संभव हो, निशाना बनाया जाए।
सरकारपरस्त व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।
विद्यार्थियों को पौड़ी, चमोली, लैन्सडौन की अदालतों को नष्ट करने के लिए प्रेरित किया जाए।
जंगलात की मूनारें तोड़ी जाएं।
लैन्सडौन में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
लैन्सडौन क्षेत्र में भी आन्दोलनकारियों ने सक्रिय भूमिका निभाई। 29 सितम्बर 1942 को लैन्सडौन छावनी पर आक्रमण की योजना बनाई गई। इस बैठक में जगमोहन सिंह नेगी ने कहा कि लैन्सडौन छावनी में जाकर गढ़वाली सैनिकों को खुली बगावत में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया जाए। आन्दोलन के दौरान लैन्सडौन क्षेत्र के सात दुकानदारों ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में तिरंगा झंडा लहराया, जिसके कारण उन्हें दण्डित किया गया।
इस आन्दोलन के दौरान कुमाऊँ क्षेत्र में भी व्यापक विरोध हुआ। कुमाऊँ के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके बाद श्यामलाल वर्मा ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। लोगों ने सरकारी संस्थानों में तोड़फोड़ की, पुलिस ने लाठीचार्ज किया और नैनीताल का देश से सम्पर्क कट गया। अल्मोड़ा में प्रदर्शनकारियों ने ब्रिटिश अधिकारी ऍक्टन पर पत्थर फेंके और गांधी आश्रम को क्रांतिकारियों का गढ़ मानते हुए पुलिस ने उसे लूट लिया।
निष्कर्ष
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड में भी व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए। सरकार के दमनचक्र के बावजूद, गढ़वाल और कुमाऊँ के लोगों ने इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानियों का यह बलिदान इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
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