उत्तराखंड में आंग्ल-गोरखा संघर्ष (Anglo-Gorkha Conflict in Uttarakhand)

उत्तराखंड में आंग्ल-गोरखा संघर्ष

प्रस्तावना

उत्तराखंड के इतिहास में आंग्ल-गोरखा संघर्ष एक महत्वपूर्ण अध्याय है। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी और गोरखा शासन दोनों अपनी विस्तारवादी नीतियों के चलते आमने-सामने आ गए। अंग्रेजों ने गोरखों द्वारा किए गए विस्तार को अनुचित बताया, जबकि गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा का दावा था कि संपूर्ण तराई क्षेत्र नेपाल का अंग है। दोनों शक्तियों के मध्य यह संघर्ष अपरिहार्य था, जिसका परिणाम एक निर्णायक युद्ध के रूप में सामने आया।

संघर्ष की पृष्ठभूमि

ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी व्यापारिक और सैन्य शक्ति का उपयोग कर धीरे-धीरे उत्तर भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थी। वहीं, गोरखा योद्धा भी अपनी सीमाओं का विस्तार कर रहे थे। 1787 ईस्वी से ही गोरखों की घुसपैठ अंग्रेजी सीमा में शुरू हो गई थी। भीमसेन थापा ने जब गोरखपुर के आसपास के 200 से अधिक गाँवों पर अधिकार कर लिया, तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे गंभीरता से लिया। 1804 में गोरखों ने पाल्या के राजा को हराकर नेपाल भेज दिया और बुटवल क्षेत्र पर जबरन कब्जा कर लिया, जबकि यह क्षेत्र ब्रिटिश नियंत्रण में था।

युद्ध का कारण

1812 ईस्वी तक अंग्रेज गोरखों की गतिविधियों को सहन करते रहे, लेकिन जब गोरखों ने लगातार लूटपाट और अधिग्रहण जारी रखा, तो अंग्रेजों ने कार्रवाई करने का निश्चय किया। अप्रैल 1814 में लार्ड हेस्टिंग्स ने ब्रिटिश सेना को गोरखों द्वारा अधिगृहित क्षेत्रों को वापस लेने का आदेश दिया। ब्रिटिश अधिकारी मेजर ब्रेडशॉ को गोरखों से वार्ता के लिए भेजा गया, लेकिन गोरखा सेनापतियों की हठधर्मिता के कारण कोई समाधान नहीं निकला। जब अंग्रेजों ने सारन क्षेत्र के 22 गाँवों और बुटवल को अपने राज्य में शामिल करने की चेतावनी दी, तो गोरखा सेनापति भीमसेन थापा ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। फलस्वरूप, अंग्रेजों ने अप्रैल 1814 में बुटवल को अपने नियंत्रण में ले लिया।

युद्ध की शुरुआत

बुटवल पर अंग्रेजों के कब्जे की खबर मिलते ही गोरखा सेनानायक अमर सिंह थापा ने फौजदार मनराज के नेतृत्व में सैनिकों को बुटवल पर पुनः अधिकार करने के लिए भेजा। इस हमले में कई लोगों की हत्या हुई और 18 पुलिस अधिकारियों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। बुटवल पर पुनः गोरखा नियंत्रण स्थापित हो गया। अंग्रेजों ने गोरखों को क्षेत्र खाली करने की अपील की, लेकिन जब उन्होंने मना कर दिया, तो ब्रिटिश गवर्नर लार्ड मायरा ने नवंबर 1814 में नेपाल के खिलाफ युद्ध की आधिकारिक घोषणा कर दी।

युद्ध का संचालन

ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुल 22,000 सैनिकों को चार भागों में विभाजित कर चार प्रमुख सैन्य अधिकारियों के नेतृत्व में तैनात किया:

  • मेजर जनरल मार्ले – 1,000 सैनिकों के साथ काठमांडू पर हमला करने के लिए।

  • मेजर जनरल जे.एस. वुड – 4,000 सैनिकों के साथ गोरखपुर क्षेत्र में तैनात।

  • मेजर जनरल जिलेस्पी – 3,500 सैनिकों के साथ देहरादून में तैनात।

  • मेजर जनरल ऑक्टरलोनी – 6,500 सैनिकों के साथ गोरखा साम्राज्य के पश्चिमी भाग में तैनात।

गढ़वाल राज्य की भूमिका

गढ़वाल राज्य के निष्कासित युवराज सुदर्शन शाह अपने राज्य की पुनः प्राप्ति के लिए कंपनी सरकार से सहायता मांग रहे थे। दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजिडेंट को सुदर्शन शाह से बातचीत के लिए अधिकृत किया गया, और रेजिडेंट के सहायक फ्रेजर को हरिद्वार भेजा गया। अंततः एक समझौता हुआ, जिसके तहत सुदर्शन शाह को ब्रिटिश सेना की सहायता प्राप्त हुई।

निष्कर्ष

आंग्ल-गोरखा संघर्ष उत्तराखंड और नेपाल के इतिहास का एक निर्णायक युद्ध था, जिसने इस क्षेत्र की राजनीतिक स्थिति को हमेशा के लिए बदल दिया। अंग्रेजों ने इस युद्ध के बाद उत्तराखंड और नेपाल के कई हिस्सों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। यह संघर्ष केवल एक सैन्य टकराव ही नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य की विस्तारवादी नीति और गोरखा सैन्य शक्ति के बीच की टक्कर थी, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास पर गहरा प्रभाव डाला।

टिप्पणियाँ