गढ़राज्य द्वारा मुगल अधीनता स्वीकार करने की पृष्ठभूमि और स्वरूप (The background and form of the acceptance of Mughal subjugation by the Garh state.)
गढ़राज्य द्वारा मुगल अधीनता स्वीकार करने की पृष्ठभूमि और स्वरूप
गढ़राज्य द्वारा मुगल अधीनता स्वीकार करने के पीछे कई ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारण थे। इन कारकों के गहरे विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार परिस्थितियों ने गढ़राज्य को मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।

गढ़राज्य की मुगलों के प्रति अधीनता की पृष्ठभूमि
गढ़राज्य की दुर्गम भौगोलिक स्थिति के कारण यह लंबे समय तक दिल्ली सल्तनत और मुगलों की अधीनता से मुक्त रहा। लेकिन अकबर के शासनकाल में कश्मीर विजय के बाद पहाड़ी राज्यों का यह भ्रम टूट गया कि वे मुगलों का प्रतिरोध कर सकते हैं। निरंतर होते मुगल आक्रमणों से यह स्पष्ट हो गया था कि अब मुगल सेना पर्वतीय दुर्गमता को पार करने में सक्षम हो चुकी थी।
प्रमुख कारण:
दून घाटी पर मुगलों का अधिकार: मुगलों द्वारा दून घाटी और आसपास के क्षेत्रों पर कब्जा करने और अपने मनसबदारों की नियुक्ति करने से गढ़राज्य के लिए बाहरी व्यापार और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो गई।
आर्थिक निर्भरता: चावल, सूती वस्त्र, नमक आदि की आपूर्ति मैदानों से ही होती थी, जो अब रुक गई। तिब्बत व्यापार भी वर्षभर चालू नहीं रहता था, जिससे राज्य की स्थिति कमजोर हो गई।
अन्य पर्वतीय राज्यों का मुगलों से सहयोग: सिरमौर, कुमाऊँ और अन्य पहाड़ी जमींदारों द्वारा मुगलों का सहयोग करना गढ़राज्य की स्थिति को और भी संकटमय बना रहा था।
मुगलों की सैन्य रणनीति और कूटनीति: मुगलों को पहाड़ी क्षेत्रों में अब ऐसे योद्धा मिलने लगे थे जो इन भूभागों से परिचित थे, जिससे उन्हें यहाँ युद्ध लड़ने में आसानी हुई।
गढ़राज्य की अधीनता का स्वरूप
शाहजहाँ के शासनकाल के अंतिम वर्षों में गढ़राज्य ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली थी। लेकिन तभी मुगल उत्तराधिकार का संघर्ष प्रारंभ हो गया, जिससे शाहजहाँ को इस दिशा में अधिक कदम उठाने का अवसर नहीं मिल सका। गढ़वाल-मुगल संबंधों की स्थिति निम्न बिंदुओं से स्पष्ट होती है:
गढ़राज्य की स्वतंत्रता का आंशिक संरक्षण: मुगलों ने गढ़नरेश को अपने दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया और उसे प्रतिनिधि के माध्यम से अधीनता प्रकट करने की अनुमति दी।
कोई विशेष सम्मान नहीं मिला: मुगल शासकों ने गढ़नरेश के प्रतिनिधि को कोई मनसब या उच्च उपाधि प्रदान नहीं की।
आंतरिक मामलों में स्वतंत्रता: गढ़राज्य ने मुगलों को सालाना कर देना प्रारंभ कर दिया, लेकिन बदले में मुगलों ने गढ़राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया।
औरंगजेब का शासन और गढ़राज्य
औरंगजेब के शासन के छठे वर्ष के फरमान में पृथ्वीपतशाह के मुगल दरबार में दिवंगत होने की सूचना मिलती है। आठवें वर्ष के फरमान में पृथ्वीपतशाह के निधन के बाद फतेहशाह को श्रीनगर का राजा घोषित किया गया।
1659 ई. में जब दाराशिकोह पराजित हुआ, तो उसका पुत्र सुलेमान शिकोह गढ़वाल में शरण लेने आया। आलमगीरनामा के अनुसार, औरंगजेब ने गढ़नरेश पर दबाव बनाकर सुलेमान शिकोह को सौंपने का प्रयास किया। प्रारंभ में गढ़नरेश ने सुलेमान का समर्थन किया, लेकिन बाद में उसे मुगलों के सुपुर्द कर दिया गया। इस कार्य के बदले में गढ़राज्य के नरेश मेदिनीशाह को दो हजार जात और एक हजार सवार का मनसब प्रदान किया गया।
गढ़राज्य की सीमित अधीनता
गढ़राज्य की मुगल अधीनता अन्य पर्वतीय राज्यों की तुलना में सीमित रही। इसके निम्नलिखित प्रमाण मिलते हैं:
श्रीनगर पर मुगलों का नियंत्रण नहीं था: कोई भी मुगल सम्राट श्रीनगर तक नहीं पहुँच पाया।
गढ़नरेश का जहाँगीर के दरबार में न आना: जहाँगीर के हरिद्वार आगमन पर गढ़नरेश की अनुपस्थिति भी इसकी पुष्टि करती है।
गढ़वाल में सीमित मुगल प्रभाव: 19वीं सदी के सर्वेक्षण में केवल चाँदपुर पट्टी के बैरगाँव में ही मुस्लिम बस्ती पाई गई।
निष्कर्ष
सल्तनत काल में कुछ सुल्तानों ने पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में वे असफल रहे। अकबर के शासनकाल में मुगलों ने इस दिशा में ठोस प्रयास किए और कश्मीर विजय के बाद पहाड़ी राज्यों पर आक्रमण बढ़ा दिए। हालांकि, शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में गढ़राज्य को सीमित अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
गढ़राज्य अपनी स्वतंत्रता को पूर्णतः बचाने में तो असफल रहा, लेकिन उसने अपनी सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्वायत्तता को बनाए रखा। मुगलों की शक्ति को देखते हुए यह अधीनता एक कूटनीतिक निर्णय था, जिसमें गढ़राज्य ने अपनी स्थिति को संतुलित करने का प्रयास किया।
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