बाड़वाला एवं देवदुंग की ईष्टका-चितियां (Brick Altars) The brick altars of Badhwala and Devdung.

बाड़वाला एवं देवदुंग की ईष्टका-चितियां (Brick Altars)

परिचय बाड़वाला एवं देवदुंग के ईष्टका-चितियों (Brick Altars) से ज्ञात होता है कि वैदिक यज्ञ परंपरा इस क्षेत्र में तृतीय सदी तक प्रचलन में रही। यह काल कुणिन्द सत्ता के वैभव का समय था, जिसमें इस क्षेत्र में काष्ठ निर्मित मंदिरों की विशिष्ट शैली विकसित हुई, जिसे वास्तुशास्त्रियों ने 'यमुना प्रासाद शैली' नाम दिया है।


इतिहास और पुरातत्व

वैदिक यज्ञ परंपरा और कुणिन्द सत्ता

प्रसिद्ध भूगोलविद् टालमी ने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में व्यास, गंगा और यमुना के ऊपरी क्षेत्र में कुणिन्द जाति के वास का उल्लेख किया है। कालसी से प्राप्त अशोक के शिलालेख के अनुसार, आरंभ में यह जाति मौर्यों की अधीनस्थ शक्ति थी। अमोघभूति, इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था, जिसकी मुद्राएँ व्यास नदी से लेकर अलकनंदा नदी तक प्राप्त होती हैं।

मौर्य और कुषाणकाल

मौर्यकाल में यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य की उत्तरी सीमा था। मौर्यों के पतन के बाद कुषाणों ने इस क्षेत्र पर अधिकार स्थापित किया, लेकिन मध्य हिमालय में कुणिन्दों की स्वतंत्र सत्ता बनी रही।

गुप्तकाल और उसके बाद

गुप्तकाल में इस क्षेत्र की राजनैतिक स्थिति अस्पष्ट रही। लाखामंडल शिलालेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ यादव वंश की सत्ता थी। इसके अलावा, नागवंश के चार प्रमुख राजाओं—स्कन्दनाग, विभुनाग, अंशुनाग और गणपतिनाग—के नाम गोपेश्वर (चमोली) के त्रिशूल लेख में मिलते हैं।


धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बाड़वाला और देवदुंग के ईष्टका-चितियों से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक यज्ञ परंपरा इस क्षेत्र में प्रमुख थी। कालसी, लाखामंडल और सेवा-पानी से प्राप्त स्तूप अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह क्षेत्र वैदिक और बौद्ध दोनों संस्कृतियों का केंद्र रहा है।


निष्कर्ष बाड़वाला एवं देवदुंग की ईष्टका-चितियां न केवल उत्तराखंड के प्राचीन धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाती हैं, बल्कि यह क्षेत्र वैदिक, कुणिन्द, मौर्य, कुषाण और गुप्त काल की ऐतिहासिक धरोहर को भी संजोए हुए है। इन पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन करना भारतीय इतिहास को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

टिप्पणियाँ