ऐतिहासिक काल में उत्तराखंड (Historical period in Uttarakhand)

ऐतिहासिक काल में उत्तराखंड

उत्तराखंड राज्य क्षेत्र प्राचीन काल से ही एक दुर्गम और विशेष भौगोलिक संरचना वाला क्षेत्र रहा है। इसका अधिकांश हिस्सा घने जंगलों और निर्जन स्थानों से भरा था। हालांकि, कुछ पुरातात्विक प्रमाण, सिक्कों, अभिलेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास को संजोने का प्रयास किया गया है। कई नगर प्राचीन काल में सामरिक एवं व्यापारिक महत्व स्थापित कर चुके थे। इस संदर्भ में हमें साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं। इस लेख में, उत्तराखंड के विभिन्न ऐतिहासिक नगरों के ध्वंसावशेषों का वर्णन प्रस्तुत किया गया है।

श्रीनगर के ध्वंसावशेष

अलकनंदा नदी के तट पर स्थित श्रीनगर प्राचीन यात्रा मार्ग में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस नगर के केंद्र में श्रीयंत्र स्थित था, और इसके चारों ओर चार शिवलिंगों की स्थापना प्राचीन काल की प्रतीत होती है। पंवारकालीन लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह, वैरागणा के पाँच मंदिर, भक्तियाणा गोरखनाथ गुफा, अलकनंदा तट पर केशवराम मंदिर आदि महत्वपूर्ण धरोहर हैं। श्रीनगर ने कई बार विनाशकारी बाढ़ का सामना किया, जिसके कारण यहां के प्राचीन अवशेष काफी हद तक नष्ट हो चुके हैं। 1796 ई. में कैप्टन हार्डविक ने यहां जीर्ण-शीर्ण अजयपाल के राजप्रासाद को देखा था। इसके अतिरिक्त, श्रीकोट गंगनाली में पंवारकाल से पहले का शिव मंदिर और रणीहाट गाँव का राजराजेश्वरी मंदिर उत्कृष्ट वास्तुकला के उदाहरण हैं।

गोविषाण के ध्वंसावशेष

वर्तमान काशीपुर (कुमाऊँ) के आसपास गोविषाण नगर के ध्वंसावशेष मिले हैं। चीनी यात्री फाह्यान ने इसका उल्लेख किया है, जबकि युवानच्वांग ने इसे 'किउ-पि-स्वड्ः-न' नाम से वर्णित किया है। एएसआई के उत्खनन में यहाँ 2600 ईसा पूर्व का दुर्ग मिला, जो इसकी प्राचीनता प्रमाणित करता है। यहाँ कुषाणकालीन भवनों के अवशेष, नंदी सहित शिवलिंग, ईंटों से बने वृत्ताकार मंदिर, और विशाल द्वार भी मिले हैं। विशप हीबर की 1824 ई. की यात्रा के समय यह स्थान हिंदू तीर्थ रूप में प्रसिद्ध था।

कालसी के ध्वंसावशेष

जनपद देहरादून में स्थित कालसी का प्राचीन नाम 'कालकूट' था। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में यहाँ कुणिंद सत्ता का अधिकार था। इस नगर से प्राप्त सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री मौर्य सम्राट अशोक द्वारा स्थापित शिलालेख है, जो पाली भाषा में लिखा गया है। इसे 1860 ई. में खोजा गया था। यहाँ एक खंडित शिलालेख भी मिला है, जिसे स्थानीय लोग 'चित्रशिला' कहते हैं।

अन्य नगरों से प्राप्त ध्वंसावशेष

  • हरिद्वार: यहाँ से ताम्र संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। मायापुर (हरिद्वार) के प्राचीन नगर के अवशेष, खंडित ईंटों के टीले, नारायणशिला, और विभिन्न मुद्राएँ मिली हैं। यहाँ से एक बुद्ध प्रतिमा भी प्राप्त हुई है, जिसे कर्निघम ने प्रथम आदि बुद्ध माना।

  • देवप्रयाग: यहाँ ब्राह्मी लिपि में 40 से अधिक यात्री लेख मिले हैं, जो पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के हैं। यहाँ रघुनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार दौलतराव सिंधिया द्वारा किया गया था।

  • गोपेश्वर: इसे 'गोस्थल' और 'गोथला' के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ गणपतिनाग द्वारा स्थापित छठी शताब्दी का त्रिशुल अभिलेख और 12वीं शताब्दी का अशोकचल्ल का लेख प्राप्त हुआ है।

  • उत्तरकाशी (बाड़ाहाट): यहाँ से पूर्ववर्ती पंवारकाल और पंवारकालीन पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई हैं। लक्षेश्वर मंदिर परिसर से अलंकृत ईंटें और डोलीनी टीले से सिंदूरी रंग की ईंटें प्राप्त हुई हैं।

  • बैजनाथ (कत्यूर): यहाँ प्रारंभिक कत्यूर वंश के शासकों ने अपनी राजधानी बनाई थी। यहाँ लक्ष्मीनारायण मंदिर में शक संवत् 1214 ई. का लेख मिला है।

  • द्वाराहाट: इसे कत्यूरियों की पाली पछाऊँ शाखा की राजधानी माना जाता है। यहाँ अनेक मंदिर और ताम्रपत्र मिले हैं।

निष्कर्ष

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास इसकी पुरातात्विक धरोहरों में निहित है। राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मिले ध्वंसावशेष इस क्षेत्र के गौरवशाली अतीत के साक्षी हैं। ये अवशेष यह प्रमाणित करते हैं कि उत्तराखंड में कई महत्वपूर्ण नगर और धार्मिक स्थल रहे हैं, जिन्होंने समय के साथ कई उतार-चढ़ाव देखे। ऐतिहासिक शोध और संरक्षण के प्रयासों से इन पुरातात्विक स्थलों को संरक्षित और विस्तृत करने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों को अपने इतिहास की झलक मिल सके।

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