उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का इतिहास
प्राकृतिक सौंदर्य और विशिष्ट भूगोल के कारण उत्तराखण्ड की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान रही है। यहाँ की बोली-भाषा, रहन-सहन और परंपराएँ देश के अन्य भागों से भिन्न हैं। ब्रिटिश शासनकाल में इस क्षेत्र की संपदा का अनियंत्रित दोहन आरंभ हुआ, जो दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा। विकास की अनदेखी और संसाधनों के बाहरी शोषण ने स्थानीय जनता को पृथक राज्य की मांग उठाने के लिए प्रेरित किया।

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की पृष्ठभूमि
इस हिमालयी क्षेत्र के लिए कोई पृथक नीति व नियोजन न होने के कारण यहाँ की अपार संपदा का भारी दोहन किया गया। खनन माफियाओं ने सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से डायनामाइट का प्रयोग कर पहाड़ों को खोखला कर दिया, लेकिन स्थानीय जनता के लिए कोई उद्योग नहीं लगाया गया। शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी के कारण पहाड़ों से तेजी से पलायन होने लगा।
सरकार द्वारा किए गए अवैज्ञानिक सड़क निर्माण कार्यों के कारण भूस्खलन जैसी समस्याएं बढ़ती गईं। बड़े बाँधों की योजनाओं ने स्थानीय जनता को विस्थापन की ओर धकेल दिया। इस उपेक्षा से त्रस्त उत्तराखंड की जनता ने पृथक राज्य की मांग को एक आंदोलन का रूप दे दिया।
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के प्रमुख चरण
उत्तराखंड के पृथक राज्य की मांग ब्रिटिश काल से ही उठनी शुरू हो गई थी। 1897 में पहली बार महारानी विक्टोरिया को भेजे गए एक संदेश में पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग प्रशासनिक इकाई की मांग की गई। 1923 में कुमाऊं के नेताओं ने इसे औपचारिक रूप दिया और 1928 में ब्रिटिश सरकार को ज्ञापन सौंपा गया।
1938 में श्रीनगर (गढ़वाल) में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने पर्वतीय क्षेत्रों के लिए पृथक प्रशासनिक इकाई की जरूरत को स्वीकार किया। 1952 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के महासचिव पी.सी. जोशी ने केंद्र सरकार को पृथक उत्तराखंड राज्य का ज्ञापन दिया, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के समय भी उत्तराखंड की अनदेखी की गई।
1967 में रामनगर में एक विशाल जनसभा के दौरान पर्वतीय राज्य परिषद् का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य पृथक राज्य की मांग को जन-आंदोलन में बदलना था। 1979 में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) का गठन हुआ, जिसने पृथक राज्य आंदोलन को और अधिक संगठित किया। 1988 में भाजपा ने अपने विजयवाड़ा अधिवेशन में 'उत्तरांचल' नाम को अपनाया और पृथक राज्य की मांग को समर्थन दिया।
1994: उत्तराखंड आंदोलन का निर्णायक मोड़
1994 में समाजवादी पार्टी सरकार ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण नीति लागू की, जिससे उत्तराखंड के युवाओं में भारी आक्रोश फैल गया। इसी वर्ष 2 अक्टूबर को मसूरी में और 3-4 अक्टूबर को मुजफ्फरनगर में पुलिस द्वारा निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलीबारी की गई, जिसमें कई निर्दोष लोग शहीद हो गए। यह घटनाएं उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुईं।
इस घटना के बाद आंदोलन और तीव्र हो गया और दिल्ली से लेकर देहरादून तक धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए। 1996 में उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तरांचल राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित किया और इसे केंद्र सरकार को भेजा गया। 1998 में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उत्तराखंड राज्य निर्माण विधेयक संसद में पेश किया।
9 नवम्बर 2000: उत्तराखंड राज्य का गठन
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के संघर्षों और बलिदानों के बाद 9 नवम्बर 2000 को भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश से अलग कर 'उत्तरांचल' राज्य का निर्माण किया, जिसे 2007 में पुनः 'उत्तराखंड' नाम दिया गया। यह राज्य अपने अनूठे सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक पहचान के साथ भारत के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
निष्कर्ष
उत्तराखंड राज्य आंदोलन जनता के संघर्ष, बलिदान और संकल्प का परिणाम था। यह आंदोलन केवल एक भूगोलिक पहचान के लिए नहीं था, बल्कि एक स्थायी विकास मॉडल और स्थानीय अधिकारों की मांग के लिए भी था। राज्य बनने के बाद भी उत्तराखंड कई चुनौतियों से जूझ रहा है, लेकिन यह संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि जब जनता एकजुट होती है, तो परिवर्तन अवश्य संभव होता है।
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