गोरखों का सैन्य प्रशासन एवं सामाजिक व्यवस्था (Military administration and social system of the Gorakhas)

गोरखों का सैन्य प्रशासन एवं सामाजिक व्यवस्था

गोरखों की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था सेना पर आधारित थी। इसी सेना के बल पर ही नरभूपाल, पृथ्वी नारायण एवं रणबहादुर शाह ने एक छोटे से गोरखे शहर से वृहद गोरखा साम्राज्य की स्थापना की, जिसमें सम्पूर्ण नेपाल के अतिरिक्त कुमाऊँ, गढ़वाल एवं कांगड़ा घाटी तक का प्रदेश सम्मिलित था। गोरखा सेना का मुकाबला चीन एवं तिब्बती सेना से भी हुआ। उनकी सीमाएँ महाराजा रणजीत सिंह से मिलती थीं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ उन्होंने गोरखपुर क्षेत्र के लगभग 200 गावों को विजित करने में सफलता प्राप्त की। इससे स्पष्ट होता है कि गोरखा सेना और उनके सेनापति शौर्य एवं बल में अत्यधिक सक्षम थे।

गोरखा सेना का संगठन एवं युद्ध कौशल

गोरखा सेना के गठन एवं प्रशिक्षण की कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है, किंतु उनके नस्लीय मिश्रण और भौगोलिक परिस्थितियों ने उन्हें स्वाभाविक रूप से योद्धा बना दिया था। क्रिस्टोफर चैट ने गोरखों की इस विशेषता का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे अत्यंत परिश्रमी, अनुशासित और युद्ध-कौशल में निपुण थे। सेना में अधिकारियों को 'ठाकुरिया' कहा जाता था, और उनका वेतन गाँव की मालगुजारी से दिया जाता था। गोरखा सेना ने मलाऊ, जैठक एवं अल्मोड़ा में अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया, जिसकी अंग्रेजों ने भी प्रशंसा की।

1815-16 में देहरादून स्थित खलंगा स्मृति स्तंभ अंग्रेजों द्वारा स्थापित किया गया था, जो खलंगा की लड़ाई में गोरखा वीरों के साहस को सम्मान देता है, भले ही वे युद्ध हार गए थे।

गोरखा सामाजिक व्यवस्था

गोरखा समाज एक मिश्रित समाज था और हिन्दू जाति व्यवस्था से भिन्न था। हिन्दुओं के साथ उनका खान-पान भी अलग था। राजा, हालांकि, राजपूत वर्ग से होता था और क्षत्रिय श्रेणी में गिना जाता था। गोरखों में राई, मगर, गुरूंग, लिंबु, सुनवार, पुन, सर्की, थापा एवं खनका जैसी विभिन्न जातियाँ सम्मिलित थीं। तिब्बत के लामाओं का भी गोरखा समाज में सम्मिलन हुआ।

शारीरिक बनावट की दृष्टि से गोरखों की कद-काठी छोटी, चेहरा गोल, आँखे छोटी एवं धँसी हुई होती थीं। उनकी गाल की हड्डियाँ उभरी हुई, कपाल चौड़ा एवं दाढ़ी-मूँछ रहित होता था। वे स्वभाव से जिद्दी एवं जुझारू होते थे।

गोरखों में देवता, शस्त्र, ब्राह्मणों एवं गाय की पूजा की जाती थी। हालाँकि, नेपाल से बाहर उनका व्यवहार राजपूतों एवं ब्राह्मणों के प्रति अनुकूल नहीं था। उन्होंने उत्तराखंड में राजपूतों, ब्राह्मणों और अन्य जातियों से जबरदस्ती श्रम करवाया।

खान-पान एवं धार्मिक विश्वास

गोरखाली समाज में माँस एवं मदिरा का विशेष प्रचलन था। सुअर, बकरी, भैंस, भेड़ और पक्षियों का मांस उनके भोजन में शामिल था। दशाई (दशहरा) पर्व के दौरान बकरों एवं मुर्गों की बलि दी जाती थी। गोरखों की खान-पान व्यवस्था हिन्दू समाज से भिन्न थी, जिसके कारण हिन्दुओं से उनके सामाजिक संबंध स्थापित नहीं हो सके।

गोरखों ने हिन्दू धार्मिक परंपराओं को भी अपनाया था। उन्होंने उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों का संरक्षण किया और तीर्थ स्थलों के जीर्णोद्धार में योगदान दिया। केदारनाथ, बद्रीनाथ एवं जागेश्वर जैसे तीर्थस्थलों पर तीर्थयात्रियों के लिए सदावर्त (निशुल्क भोजन व्यवस्था) की स्थापना की।

गोरखा प्रशासनिक प्रणाली

गोरखा सेना को विभिन्न प्रांतों में तैनात किया जाता था, और स्थानीय प्रशासन के लिए सैनिकों का वेतन वहीं की मालगुजारी से प्राप्त किया जाता था। फौजी अफसरों को समय-समय पर बदला जाता था। 1809 ईस्वी में बमशाह ने कुछ प्रशासनिक सुधार लागू किए, जो गोरखा शासन के अंत तक चलते रहे। प्रमुख अधिकारी प्रतिवर्ष स्थानांतरित होते थे।

ब्रिटिश प्रभाव और सैन्य संगठन

ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ, गोरखा सेना ने ब्रिटिश सैन्य व्यवस्था को अपनाना शुरू कर दिया। उनकी सनदों में कर्नल, मेजर, कैप्टन, सूबेदार, सरदार, काजी, हवलदार एवं सिपाही पदों का उल्लेख मिलता है। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य पोशाक और अनुशासन प्रणाली को भी अपनाया।

निष्कर्ष

गोरखों का सैन्य प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था उनकी युद्ध-कुशलता, अनुशासन और कठोर जीवनशैली पर आधारित थी। वे एक मिश्रित समाज थे, जो हिन्दू और बौद्ध परंपराओं का पालन करते थे लेकिन भारतीय हिन्दू समाज से अलग रहते थे। उनका प्रभाव नेपाल, कुमाऊँ, गढ़वाल और कांगड़ा तक फैला था। उनके शासनकाल में कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों का संरक्षण हुआ, लेकिन साथ ही उनका प्रशासनिक ढाँचा कठोर और सैन्य-केंद्रित था।

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