नरेन्द्रशाह: टिहरी रियासत के प्रभावशाली शासक (Narendra Shah: The influential ruler of the Tehri state.)
नरेन्द्रशाह: टिहरी रियासत के प्रभावशाली शासक
परिचय महाराज नरेन्द्रशाह का जन्म 3 अगस्त 1898 ईस्वी को प्रतापनगर में हुआ था। जब उनके पिता का निधन हुआ, तब वे अल्पव्यस्क थे। अगस्त 1913 में वे टिहरी रियासत की गद्दी पर बैठे, लेकिन प्रशासन के संचालन के लिए उनकी माता डोगरा महारानी नेपालिया की अध्यक्षता में चार सदस्यीय संरक्षक मंडल का गठन किया गया। बाद में अंग्रेजों ने इस मंडल की अध्यक्षता के लिए एक नागरिक अधिकारी को नियुक्त किया। अक्टूबर 1919 में नरेन्द्रशाह को वास्तविक सत्ता सौंपी गई। इसके बाद परिषद को भंग कर दिया गया और नरेन्द्रशाह ने लगभग 27 वर्षों तक शासन किया। उनके शासनकाल में कई महत्वपूर्ण सुधार और विकास कार्य किए गए।

वन और शिक्षा क्षेत्र में योगदान महाराज नरेन्द्रशाह ने अपने शासनकाल में वन विभाग की उन्नति के लिए विशेष प्रयास किए। उन्होंने राज्य के युवकों को फॉरेस्ट्र ट्रेनिंग कॉलेज, देहरादून में प्रशिक्षण दिलवाया और कुछ छात्रों को जर्मनी व फ्रांस में प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर भी दिया।
शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने कई विद्यालयों की स्थापना की। प्रताप हाई स्कूल, टिहरी को अपग्रेड करके प्रताप इंटरमीडिएट कॉलेज बनाया। इसके अलावा, उन्होंने लैंसडाउन और कर्णप्रयाग के स्कूलों को आर्थिक सहायता प्रदान की। 1933 में उन्होंने अपने पिता की स्मृति में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) को एक लाख रुपये की एकमुश्त रकम और छह हजार रुपये की वार्षिक सहायता राशि प्रदान की, जिससे 'महाराजा कीर्तिशाह चैम्बर ऑफ केमिस्ट्री' की स्थापना हुई। यह विश्वविद्यालय आज भी इस छात्रवृत्ति को जारी रखे हुए है।
स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना का विकास महाराज नरेन्द्रशाह ने टिहरी, देवप्रयाग, उत्तरकाशी और राजगढ़ी के औषधालयों को नवीनतम चिकित्सा उपकरणों से युक्त किया। उन्होंने नरेन्द्रनगर में एक अस्पताल और ड़ियार एवं पुरोला में दवाखानों की व्यवस्था की।
सड़क निर्माण के क्षेत्र में भी उन्होंने विशेष योगदान दिया। उन्होंने नरेन्द्रनगर से मुनि की रेती, देवप्रयाग, कीर्तिनगर और टिहरी तक सड़कों का निर्माण करवाया। वर्ष 1921 में उन्होंने नरेन्द्रनगर की स्थापना की, जिसे 1925 में टिहरी रियासत की नई राजधानी घोषित किया गया।
आधुनिकता और मान्यताएं नरेन्द्रशाह ने अपने राज्य को आधुनिकता की ओर अग्रसर करने के लिए स्वयं पश्चिमी देशों का भ्रमण किया। उन्होंने वहां की व्यवस्थाओं का गहन अध्ययन किया और अपनी रियासत में कई सुधार लागू किए। उनके प्रयासों को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने उन्हें अठारहवीं गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट का मानद लेफ्टिनेंट और 'केसीएमआई' की उपाधियों से सम्मानित किया। वर्ष 1937 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें एलएलडी की उपाधि प्रदान की।
राजनीतिक विवाद और चुनौतियाँ हालांकि नरेन्द्रशाह के शासनकाल में कई उपलब्धियाँ थीं, लेकिन उनके काल की दो घटनाएँ उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं।
रवांई कांड (1930): टिहरी रियासत में जबरन कर वसूली और दमन के खिलाफ किसानों ने यमुना तट पर तिलाड़ी मैदान में विरोध प्रदर्शन किया। इस दौरान प्रशासन ने निहत्थे किसानों पर गोली चला दी, जिसे 'रवांई कांड' के नाम से जाना जाता है। इस घटना के समय नरेन्द्रशाह यूरोप में थे।
श्रीदेव सुमन की शहादत (1944): टिहरी राज्य के स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन को टिहरी कारागार में कैद कर दिया गया। उन्होंने 84 दिनों तक भूख हड़ताल की और अंततः उनका निधन हो गया। इस दौरान नरेन्द्रशाह मुंबई में थे, लेकिन उन्होंने जाने से पहले अधिकारियों को सुमन जी को मुक्त करने का आदेश दिया था। श्रीदेव सुमन स्वयं महाराज का सम्मान करते थे और उनके खिलाफ विद्रोह को अनुचित मानते थे।
टिहरी रियासत का भारत में विलय स्वतंत्रता के बाद, वर्ष 1948 में नरेन्द्रशाह ने स्वयं गद्दी छोड़ दी और उनके पुत्र मानवेन्द्रशाह को राजा बनाया गया। 1950 में एक सड़क दुर्घटना में नरेन्द्रशाह का निधन हो गया। इस दौरान टिहरी रियासत का भारत में विलय कर दिया गया।
निष्कर्ष महाराज नरेन्द्रशाह एक दूरदर्शी शासक थे, जिन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य किए। हालांकि, उनके शासनकाल में कुछ विवादास्पद घटनाएँ भी हुईं, लेकिन वे एक प्रगतिशील और जनकल्याणकारी शासक के रूप में याद किए जाते हैं।
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