टिहरी रियासत में राजनैतिक असंतोष (Political discontent in the Tehri state.)

टिहरी रियासत में राजनैतिक असंतोष

टिहरी रियासत ब्रिटिश शासन के अधीन एक स्वतंत्र राज्य के रूप में विकसित हुई, लेकिन राजा की स्थिति पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं थी। स्थानीय जनता और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच तनाव बना रहता था, जिसका मुख्य कारण राजा की सीमित स्वतंत्रता और अंग्रेजों का हस्तक्षेप था। इस असंतोष का परिणाम निरंतर जन आंदोलनों और विद्रोहों के रूप में सामने आया।

ढंढक: जन असंतोष के स्वरूप

टिहरी राज्य में विद्रोहों को स्थानीय भाषा में 'ढंढक' कहा जाता था। ढंढकों की शुरुआत सकलाना और रवांई क्षेत्र में हुई। ये विद्रोह अक्सर राजा की नीतियों, माफीदारों (जागीरदारों), और अंग्रेजों के हस्तक्षेप के विरोध में होते थे।

सकलाना क्षेत्र का विद्रोह (1815 और 1835)

गोरखा युद्ध के पश्चात अंग्रेजों ने सकलाना क्षेत्र के शिवराम और काशीराम माफीदारों को पुनः स्थापित किया। इससे माफीदारों का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने जनता का शोषण शुरू कर दिया। 1835 में सकलाना क्षेत्र की प्रजा ने इसका विरोध किया, जिसे राजा के हस्तक्षेप के बाद नियंत्रित किया गया।

1815 में माफीदारों ने अदूर पट्टी की जनता से 'तिहाड़' कर वसूलने का प्रयास किया, जिसका नेतृत्व सुनार गाँव के बद्रीसिंह असवाल ने किया। जनता के विद्रोह के कारण राजा को हस्तक्षेप करना पड़ा और उनकी मांगें मानी गईं।

रवांई क्षेत्र का विद्रोह (1824-1835)

1824 में रवांई क्षेत्र राजा सुदर्शनशाह को मिला। उन्होंने यहाँ प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन स्थानीय जागीरदार गोविन्द सिंह बिष्ट और शिवदत्त ने इसका विरोध किया। इन लोगों ने खाल्टाओं और सकलानियों को राजा के विरुद्ध भड़काने का प्रयास किया, जिससे क्षेत्र में अस्थिरता उत्पन्न हो गई। 4 जुलाई 1835 को ब्रिटिश कंपनी ने निर्णय लिया कि राजा को अपने राज्य में सर्वोपरि माना जाएगा और जागीरदारों को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया।

भवानीशाह और प्रतापशाह के शासनकाल में विद्रोह

राजा भवानीशाह (1861) और प्रतापशाह (1876-1886) के शासनकाल में भी विद्रोह हुए। राज्य के पदाधिकारियों के भ्रष्टाचार और मनमानी के कारण जनता में असंतोष बढ़ता गया।

  • 1882: लछमू कठैत के नेतृत्व में 'बासर ढंढक' विद्रोह हुआ।

  • 1886: टिहरी के आसपास ग्रामीणों ने विप्लव किया।

इन विद्रोहों में जनता के साथ-साथ कुछ राज्य अधिकारी भी शामिल थे। राज्य प्रशासनिक कमजोरी के कारण कई आंदोलन हुए।

महाराज कीर्तिशाह और सकलाना विद्रोह

कीर्तिशाह के शासन में भी सकलाना क्षेत्र में विद्रोह हुआ। इस क्षेत्र के माफीदारों द्वारा जनता का शोषण बढ़ता जा रहा था, जिससे 'बरा-बेगार' प्रथा के खिलाफ विद्रोह हुआ। स्थानीय व्यक्ति रूपसिंह ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसके बाद राजा और कुमाऊँ कमिश्नर के हस्तक्षेप से माफीदारों के अधिकार सीमित कर दिए गए।

1903-04 में कंजरवेटर केश्वानन्द रतूड़ी द्वारा 'दैण' और 'पुच्छी' कर लगाए गए, जिससे व्यापक विरोध हुआ। राजा को हस्तक्षेप कर यह कर हटाना पड़ा।

नरेन्द्रशाह का शासनकाल और विद्रोह

राजा नरेन्द्रशाह ने राज्य को आधुनिक बनाने का प्रयास किया, लेकिन राज्य पदाधिकारियों की मनमानी और ब्रिटिश भारत में बढ़ती जनजागरूकता ने टिहरी रियासत में जन आंदोलनों को तेज कर दिया। इस दौरान कई महत्वपूर्ण विद्रोह हुए, जो टिहरी राज्य में जन असंतोष की स्पष्ट अभिव्यक्ति थे।

1930 का किसान आंदोलन

1930 के दशक में टिहरी रियासत में किसान आंदोलन भी उभर कर आया। राज्य में किसानों से अधिक कर वसूली और बेगार प्रथा के खिलाफ कई क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन हुए। इस आंदोलन का नेतृत्व स्थानीय नेताओं ने किया और टिहरी नरेश को अंततः कुछ करों में छूट देनी पड़ी।

निष्कर्ष

टिहरी रियासत में निरंतर जन असंतोष और विद्रोह यह दर्शाते हैं कि जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग थी। अंग्रेजों का हस्तक्षेप, स्थानीय पदाधिकारियों की मनमानी और जागीरदारों के अत्याचार इन विद्रोहों के प्रमुख कारण थे। राजा को बार-बार हस्तक्षेप कर शांति स्थापित करनी पड़ी, लेकिन प्रशासनिक कमजोरी के कारण यह विद्रोह लगातार होते रहे।

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