उत्तराखंड के शासक सहजपाल और बलभद्रशाह: एक ऐतिहासिक परिदृश्य (The rulers of Uttarakhand, Sahajpal and Balbhadrashah: a historical perspective.)
उत्तराखंड के शासक सहजपाल और बलभद्रशाह: एक ऐतिहासिक परिदृश्य
उत्तराखंड का इतिहास वीरता, स्वतंत्रता और संस्कृति का प्रतीक रहा है। इसके शासकों ने अपनी दूरदर्शिता और शक्ति से राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखा और इसके सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास में योगदान दिया। इसी ऐतिहासिक क्रम में सम्वत् 1065 (1548 ईस्वी) के दौरान गढ़राज्य पर राजा सहजपाल पंवार का शासन था।

राजा सहजपाल (1548-1575 ईस्वी)
राजा अजयपाल के पश्चात गढ़वाल की राजगद्दी पर कल्याणशाह, सुन्दरपाल, हसदेवपाल और विजयपाल का शासन रहा, परंतु इनके शासनकाल की विस्तृत जानकारी अनुपलब्ध है। इनके पश्चात गढ़वाल के 42वें शासक के रूप में सहजपाल पंवार गद्दी पर बैठे।
देवप्रयाग में स्थित मंदिर के द्वार पर उत्कीर्ण विक्रमी सम्वत् 1065 (1548 ई.) के एक शिलालेख के आधार पर हरिकृष्ण रतुड़ी निष्कर्ष निकालते हैं कि सहजपाल का शासनकाल 1548 ई. से 1575 ई. तक था।
कवि भरत ने अपनी रचनाओं में सहजपाल की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उनके शासनकाल में गढ़राज्य अपने चरम विकास पर था। यह माना जाता है कि सहजपाल मुगल सम्राट अकबर के समकालीन थे, जब अकबर का साम्राज्य पूरे उत्तर भारत में फैल चुका था, लेकिन तब भी गढ़राज्य स्वतंत्र बना रहा। आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार, गढ़वाल का मुगल सल्तनत से कूटनीतिक संबंध था, लेकिन यह पूर्णतः स्वतंत्र राज्य था।
राजा बलभद्रशाह (1575-1591 ईस्वी)
राजा सहजपाल के बाद गढ़वाल की गद्दी बलभद्रशाह को प्राप्त हुई। 'शाह' उपाधि का प्रारंभिक उल्लेख कल्याणशाह के नाम के साथ मिलता है, लेकिन यह माना जाता है कि इस उपाधि को स्थापित करने का श्रेय राजा बलभद्रशाह को जाता है।
'शाह' उपाधि की उत्पत्ति:
भक्तदर्शन की धारणा: कहा जाता है कि भारतीय इतिहास के एक अभागे शहजादे ने औरंगजेब से परास्त होने के बाद गढ़वाल में शरण ली थी, जिसे गढ़वाल नरेश ने औरंगजेब को सौंप दिया था। इस सेवा से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने गढ़वाल नरेश को "शाह" की उपाधि दी। हालांकि, यह तर्क संदिग्ध है, क्योंकि औरंगजेब और बलभद्रशाह के शासनकाल में लगभग 100 वर्षों का अंतर है।
पातीराम का मत: एक अन्य मान्यता के अनुसार, गढ़वाल के तल्ला नागपुर क्षेत्र के ग्राम सतेरा के बर्थ्याल जाति के व्यक्ति ने दिल्ली में मुगल हरम की एक अत्यंत रोगग्रस्त महिला का सफल उपचार किया था। इस सफलता के लिए मुगल सम्राट ने उसे पारितोषिक स्वरूप में गढ़वाल नरेश के लिए 'शाह' की उपाधि प्रदान की थी। हालांकि, यह भी एक किवदंती के रूप में ही प्रचलित है।
दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी द्वारा प्रदत्त उपाधि: कुछ इतिहासकारों के अनुसार, दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने बलभद्रपाल को 'शाह' की उपाधि दी थी। ऐसा माना जाता है कि बलभद्रशाह ने गढ़राज्य की शक्ति को पुनः स्थापित किया, जिसके कारण उन्होंने यह उपाधि धारण की।
बलभद्रशाह और कुमाऊं पर आक्रमण
वॉल्टन महोदय के अनुसार, बलभद्रशाह ने 1518 ई. में कुमाऊं के शासक के साथ ग्वालदम में युद्ध किया था। डॉ. उबराल इस युद्ध की तिथि 1590-91 ई. के मध्य मानते हैं। यद्यपि युद्ध की तिथि स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि 1575-1591 ई. के मध्य गढ़वाल नरेश ने कुमाऊं पर आक्रमण किया था। इस आधार पर बलभद्रशाह के शासनकाल की संभावित अवधि 1575-91 ई. मानी जाती है।
निष्कर्ष
गढ़वाल के शासक सहजपाल और बलभद्रशाह ने अपने समय में राज्य की सुरक्षा और स्वतंत्रता को बनाए रखा। सहजपाल के शासनकाल में गढ़वाल समृद्धि के शिखर पर था, जबकि बलभद्रशाह ने राज्य की शक्ति को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके शासनकाल से यह स्पष्ट होता है कि गढ़राज्य अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में सफल रहा, भले ही मुगल साम्राज्य अपने चरम पर था।
उत्तराखंड का इतिहास इसी प्रकार वीरता, स्वतंत्रता और गौरव की कहानियों से भरा हुआ है, जो इसे अन्य भारतीय राज्यों से अलग और विशेष बनाता है।
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