उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंड Ardh of Uttarakhand- Historical period Uttarakhand

उत्तराखंड का आध्र- ऐतिहासिक काल उत्तराखंडuttarakhand ka aadhr- aitihasik kal uttarakhand


Ardh of Uttarakhand- Historical period Uttarakhand
uttarakhand ka aadhr- aitihasik kal uttarakhand

चतुर्थ सहस्त्राब्दी ई०पू० से लेकर ऐतिहासिक काल के आरम्भ के मध्य को समान्यतः आद्य ऐतिहासिक काल कहा गया है। वस्तुतः इस काल में ही वास्तविक सभ्यता का श्रीगणेश हुआ। यह प्राग् ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक काल के मध्य एक संक्रमण काल है। जिसके कुछ भाग की कोई लिखित सामाग्री नहीं प्राप्त हुई जबकि इसके अंतिम चरण के अतिअल्प लिखित प्रमाण मिले है। उत्तराखण्ड राज्य से आद्य ऐतिहासिक काल के दो प्रकार के स्त्रोत प्राप्त होते हैं
Ardh of Uttarakhand- Historical period Uttarakhand

(1) पुरातात्विक स्त्रोत
(2) लिखित स्त्रोत
(1) पुरातात्विक स्त्रोत

उत्तराखण्ड राज्य में हुए उत्खनन एवं सर्वेक्षण के पश्चात् आद्य् ऐतिहास काल के सम्बन्धित सामाग्री प्रकाश में आई। अध्ययन की सुविधा दृष्टि से हम इन स्त्रोतों का वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते है-

(1) कप-मार्क्सः-

विशाल शिलाखण्ड़ो एवं चट्टानों पर बने ओखली के आकार के उथले गोल-गोल गड्ढे पुरातत्वीय भाषा में कप-मार्क्स कहलाते है। सर्वप्रथम 1856 ई० में हेनवुड महोदय ने चम्पावत जिले के देवीधुरा नामक स्थान पर अवस्थित इस प्रकार की ओखलियों का विवरण प्रकाशित किया। इसके पश्चात् 1877 ई0 में रिवेट-कारनक ने द्वारहाट के शैलचित्रों का वर्णन किया एवं यूरोप से प्राप्त शैलचित्रों के समान बताया। कारनक को यहाँ के चन्द्रेश्वर मन्दिर में बाहर समानान्तर पक्तियों में लगभग 200 कप-मार्क्स मिले। इसके पश्चात् यशोधर मठपाल महोदय को द्वारहाट में कुछ दूरी पर पश्चिमी रामगंगा घाटी के नौला ग्राम से इन्हीं के समान बहत्तर कप-मार्क्स प्राप्त हुए। कटौच महोदय ने कालान्तर में गोपेश्वर के निकट मण्डल, पश्चिमी नयार घाटी में ग्वाड आदि में इसी प्रकार की ओखलियों की खोज की।

(2) ताम्र उपकरण 

ऊपरी गंगा घाटी में फतेहगढ़, बिदूर, बसौली, सरथौली, शिवराजपुर आदि स्थलों से ताम्र संचय प्राप्त हुए है। हरिद्वार के निकट बहादराबाद से ताम्रनिर्मित भालाग्र, रिंग्स, चूडियाँ इत्यादि नहर की खुदाई के दौरान मिले। इन उपकरणों के साथ ही लोहित मृदभाण्ड (Red Ware) भी मिले है। एच०डी० सांकलिया ने इन मृदमाण्डों के साम्यता गोदावरी घाटी से प्राप्त मृदमाण्डों से की है। यज्ञदत्त शर्मा के अनुसार बहादराबाद से प्राप्त लोहित मृदभाण्ड मोटे है तथा पर्याप्त पकाये हुए नहीं है। वर्ष 1986 में अल्मोड़ा जनपद से एक एवं वर्ष 1989 ई0 में बनकोट (पिथौरागढ़) से आठ उपकरण प्राप्त हुए है। आल्विक महोदय ने इस उपकरण को यज्ञीयकुण्ड" जबकि महेश्वर प्रसाद जोशी ने 'परशु-पुरुष' (Personified Axe) बताया है परन्तु डी०पी० शर्मा महोदय इन्हें ताम्र संस्कृति के नये "स्कन्धित कुठार' (Hand Axe) मानते हैं।

इन स्कन्धित कुठार के प्रयोग के विषय में इतिहासकार मौन है क्योंकि न तो यह खनन के लिए उपयुक्त लगता है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से सुविधाजनक प्रतीत होता है। आरम्भ में पुराविदों का मानना था कि इस क्षेत्र में ताम्र-आपूर्ति बाहर से होती थी किन्तु अब यह स्पष्ट हो गया है कि इस काल के लोग ताम्र के लिए गढ़वाल-कुमाऊ की धनपुर, डांडा, तम्बखानी, अस्कोट इत्यादि की ताम्र-खानों पर ही निर्भर थे। गढ़देश में उत्तमकोटि के ताम्र मिलने का वर्णन मिलता है। "आगरी" जाति के खनक यहाँ चिरकाल से खनन कार्य करते आ रहे है। अतः कहा जा सकता है। कि उत्तराखण्ड का प्राचीन ताम्र संस्कृति के निर्माण में निश्चित ही योगदान रहा।

(3) महापाषाणीय शवाधान

चमोली जिले के मलारी ग्राम से महापाषाणीय संस्कृति के शवाधान एवं अवशेष मिले है। इन शवधानों की आकृति मण्डलाकार गर्तों जैसी है जिनमें शव के चारो ओर अनगढ़ शिलाएँ खड़ी करके रखी गई है एवं इन्हें ऊपर से बड़े-बड़े पटालों से ढ़का गया है। इन शवाधानों में मानव अवशेषों के साथ अश्व, मेंढ़, तश्तरिया विभिन्न आकार की टोंटी एवं हत्थेयुक्त कुतुप इत्यादि भी रखे गए है। सम्भवतः ये इस बात का संकेत है कि इस काल का मनुष्य मृत्यु के बाद भी जीवन की कल्पना करता है।

यहाँ से प्राप्त एक सुन्दर कुतुप पर चमकदार पॉलिश है एवं उसके हत्थे पर मोनाल पक्षी का आर्कषक चित्र अंकित है। इन श्वाधानों की मुख्य विशेषता है कि शवों को सीधा नहीं अपितु औंधा लिटाकर रखा गया है। धृषमैन महोदय के अनुसार लगभग 2000 ई पू० ऐसी शवधान पद्धति ईरान, अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया में प्रचलित थी। इस क्षेत्र के एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय (हे०न० ग विश्वविद्यालय) ने 1983 से 2001 ई0 के मध्य मलारी का वृहद सर्वेक्षण किया हैं। अपने सर्वेक्षण में उन्हें आखेट के लिए प्रयुक्त लौह उपकरणों के साथ एक पशु का पूर्ण ककाल मिला है जिसकी पहचान हिमालयी पशु जुबू के रूप में की गई है। इसके साथ ही कुत्ते, बकरी एवं भेडों के अस्थि अवशेष भी मिले हैं। यही से एक मानव कंकाल के ऊपर स्वर्ण मुखौटा एवं दश मृतिका पात्रों के साथ काँसे का कटोरा (Bowl) सर्वेक्षण की मुख्य उपलब्धि है। इन सर्वेक्षणों में लोहित एवं कृष्ण ओपदार पात्र, लौह बाणाग्र तथा छूरियां (Knife) इत्यादि भी प्रकाश में आए है। सम्भवतः मलारी के शवाधानों का निर्माण एक पहाड़ी को काटकर गुफा रूप में किया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें खस जाति की समाधियाँ माना है जबकि एच०डी० सांकलिया महोदय ने इन्हें आर्यों से सम्बद्ध किया है। 

यशोधर मठपाल महोदय को अल्मोड़ा जिले की पश्चिमी रामगंगा घाटी के नौला जैनल गाँव से भी शवधान मिले। उनके अनुसार ये निश्चित ही महापााषाणिक लोग थे जो 2500-3000 सहस्त्र पूर्व इस घाटी में निवास करते थे। गढ़वाल विश्वविद्यालय को पश्चिमी रामगंगा घाटी के सानणा एवं बखेडी ग्रामों से दो प्रकार के शवाधान प्राप्त हुए, प्रथम प्रस्तर पेटिका शवाधान (Schist burial) एवं द्वितीय घट-शवाधान (Urn-Burial)। सानणा से प्राप्त नौ शिस्ट वरिअल को चोकोर प्रस्तर पट्टिकाओं से ढका गया है। शव रखने के किसी निश्चित विधान का पालन नहीं है एवं शिस्ट कक्ष को चारो ओर से सुरक्षा भित्ती से घेरा गया है। बसेड़ी में शिस्ट एवं अर्न वरिअल दोनों मिले हैं। इन अर्नबरिअल में हस्तनिर्मित घट के साथ मानव अस्थियों के साथ लौह उपकरण प्राप्त हुए है। इन घटों पर पटाई जैसी छाप बनी है। इन दोनों स्थलो से प्राप्त शिस्ट-कक्षों की योजना आयताकार है जिन्हें लम्बवत खडी तीन से छः शिलाओं से निर्मित किया गया है।

सानणा-बसेड़ी से प्राप्त मिट्टी के पात्र चित्रित धूसर मृदभाण्डों (PWG) से मिलते-जुलते हैं। इन शवाधानों से क्रमशः तश्तरियां, कटोर घट, चषक, पिन, कील एवं छत्र इत्यादि उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। संम्भवत् ये शवाधान दूसरी सहस्राब्दी ई०पू० के आस-पास के हैं। इसके अतिरिक्त अलमोड़ा के निकट दीनापानी से प्राप्त एकाश्म शिला का सम्बन्ध भी विद्वानों ने महापाषाणीय संस्कृति से बताया है।

(4) चित्रित धूसर मृदभाण्ड 
(PGW) ऊपरी गंगा घाटी में ताम्र संस्कृति के पश्चात् चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति का उन्नयन हुआ। उत्तराखण्ड के परिवर्ती आद्य ऐतिहासिक काल के लोग पी०जी०डब्लू० का प्रयोग करते थे। इसके साक्ष्य कमशः अलकनन्दा घाटी में थापली, यमुना घाटी में पुरोला एवं पश्चिमी रामगंगा घाटी से प्राप्त हुए है। अतः स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में भी लोह के प्रयोग का श्रेय चित्रित धूसर मृदमाण्ड संस्कृति के लोगो को जाता है। श्रीनगर गढवाल के निकट थापली नामक स्थान से मिली तश्तरियों, कटोरों, जार इत्यादि मिले है जिन पर काले रंग से क्षैतिज एवं अनुलम्ब रेखाएँ सूर्य प्रतीक बिन्दु, तरंगे, पत्ते एवं वानस्पतिक आकृतियों आदि का चित्राकंन है। भूसी चिन्हित (husk marked) ढीकरों की प्राप्ति यहाँ धान की खेती के प्रमाण प्रस्तुत करता है। यद्यपि यहाँ से कोई लौह का उपकरण नहीं मिला है। यहाँ से पी०डब्लू०जी० के साथ टेरीकॉटा, चित्रित पक्षी, सुअर, अश्व जैसे पशुओं के दन्त अवशेष, ताम्र के कड़े, श्लाकाएं तथा नखनर्तकी भी प्राप्त हुए है। जबकि पुरोला से लोहित एवं कृष्णलेपित भाण्ड, साधारण धूसर एवं लोहित भाण्ड, टेरीकॉटा सिंह, वृषभ, चक, चकती, घट आकार का मनका आदि मुख्य है। यद्यपि यहाँ धातु उपकरणों का नितान्त अभाव मिलता है।

इतिहासविद् बी०बी० लाल महोदय ने इस चित्रित धूसर संस्कृति का साम्य महाभारत काल से स्थापित किया है। उपरोक्त स्थलो से प्राप्त पुरातत्वीय साक्ष्य एवं महाभारत के साहित्यिक प्रमाण दोनों से भी हिमवन्त का महाभारतकालीन संस्कृति से सम्बन्ध जुड़ता है। इस आधार पर उत्तराखण्ड की चित्रित धूसर संस्कृति का काल 1000 ई०पू० के आस-पास बैठता है।

पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्य उत्तराखण्ड राज्य में आद्य ऐतिहासिक काल में नगर होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। गोविषाण (काशीपुर), गंगाद्वार (हरिद्वार), कनखल, श्रुध्न तथा कालकूट इत्यादि के अतिरिक्त सुबाज की राजधानी श्रीनगर नगरीय स्थिति में थे। गोविषाणसे 2600 ई०पू० की इष्टकाएं प्राप्त हो चुकी है जिससे सिद्ध होता है कि इस स्थान का एक व्यापारिक नगर के रूप में अस्तित्व बन चुका था। अतः हम कह सकते है कि आद्य् ऐतिहासिक काल में मध्य हिमालय में नगरीयकरण प्रारम्भ हो चुका था।

लिखित स्त्रोत

ई० पूर्व चतुर्थ सहस्त्राब्दी से मध्य हिमालय के आद्य्-इतिहास को जानने के पर्याप्त लिखित स्त्रोत भी उपलब्ध है जो वेद, पुराण, ब्राहम्ण ग्रन्थों में कतिपय पुरातन संदर्भों के रूप में सुरक्षित है।

ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि सप्त सैन्धव प्रदेश, सरस्वती की उपत्यका में आर्यों का निवास था। वैवस्तु मनु के वंशज दीर्घकाल तक मेंरू पर्वत के आसपास सरस्वती के तटों पर निवास करते रहे हैं। उत्तराखण्ड नाम का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जिसमें इसे देवभूमि कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार प्रलय के बाद प्राणा ग्राम में सप्तऋषियों ने अपने प्राणों की रक्षा की और यहीं से पुनः सृष्टि आरम्भ हुई। यहीं स्थिति अलकापुरी नामक स्थान को आदि पुरूष मनु का निवास स्थल माना जाता है। ब्रह्मा के मानस पुत्रो दक्ष, मरीचि, पुलसत्य, पुलह, ऋतु और अत्रि का निवास भी गढवाल क्षेत्र में ही था। इतिहासकार भजनसिंह 'सिंह' और शिवानन्द नौटियाल का मत है कि बद्रीनाथ के समीप स्थित नारद, गणेश, व्यास, स्कंद और मुचकुंद गुफाओं में ही वैदिक ग्रन्थों की रचना की गई थी। ऐतरेय ब्राहाण में इसे उत्तर कुरूओं का निवास स्थल कहा गया है। स्कन्दपुराण में 5 हिमालयी खण्डों का उल्लेख है। इसमें केदारखण्ड (गढ़वाल) तथा मानसखण्ड (कुमाऊँ) के मध्य विभाजक नन्दा पर्वत को उल्लेखित किया गया है। पुराणों में ही केदारखण्ड व मानसखण्ड के सयुंक्त क्षेत्र को ब्रह्मपुर, खसदेश अथवा उत्तराखण्ड के नाम से पुकारा गया है।

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