उत्तराखण्ड की कला और मूर्तिकला का इतिहास

उत्तराखण्ड की कला और मूर्तिकला का इतिहास

उत्तराखण्ड राज्य में प्राचीन काल से कला के विविध रूप देखने को मिलते हैं, जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते हैं। यहां की कला, विशेष रूप से वास्तुकला और मूर्तिकला, धार्मिक विश्वासों, परंपराओं, और सामाजिक संरचनाओं को प्रकट करती है। इस ब्लॉग में हम उत्तराखण्ड की वास्तुकला, मूर्तिकला, और उनके ऐतिहासिक महत्व पर चर्चा करेंगे।

1. गरुणाकार वेदिका

उत्तराखण्ड की प्राचीन वास्तुकला का एक प्रमुख उदाहरण जगतग्राम में स्थित गरुणाकार वेदिका है। इसे हजारों ईंटों से इस तरह स्थापित किया गया था कि उड़ते हुए गरुण की आकृति स्पष्ट हो सके। यह वेदिका एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल रही होगी। यह तथ्य इस बात को स्पष्ट करता है कि प्राचीन काल में इस क्षेत्र के शिल्पकारों को वास्तुकला और ज्यामिति के उच्चतम ज्ञान था। इस वेदिका का निर्माण तीसरी शताब्दी के अंत में हुआ था, और यह आज भी एक प्रमुख स्थापत्य कृति मानी जाती है।

2. उत्तराखण्ड की मूर्तिकला

उत्तराखण्ड में अधिकांश मूर्तियाँ मंदिरों के आसपास के शिल्प कार्यों में पाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ स्थापत्य के भाग के रूप में होती थीं और मुख्य रूप से मन्दिरों, द्वारों, स्तम्भों, और शिला पट्टिकाओं पर उकेरी जाती थीं। मूर्तियों के विभिन्न प्रकार होते हैं, जिनका श्रेणीबद्ध रूप में विश्लेषण किया जा सकता है:

धार्मिक मूर्तियाँ

  1. शैव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ: जागेश्वर के लकुलीश मन्दिर में शिव की त्रिरूप मूर्तियाँ पाई जाती हैं। यह मूर्तियाँ शैव धर्म के महत्वपूर्ण प्रतीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
  2. वैष्णव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ: इन मूर्तियों में भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों का चित्रण किया गया है।
  3. ब्रह्मा की मूर्तियाँ: ब्रह्मा के विभिन्न रूपों की मूर्तियाँ भी इस क्षेत्र में प्राप्त होती हैं।
  4. सूर्य व नवग्रहों की मूर्तियाँ: इन मूर्तियों में सूर्य देवता और नवग्रहों का चित्रण किया गया है।
  5. देवियों की मूर्तियाँ: उत्तराखण्ड में विभिन्न देवियों की मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं, जो विशेष धार्मिक महत्व रखती हैं।

3. शैव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ

उत्तराखण्ड में शैव धर्म से संबंधित मूर्तियाँ प्रमुख रूप से शिव के विभिन्न रूपों को चित्रित करती हैं। इन मूर्तियों में से कुछ प्रमुख मूर्तियाँ इस प्रकार हैं:

  • नृत्य मुद्रा में शिव: जागेश्वर और गोपेश्वर मन्दिरों में नृत्य मुद्रा में शिव की मूर्तियाँ पाई जाती हैं। इन मूर्तियों में शिव के दिव्य नृत्य का चित्रण होता है, जो उनके रचनात्मक और संहारक रूपों को दर्शाता है।

  • वज़ासन मुद्रा: केदारनाथ मन्दिर की द्वारपट्टिका पर शिव का वज़ासन मुद्रा में चित्रण किया गया है। यह मूर्ति शिव के ध्यानमग्न रूप को दर्शाती है।

  • बैजनाथ की मूर्ति: बैजनाथ मन्दिर की मूर्ति में शिव के चार हाथ हैं, जिनमें से एक हाथ त्रिशूल पकड़े हुए है और अन्य हाथों में विभिन्न आभूषण और प्रतीक हैं। इस मूर्ति की विशिष्टता इसकी आभूषणों और अन्य देवताओं के चित्रण में है।

  • शिव की संहारक मूर्ति (लाखामण्डल): लाखामण्डल में शिव की संहारक रूप में एक मूर्ति पाई गई है। यह मूर्ति आठ भुजाओं से युक्त है, जो शिव के त्रिपुरान्तक रूप को दर्शाती है। यह मूर्ति आठवीं शताब्दी की मानी जाती है।

  • कालीमठ की शिव-पार्वती प्रतिमा: कालीमठ मन्दिर में शिव और पार्वती की संयुक्त मूर्ति है, जिसमें शिव ललितासन में पार्वती की ओर उन्मुख हैं। यह मूर्ति आठवीं शताब्दी के आसपास की मानी जाती है।

4. गणेश और गणपति की मूर्तियाँ

गणेश पूजा का प्रचलन उत्तराखण्ड में सातवीं शताब्दी के आसपास हुआ था। यहाँ विभिन्न स्थानों पर गणेश की मूर्तियाँ मिलती हैं, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियाँ इस प्रकार हैं:

  • नृत्य करते गणपति: जोशीमठ में गणेश की नृत्यधारी एक मूर्ति पाई गई है, जो उत्तराखण्ड की विशिष्ट कृति मानी जाती है। इसमें गणेश आठ भुजाओं से युक्त हैं, और उनका वाहन मूषिक है।

  • काशीपुर मन्दिर की गणेश प्रतिमा: काशीपुर में स्थित गणेश की मूर्ति एक छोटे मन्दिर में स्थापित है, जो टूटी-फूटी अवस्था में है, लेकिन इसके धार्मिक महत्व में कोई कमी नहीं है।

5. लकुलीश की प्रतिमाएँ

उत्तराखण्ड में लकुलीश की मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं। जागेश्वर मन्दिर में लकुलीश की दो मूर्तियाँ मिली हैं, जो ग्यारहवीं शताब्दी की मानी जाती हैं। यह मूर्तियाँ उस समय के धार्मिक प्रभाव को दर्शाती हैं और इस क्षेत्र में इस सम्प्रदाय के प्रसार को स्पष्ट करती हैं।

उत्तराखण्ड के प्राचीन मन्दिरों की वास्तुकला

उत्तराखण्ड में स्थित मन्दिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि उनकी वास्तुकला भी अत्यधिक दिलचस्प है। शास्त्रों के अनुसार, उत्तराखण्ड में तीन प्रमुख शैलियों में मन्दिरों का निर्माण किया गया है, जिनमें नागरा शैली सबसे प्रमुख है। इसके अतिरिक्त, चपटी छत वाले मन्दिर और कत्यूरी शिखर वाले मन्दिर भी यहाँ मिलते हैं।

उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली प्रमुख मन्दिर शैलियाँ

  1. चपटी छत वाले मन्दिर
    चपटी छत वाले मन्दिरों की ऊँचाई अधिक नहीं होती थी। इन मन्दिरों में शिखर के स्थान पर चपटी छत होती थी, जिसका निर्माण शिलाखण्डों से किया जाता था। इन मन्दिरों में आमतौर पर मध्य कलश या छत्र भी स्थापित किया जाता था। यह मन्दिर उत्तराखण्ड के प्रारम्भिक मन्दिरों के रूप में माने जाते हैं।

  2. नागरा शैली के मन्दिर
    नागरा शैली के मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएँ दो हैं— अनुविक्षेष (प्लान) और उद्विक्षेप (एलिवेशन)। इस शैली में मन्दिर का आधार वर्गाकार होता है, और ऊपर की ओर दीवारें संकीर्ण होती जाती हैं, जो एक बिन्दु पर मिलती हैं। इस शैली का सबसे प्रमुख भाग शिखर होता है, जो गर्भगृह से चपटी छत से प्रारम्भ होता है।

  3. कत्यूरी शिखर वाले मन्दिर
    यह नागरा शैली का ही एक विकसित रूप था, जिसमें शिखर के निर्माण में थोड़ी भिन्नता पाई जाती है। इस शैली में दीवारें कम झुकी होती हैं और ऊपर चपटी छत स्थापित की जाती है।

उत्तराखण्ड के कुछ प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर

  1. तपोवन मन्दिर (जोशीमठ)
    यह छोटा मन्दिर गुप्तकाल की वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण है। इसकी छत चपटी है, और इसे सपाट शिलाखण्डों से बनाया गया है। इसे गुप्तकाल के प्रारम्भिक युग के रूप में मान्यता प्राप्त है।

  2. आदिवदरी मन्दिर (कर्णप्रयाग)
    कर्णप्रयाग से 14 मील पहले आदिवदरी में स्थित इस मन्दिर समूह में 14 मन्दिर हैं। इनमें से कुछ मन्दिर कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, और इनका निर्माण नागर शैली में हुआ है।

  3. जागेश्वर मन्दिर (अल्मोड़ा)
    जागेश्वर मन्दिर समूह में लगभग 150 मन्दिर स्थित हैं। इनमें जागेश्वर, मृत्युंजय, दण्डेश्वर, नवदुर्गा, लकुलीश और नटराज मन्दिर प्रमुख हैं। इन मन्दिरों का निर्माण कत्यूरी वंश के समय हुआ था।

  4. योगवदरी मन्दिर (पाण्डुकेश्वर)
    यह मन्दिर कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और इसका निर्माण 9वीं शताब्दी के आरम्भ में हुआ था। इसमें बंगाल की पाल कला का प्रभाव देखा जा सकता है।

परवर्ती काल के मन्दिर (950-1200 ई. तक)
इस काल में मन्दिरों की वास्तुकला में कई बदलाव हुए। मृत्युंजय और केदारेश्वर मन्दिर जैसे मन्दिरों में पतला शिखर और शिला फलकों से सजी छत पाई जाती है।

निष्कर्ष

उत्तराखण्ड की कला और मूर्तिकला न केवल धार्मिक आस्थाओं का प्रतीक हैं, बल्कि यह प्राचीन समाज की संस्कृतियों, विश्वासों और जीवनशैली को भी उजागर करती है। इन मूर्तियों और स्थापत्य कृतियों के माध्यम से हम प्राचीन भारतीय समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं। उत्तराखण्ड की ये कृतियाँ आज भी हमारे लिए ऐतिहासिक धरोहर के रूप में महत्वपूर्ण हैं।

Frequently Asked Questions (FAQs) तैयार किए गए हैं जो उत्तराखंड की कला, मूर्तिकला और सांस्कृतिक धरोहर से संबंधित हैं:

1. उत्तराखंड की प्राचीन कला में क्या विशेषताएँ हैं?

उत्तराखंड की प्राचीन कला में वास्तुकला और मूर्तिकला की अद्वितीय शैलियाँ देखने को मिलती हैं। यहाँ के पुराने मंदिरों और मूर्तियों में शैव, वैष्णव, और देवी-देवता संबंधी अनेक मूर्तियाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा, वास्तुकला में विशेष रूप से गरुणाकार वेदिका और त्रिभुजाकार ईंटों की संरचनाएँ प्रमुख हैं।

2. गरुणाकार वेदिका का महत्व क्या है?

गरुणाकार वेदिका का निर्माण एक विशेष आकार में किया जाता था, जिसमें उड़ते हुए गरुण की आकृति स्पष्ट होती थी। यह विशेष प्रकार की वेदिका अत्यधिक धार्मिक महत्व रखती है और इसे वेदों में अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है। इसे बनाने के लिए सैकड़ों ईंटों का उपयोग किया जाता था।

3. उत्तराखंड में शैव धर्म से संबंधित मूर्तियाँ कहाँ पाई जाती हैं?

उत्तराखंड में शैव धर्म से संबंधित मूर्तियाँ प्रमुख रूप से जागेश्वर, गोपेश्वर और केदारनाथ जैसे स्थानों पर पाई जाती हैं। इनमें से जागेश्वर के लकुलीश मंदिर में शिव की त्रिरूप मूर्तियाँ और नृत्य मुद्रा में शिव की मूर्तियाँ विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

4. उत्तराखंड में धार्मिक मूर्तियों की प्रमुख शैलियाँ क्या हैं?

उत्तराखंड में धार्मिक मूर्तियों की प्रमुख शैलियाँ शैव, वैष्णव, देवी-देवताओं और नवग्रहों से संबंधित हैं। इन मूर्तियों में प्रमुख रूप से शिव की नृत्य मुद्रा, त्रिशूल और विभिन्न मुद्राओं में भगवान की आकृतियाँ पाई जाती हैं।

5. क्या उत्तराखंड में गणेश पूजा का कोई ऐतिहासिक महत्व है?

जी हाँ, उत्तराखंड में गणेश पूजा का ऐतिहासिक महत्व है। यहाँ की कई मूर्तियाँ जैसे जोशीमठ में नृत्य करते गणेश की मूर्ति, गणेश के विभिन्न रूपों को प्रदर्शित करती हैं। गणेश पूजा की शुरुआत भारत में 5वीं शताब्दी के आसपास हुई, लेकिन उत्तराखंड में गणेश की मूर्तियाँ 7वीं शताब्दी से पहले नहीं पाई जातीं।

6. उत्तराखंड के किस मंदिर में शिव और पार्वती की संयुक्त मूर्तियाँ पाई जाती हैं?

उत्तराखंड के कालीमठ मंदिर में शिव और पार्वती की एक संयुक्त मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें शिव और पार्वती के साथ-साथ कार्तिकेय, नंदी, गणेश और अन्य देवताओं की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण हैं।

7. उत्तराखंड में लकुलीश की मूर्तियाँ कहाँ पाई जाती हैं?

उत्तराखंड में लकुलीश की मूर्तियाँ प्रमुख रूप से जोगेश्वर मंदिर में पाई जाती हैं। इन मूर्तियों से यह संकेत मिलता है कि तत्कालीन समाज में लकुलीश सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण प्रभाव था।

8. उत्तराखंड में विभिन्न धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ किस प्रकार की होती हैं?

उत्तराखंड में विभिन्न धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ शैव, वैष्णव, ब्रह्मा, सूर्य, नवग्रह, और देवियों की मूर्तियों के रूप में मिलती हैं। इन मूर्तियों में प्रमुख रूप से विभिन्न रूपों में भगवान शिव, भगवान विष्णु, और देवी देवताओं की मूर्तियाँ शामिल हैं।

9. उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों में किस प्रकार की वास्तुकला देखने को मिलती है?

उत्तराखंड के प्राचीन मंदिरों में वास्तुकला की शैली विविधतापूर्ण होती है। यहाँ के मंदिरों में त्रिभुजाकार, आयताकार और समचतुर्भुजाकार ईंटों से निर्मित संरचनाएँ और गरुणाकार वेदिकाएँ प्रमुख हैं। इसके अलावा, मंदिरों की छतों, द्वार स्तम्भों और शिला पट्टिकाओं पर विभिन्न धार्मिक मूर्तियाँ और शिल्पकला के उदाहरण भी पाए जाते हैं।

10. उत्तराखंड की मूर्तिकला में किन विशेषताओं को देखा जा सकता है?

उत्तराखंड की मूर्तिकला में शास्त्रीय शैली के अनुसार पूजा-अर्चना के लिए बनाए गए विभिन्न प्रकार के धार्मिक चित्रण होते हैं। मूर्तियाँ मुख्य रूप से ईश्वर के विभिन्न रूपों, जैसे शिव, विष्णु, देवी-देवताओं, और अन्य धार्मिक प्रतीकों को दर्शाती हैं। इसके अलावा, मूर्तियों पर किए गए उत्कीर्ण लेख और उनका शिल्पीय विवरण भी महत्वपूर्ण है।

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