उत्तराखंड की महान विभूतियां: आजाद हिंद फौज का जांबाज सिपाही ‘केसरी चंद’ (Great personalities of Uttarakhand: Brave soldier 'Kesari Chand' of the Azad Hind Fauj.)
उत्तराखंड की महान विभूतियां: आजाद हिंद फौज का जांबाज सिपाही ‘केसरी चंद’
वीर केसरीचंद का बलिदान भारत की आजादी के आंदोलन में बलिदान होने वाले नौजवानों की गौरवगाथा है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों देशभक्तों ने अपने शौर्य, पराक्रम और बलिदान से इतिहास में अपना स्थान बनाया। उत्तराखंड का भी इस संघर्ष में स्वर्णिम योगदान रहा है। जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन किया, तो उत्तराखंड के अनेक रणबांकुरों ने इस क्रांतिकारी सेना की सदस्यता लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति का संकल्प लिया। इनमें जौनसार बावर क्षेत्र के वीर सपूत केसरी चंद भी शामिल थे, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर उत्तराखंड और जौनसार का नाम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णिम शब्दों में अंकित किया। वीर केसरीचंद का बलिदान भारत की आजादी के आंदोलन में अमर गाथा के रूप में आज भी गूंजता है।
जीवन परिचय
- जन्म: 1 नवंबर 1920, ग्राम क्यावा, जौनसार बावर, उत्तराखंड
- बलिदान दिवस: 3 मई 1945, केंद्रीय कारागार, दिल्ली
वीर केसरीचंद का जन्म 1 नवंबर 1920 को देवभूमि उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के ग्राम क्यावा में हुआ। पंडित शिवदत्त के घर जन्मे केसरीचंद का प्रारंभिक शिक्षा विकासनगर में हुई। बचपन से ही निर्भीक और साहसी केसरीचंद खेलकूद में भी रुचि रखते थे और अपनी टोली के नायक हुआ करते थे। 1938 में डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून से हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने इसी कॉलेज से इण्टरमीडियेट की पढ़ाई शुरू की। पढ़ाई के साथ-साथ वह स्वतंत्रता संग्राम की सभाओं और कार्यक्रमों में भी सक्रियता से भाग लेने लगे थे।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
10 अप्रैल 1941 को केसरीचंद रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गए। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और 29 अक्टूबर 1941 को उन्हें मलाया के युद्ध मोर्चे पर तैनात किया गया, जहां उन्हें जापानी फौज ने बंदी बना लिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आवाहन पर केसरीचंद ने आजाद हिंद फौज का हिस्सा बनकर ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की लड़ाई में कदम रखा। उनके भीतर देशप्रेम और अदम्य साहस का ज्वार देखकर उन्हें कई जोखिम भरे कार्य सौंपे गए, जिन्हें उन्होंने सफलता से निभाया।
अंतिम बलिदान
1944 में आजाद हिंद फौज ने वर्मा-भारत सीमा होते हुए मणिपुर की राजधानी इम्फाल तक पहुंच बनाई। 28 जून 1944 को इम्फाल के पास एक पुल उड़ाने के प्रयास में केसरीचंद को ब्रिटिश सेना ने गिरफ्तार कर दिल्ली की जिला जेल में बंद कर दिया। उन पर ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ षड्यंत्र रचने का मुकदमा चलाया गया और मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई। केसरीचंद ने 3 मई 1945 को हंसते-हंसते ’भारत माता की जय’ और ’जय हिंद’ के उद्घोष के साथ फांसी के फंदे को चूम लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष थी।
विरासत और सम्मान
वीर केसरीचंद ने अपने अद्वितीय बलिदान से उत्तराखंड और जौनसार बावर का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। उनके बलिदान को उत्तराखंड के लोग आज भी याद करते हैं। उनकी पुण्य-स्मृति में चकराता के पास चौलीथात, रामताल गार्डन में प्रतिवर्ष मेला लगता है, जहां हजारों लोग इस वीर सपूत को नमन करते हैं। जौनसारी लोकगीत 'हारुल' में आज भी उनके बलिदान को सम्मानपूर्वक याद किया जाता है।
वीर केसरी चंद के बलिदान पर कविता
जब आजादी की ज्वाला हर दिल में जलती थी,
हर सपूत मातृभूमि की खातिर पलता था,
उठा एक वीर जौनसार का, साहसी केसरी चंद,
जिसके जीवन का हर पल भारत पर मरता था।
बाल्यकाल से ही जिसमें साहस की थी लहर,
हर कदम पे दिखाता था वीरता का कहर,
जब बोस की पुकार सुन स्वतंत्रता की राह ली,
जपने लगे उसके होंठों पे “जय हिंद” की सहर।
रॉयल आर्मी में था वो, नायक का मान,
पर दिल में धड़कती थी भारत की जान,
जापानी सेना ने बंदी बना, आजाद हिंद से जोड़ा,
उस वीर सपूत ने देशभक्ति का दिया अनमोल तोहफा।
इम्फाल की धरती पर जब उसने कदम बढ़ाए,
अंग्रेजों के शासन से देश को आजाद कराए,
पर नियति ने फिर भी फांसी का फंदा दिखाया,
हंसते-हंसते वीर केसरी ने उसे भी अपनाया।
तीन मई का वो दिन आज भी इतिहास में अमर है,
चकराता के रामताल गार्डन में हर साल मेले का शोर है,
जौनसार के इस सपूत की गाथा,
हर दिल में आज भी गूंज रही गहर है।
नमन उस वीर केसरी चंद को,
जिसने आजादी के दीप में प्राणों की बाती जोड़ी।
उत्तराखंड की माटी को जिसने,
अपने लहू से वीरता की लाली दी।
वीर केसरीचंद के बलिदान को सदैव नमन!
केसरी चंद पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
केसरी चंद कौन थे?
- केसरी चंद उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के वीर स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने आजाद हिंद फौज में शामिल होकर स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी।
केसरी चंद का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
- उनका जन्म 1 नवंबर 1920 को उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के क्यावा गांव में हुआ था।
केसरी चंद की शिक्षा कहाँ हुई थी?
- उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा विकासनगर में प्राप्त की और बाद में डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून से पढ़ाई की।
केसरी चंद कब और कैसे आजाद हिंद फौज में शामिल हुए?
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी फौज ने उन्हें मलाया के मोर्चे पर बंदी बना लिया, तब केसरी चंद नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आवाहन पर आजाद हिंद फौज में शामिल हुए।
केसरी चंद ने स्वतंत्रता संग्राम में किस तरह योगदान दिया?
- केसरी चंद ने कई जोखिम भरे अभियानों में हिस्सा लिया और इम्फाल में पुल उड़ाने के प्रयास में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किए गए थे।
केसरी चंद का बलिदान दिवस कब है?
- उन्हें 3 मई 1945 को दिल्ली की केंद्रीय जेल में फांसी दे दी गई थी।
केसरी चंद का बलिदान उत्तराखंड में कैसे मनाया जाता है?
- उनके सम्मान में हर साल 3 मई को चकराता के रामताल गार्डन में 'वीर केसरी चंद मेला' आयोजित किया जाता है, जहां लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
केसरी चंद की विरासत को जौनसार बावर के लोग कैसे संजोते हैं?
- जौनसार बावर के लोकगीत 'हारुल' में उनके बलिदान को सम्मानपूर्वक याद किया जाता है, और उनके नाम से जुड़े मेले में स्थानीय लोग इकट्ठा होकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।
केसरी चंद ने किस नारे के साथ फांसी के फंदे को चूमा?
- केसरी चंद ने 'भारत माता की जय' और 'जय हिंद' के उद्घोष के साथ हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा।
केसरी चंद का उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम में क्या महत्व है?
- केसरी चंद का योगदान उत्तराखंड के युवाओं के लिए प्रेरणा है, जिन्होंने महज 24 वर्ष की आयु में देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, और उनके बलिदान की गाथा आज भी गूंजती है।
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