कविता 4. मी पहाड़ छू – एक पहाड़ी की पुकार
मी पहाड़ छू – एक पहाड़ी की पुकार
उत्तराखंड के पहाड़, जहाँ हर पत्थर पर एक कहानी बसी है, आज अपने ही लोगों से बिछड़ते जा रहे हैं। इस कविता में पहाड़ की दर्दभरी पुकार को बखूबी उकेरा गया है। हमारे पूर्वजों का यह भावपूर्ण संदेश हमें बताता है कि कैसे हमारी जड़ें, हमारे गाँव, और हमारे पहाड़, हमसे दूर होते जा रहे हैं।
कविता:
काहू कू मी आपुण पीड़ा,
नानतिन नैथिन म्यर दगड़ा,
मी छू पहाड़ा,
क्वै नी समझन म्यर पीड़ा।
पहाड़ों का यह दर्द वही समझ सकता है जिसने यहाँ अपने जीवन के सपने बुने थे। यहाँ की ठंडी हवाओं और ऊँचे पर्वतों के बीच बसने का सुख कोई बाहर का इंसान नहीं समझ सकता।
आपुण गोद मीन लुकाई भाय,
जरा फांख जामा, सब उड़ ग्याय,
मी उसकिये ठाड़ रै गोय,
नानतिन म्यर सब तलिहू लह ग्याय।
पहाड़ों की गोद में बसे गाँव एक-एक कर खाली होते जा रहे हैं। घरों में ताले लगते जा रहे हैं, गाँव के पुराने मकान अब वीरान और खामोश हैं।
ठंड हाव, ठंडो पाणी,
बाखई घाम छोड़ ग्याय,
म्यर बाल गोपाल,
म्यूको छोड़ बेर शहर लेह ग्याय।
शहरों की चकाचौंध ने इन ठंडी वादियों को वीरान कर दिया है। जो बच्चे यहाँ की मिट्टी में खेलते थे, वही अब शहरों में अपनी नई दुनिया बसा रहे हैं।
मी इंतजार करुन फिर ले,
एक न एक दिन जरूर आल,
मी इसकये ठाड़ हैरूल,
आपुण नान्तिनो बाट जोहुल।
यह पहाड़ आज भी उम्मीद में खड़ा है कि एक दिन उनके बच्चे लौटेंगे, इन गाँवों में फिर से रौनक लौटेगी, और एक बार फिर ये पहाड़ अपने लोगों से आबाद होंगे।
जय देवभूमि, जय उत्तराखंड।
कविता 5. पहाड़ी की हुँकार – गर्व और हिम्मत की आवाज
हर पहाड़ी के दिल में अपने पहाड़ों का गर्व और प्यार छिपा होता है। यह कविता हमें उस गर्व और बलिदान की याद दिलाती है जो हर पहाड़ी के जीवन में रचा-बसा होता है। यह सिर्फ एक कविता नहीं, बल्कि हर पहाड़ी की हुँकार है, उसकी पहचान है। यहाँ उस जज़्बे को शब्दों में पिरोया गया है जो उसे अपने पहाड़ों से जोड़े रखता है, चाहे वह कहीं भी क्यों न हो।
कविता:
मैं पहाड़ी हूँ - पहाड़ों से आया हूँ,
साथ अपने न जाने कितनी सौगातें लाया हूँ।
तरसते हैं जब लोग हवा को,
मैं ठंडी हवाएं लाया हूँ।
इस पंक्ति में उस शुद्धता का जिक्र है जो पहाड़ों की हवा और पानी में होती है। एक पहाड़ी के जीवन में प्राकृतिक हवा, ठंडे झरनों का पानी, और स्वच्छंद वातावरण का महत्व कभी खत्म नहीं होता।
आर ओ का पानी पीने वालो,
मैं बहती नदियों का पानी पीकर आया हूँ।
रिश्तों को जब भूल रहे लोग,
मैं - ईजा, बौज्यू, दद्दा, भूली साथ लाया हूँ।
इसमें बताया गया है कि पहाड़ी समाज में रिश्तों का बड़ा ही गहरा महत्व होता है। जहाँ आधुनिकता में लोग रिश्तों को भूलते जा रहे हैं, एक पहाड़ी आज भी अपने पारंपरिक रिश्तों और उनकी गरिमा को संजोये हुए है।
जाते होंगे तुम लोग जिम में फिट रहने के लिए,
मैं तो अपने पहाड़ घूम आया हूँ।
बंद कमरे में ए सी की हवा खाने वालो,
मैं खुले आसमान के नीचे ठंडी हवा पाया हूँ।
यह पंक्तियाँ पहाड़ों की शुद्धता और प्राकृतिक सुंदरता को दर्शाती हैं। यहाँ का जीवन मेहनत भरा है, पर इसमें वह सुकून भी है जो बंद कमरों और जिम में फिटनेस पाने वालों को शायद ही मिल पाता हो।
मैं पहाड़ी हूँ, पहाड़ों से आया हूँ,
जिगर में अपने पहाड़ों की हिम्मत लाया हूँ।
दिखता भले ही सीधा सादा हूँ,
संघर्ष की दास्तान लाया हूँ।
हर पहाड़ी सीधा-सादा दिखता है लेकिन उसके दिल में पहाड़ों की हिम्मत और आत्मबल छिपा होता है। यह जीवन उसे मेहनत, संघर्ष और साहस का अर्थ सिखाता है।
जब तक शांत हूँ, ठीक है,
बिगड़ गया तो, तूफ़ान लाया हूँ।
तुलना मत करना - याद रखना,
तरकश में अपने सारे तीर लाया हूँ।
पहाड़ी का स्वाभिमान और आत्म-सम्मान उसकी पहचान है। वह शांत रहता है, लेकिन उसके दिल में तूफ़ान भी उठ सकता है। वह अपनी शक्ति और परंपराओं का हर तीर तरकश में संजोकर रखता है।
कहीं भी रहूँ दुनिया में,
यादों की गठरी साथ लाया हूँ।
ताल ठोक कर कहता हूँ,
मैं पहाड़ी हूँ।
जिस ऊँचाई की तुम बात करते हो,
वो मैं, कब का चढ़ आया हूँ।
यादों की गठरी और अपनी जड़ों से जुड़े रहना, एक पहाड़ी की सबसे बड़ी विशेषता होती है। ऊँचाइयाँ उसके लिए नई नहीं, पहाड़ों के ये बेटे हर चुनौती को पहले से ही पार कर चुके होते हैं।
जय देवभूमि, जय उत्तराखंड।
कविता 6. एक पहाड़ी शेणी की आपबीती – पहाड़ों का संघर्षपूर्ण जीवन
पहाड़ों का जीवन हर किसी के लिए एडवेंचर और रोमांच का प्रतीक होता है, लेकिन एक पहाड़ी शेणी के लिए यह जीवन एक जद्दोजहद है। यह कविता उस कठिनाई, मेहनत और मजबूरी की कहानी कहती है जो हर पहाड़ी व्यक्ति को अपने जीवन में झेलनी पड़ती है। यहाँ एक पहाड़ी शेणी की आपबीती को बयां किया गया है जो पहाड़ों की हर कठिनाई को सहन करते हुए अपने कर्तव्यों को निभाता है।
कविता:
तुम जाहूं एडवेंचर कूछा , ऊ हम रोज़ करनू,
हम पहाड़ा शेणी, रोज ज्यान हाथ मी धरनू।
दुनिया जहाँ पहाड़ों में रोमांच खोजती है, वहीं पहाड़ी व्यक्ति का हर दिन इस रोमांच से भरपूर होता है। उसका हर कदम मुश्किलों से भरा होता है, जिसे वह बिना किसी शिकवे के उठाता है।
बांज काटहु एक फांग मि चढ़ जानु,
शौक ने यो हमर, मजबूरी छू,
दोड़ मी गोर बाछ छीन,
उनेर पेट लेह भरण छू।
शौक और मजबूरी के बीच बसा यह जीवन पहाड़ी शेणी को बाँज के पेड़ों पर चढ़ने पर मजबूर करता है, ताकि वह अपने परिवार के लिए रोटी का इंतज़ाम कर सके।
आसान नेह हो दाज्यू, यो पहाड़ा जीवन
दिन रात मेहनत करण पडू,
उकाव, भ्योह सब एक करण पडू,
दुय रोटा खातिर सब करण पडू।
यह जीवन आसान नहीं है। हर दिन मेहनत की अग्नि में तपना पड़ता है, पहाड़ी के जीवन में हर कदम पर संघर्ष है, लेकिन इसी संघर्ष में जीने की कला भी छिपी है।
हाथ मी दाथुल, कमर मी ज्योड़
राति निकल जानु,
घाम तेज हूण हबे,
पैली घर घटव पहुँचा दिनु।
कड़ी धूप हो या रात का अंधेरा, यह मेहनतकश पहाड़ी अपने कंधों पर जिम्मेदारी उठाए अपने घर की तरफ लौटता है, क्योंकि हर एक दिन उसके लिए एक नई जंग की तरह होता है।
फिर घरेक काम ले भाइय,
नान्तिना खान पीण,
कपड़ लेह धौंण भाइय,
आपुण लीजी रती भर टेम नि रून,
भौनो बोज्यू दिनभर ताश खेलबेर,
ब्याहु दारू पी बेर "कै करो त्यूल" कुनो भाइय।
दिनभर की मेहनत के बाद भी घर के काम, बच्चों की देखभाल, और परिवार के लिए समय निकालना उसकी दिनचर्या का हिस्सा होता है। वहाँ आराम के लिए वक्त नहीं है, और दुनिया की चकाचौंध से भी दूर है।
असोज जस मेरी ज़िन्दगी,
जेठेक जस घाम हेगे,
मी पहाड़ शेणी हो दाज्यू,
जवानी मी बूढ़ी हेगे।
कविता का अंत हमें उस कड़वे सत्य से मिलवाता है कि पहाड़ों की कठोर परिस्थितियाँ युवावस्था में ही इंसान को बूढ़ा कर देती हैं। यह एक पहाड़ी का दर्द है, उसकी ज़िंदगी की असली हकीकत है।
निष्कर्ष
इस कविता में एक पहाड़ी शेणी के जीवन की झलक मिलती है। यह एक ऐसा जीवन है जो सिर्फ मेहनत, त्याग और संघर्ष से भरा हुआ है। यह पहाड़ों के जीवन की सच्ची कहानी है, जहाँ हर दिन की सुबह और हर रात एक नई चुनौती लेकर आती है।
जय उत्तराखंड, जय देवभूमि।
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