#उत्तराखंड_माँगे_भू_कानून: तुझे फर्क पड़ता क्यूं नहीं - #Uttarakhand_demands_land_law: Why don't you care?

#उत्तराखंड_माँगे_भू_कानून: तुझे फर्क पड़ता क्यूं नहीं

उत्तराखंड की धरती, हमारी मातृभूमि, हमारे पहाड़ — यह सब कुछ केवल भौगोलिक संरचनाएं नहीं हैं, बल्कि हमारी पहचान और अस्तित्व की नींव हैं। लेकिन आज इन पहाड़ों और जमीन का सौदा हो रहा है। हिमालय की चोटियां, जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, व्यापार का साधन बन रही हैं। कविता "तुझे फर्क पड़ता क्यूं नहीं" इसी पीड़ा को आवाज देती है। यह हमारी धरती के प्रति जिम्मेदारी का आह्वान है, जो हमें सोने नहीं देता, लेकिन जिनके पास जिम्मेदारी है, वे खामोश क्यों हैं?


तुझे फर्क पड़ता क्यूं नहीं

मुझे दर्द होता है,
तुझे दर्द उठता क्यूं नहीं।
ये हिमालय बिकता है,
तुझे फर्क पड़ता क्यूं नहीं।

व्यापारी का बैठा बेड़ा इधर,
तेरी आंख को दिखता क्यूं नहीं।
सौदा होता है तेरा ही,
तू कम्बख्त कुछ कहता क्यूं नहीं।


यह कविता उन लोगों के लिए एक प्रश्नचिह्न है, जो अपनी धरती को बिकते हुए देख रहे हैं, लेकिन मौन हैं। हमारे हिमालय, हमारे जंगल, हमारी जमीन — सब कुछ व्यापार का हिस्सा बनते जा रहे हैं। आज यह जरूरी है कि हम अपनी जमीन और अपनी पहचान के लिए खड़े हों। "भू कानून" की मांग इसी दिशा में एक कदम है, ताकि उत्तराखंड की जमीनों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

#उत्तराखंड_माँगे_भू_कानून

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