कविता (3) जय उत्तराखंड, जय देवभूमि। - Poem (1 to 3 ) Hail Uttarakhand, hail the land of Gods.

कविता 1. जय हो उत्तराखंड – देवभूमि को नमन


जय हो - उत्तराखंड

Hail Uttarakhand, hail the land of Gods.

जय हो केदारा, जय हो मानस खंड, जय जय जय हो म्यर उत्तराखण्ड।

देवभूमि उत्तराखंड को समर्पित यह कविता, उसकी पावनता, प्राकृतिक सौंदर्य और गौरवशाली परंपराओं को एक खूबसूरत अंदाज़ में बयां करती है। यह कविता हमें उस भूमि का स्मरण कराती है, जो न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि जिसे 'देवभूमि' का सम्मान प्राप्त है।

Hail Uttarakhand, hail the land of Gods.

कविता:

जय हो केदारा, जय हो मानस खंड
जय जय जय हो म्यर उत्तराखण्ड।
तपोभूमि तू, देवभूमि तू,
तू छे शिवजी कौ कैलाशा।
गंगा यमुना त्येरी चेलियाँ,
कण कण मी भगवानो वासा।

यह पंक्तियाँ उत्तराखंड की धार्मिक और आध्यात्मिक महिमा का गुणगान करती हैं। यहां हर एक कण में भगवान का वास है, और गंगा-यमुना इसकी पवित्रता की पहचान हैं।

जय हो केदारा, जय हो मानस खंड
जय जय जय हो म्यर उत्तराखण्ड।
गढ़वाल और कुमाऊं त्यारा द्वी हाथा,
भाभर छू अन्न कौ भकारा।
बद्री तू, केदार ज्यू तू,
नंदादेवी छू मुकुटौ हिमाला।

उत्तराखंड के दो प्रमुख क्षेत्र, गढ़वाल और कुमाऊं, इस भूमि की शक्ति और समृद्धि के प्रतीक हैं। बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थस्थल यहाँ की पहचान हैं, और नंदादेवी का हिमालय पर्वत जैसे इसका मुकुट है।

जय हो केदारा, जय हो मानस खंड
जय जय जय हो म्यर उत्तराखण्ड।
हरिद्वार तू, पार्वती को सरासा
ऋषियों की तपोभूमि, तू छै शिवज्यू का वासा।
वीरो की कर्मभूमि, शेणियो कौ सम्माना,
करणी आज तुकै त्यार- नानतिन प्रणामा।

उत्तराखंड को ऋषि-मुनियों की तपोभूमि और वीरों की कर्मभूमि माना जाता है। यहाँ हरिद्वार, पवित्रता का द्वार है, और इसकी पवित्र भूमि हर किसी को शांति का अहसास कराती है। उत्तराखंड का हर नारी-पुरुष यहाँ की संस्कृति और परंपराओं में जीते हैं और आने वाली पीढ़ियाँ इस मिट्टी का सम्मान करती हैं।

अंतिम पंक्तियाँ:

जय हो केदारा, जय हो मानस खंड
जय जय जय हो म्यर उत्तराखण्ड।


जय हो उत्तराखंड!

कविता 2. पहाड़ों की चीख-पुकार – देवभूमि की पुकार


पहाड़ों की चीख पुकार

उत्तराखंड की देवभूमि, जिसे उसके सुंदर पर्वत, घने जंगल, और सीढ़ीनुमा खेतों ने एक अनोखी पहचान दी है। यह धरती कभी हमारे पूर्वजों की मेहनत और संकल्प का प्रतीक थी। आज, ये पहाड़ अपनी मौन पीड़ा के साथ चीखते हुए प्रतीत होते हैं, अपनी वीरानी और अपने खोते हुए अस्तित्व के लिए।


कविता:

सोचो जरा,
कितनी मेहनत से हमारे पुरखो ने,
इन पर्वतो को काटकर घर बनाये होंगे,
किन भीषण परिस्थितयो में,
ये खेत सीढ़ीनुमा बनाये होंगे।

यह पंक्तियाँ हमें उन पुरखों की याद दिलाती हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इन पहाड़ों को आबाद करने में बिताई। सीढ़ीनुमा खेतों को बनाना, पहाड़ों के बीच अपना बसेरा तैयार करना – यह सब किसी तपस्या से कम नहीं था।

घने जंगलो के बीच,
अपना एक गाँव बसाया था,
बच्चो के सुनहरे भविष्य के लिए,
न जाने सालो तक पसीना बहाया था।

हमारे पूर्वजों ने घने जंगलों में अपनी छोटी-सी दुनिया बसाई थी, जहाँ हर चीज में प्रकृति का सामंजस्य था। उन्होंने सोचा था कि आने वाली पीढ़ियाँ इसी शुद्धता और सौंदर्य में पले-बढ़ेंगी।

ये पहाड़ यूँ ही आबाद नहीं हुए थे,
हमारे पूर्वजो ने अपना लहू बहाया था,
बच्चो को मिले एक ताज़ी आबो हवा,
बस उनकी यही मंशा थी।

हमारे पूर्वजों की मेहनत ने इन गाँवों को स्वर्ग बनाया। उनके लिए यही सबसे बड़ा सुख था कि उनके बच्चे प्रकृति के करीब, शुद्ध हवा और जल के बीच अपना जीवन बिताएं।

कालांतर में ये सपना चकनाचूर हुआ,
गांव छोड़कर शहरो की तरफ उनके नौनिहालों का कूच हुआ,
बंजर हुए गाँव, बेजार खेत खलिहान हुआ,
शहरो की चकाचौध ने मेरा गाँव मुझसे छीन लिया।

समय के साथ यह सपना टूट गया। बेहतर अवसरों की खोज में लोग शहरों की ओर चले गए, पीछे रह गए वीरान गाँव, बंजर खेत, और उन घरों में लगे ताले।

"स्वर्ग" सी धरती, "देवताओ" के घर पर,
न जाने ये कैसा कुटिल घात हुआ,
लटक गए ताले घरो में,
मेरा स्वर्ग "सरकारों" के निक्कमेपन का शिकार हुआ।

यह देवभूमि कभी "स्वर्ग" के समान थी। यह धरती, जहां देवताओं का वास माना जाता है, आज सरकारों की अनदेखी और नीतियों की विफलता का शिकार हो रही है।

पूछ रही है आज चीख चीख कर ये देवभूमि,
क्यों मेरे अपने ने मुझसे मुँह मोड़ लिया,
बंजर करके मुझे,
तुमने कौन सा "कुबेर" का खजाना जोड़ लिया।

देवभूमि आज चीख कर पूछ रही है कि उसके अपने उसे छोड़कर क्यों चले गए। क्या शहरों की चमक-धमक में वो खजाना है जो इन पहाड़ों की अनमोल धरोहर से ज्यादा महत्वपूर्ण है?


जय हो देवभूमि! जय हो उत्तराखंड!

कविता 3. नहीं भूलती वो यादें – पहाड़ों की अनमोल स्मृतियाँ


नहीं भूलती वो यादें

जीवन की दौड़ और शहर की चमक-धमक के बीच, हम अक्सर अपनी जड़ों से दूर होते चले जाते हैं। लेकिन कुछ यादें ऐसी होती हैं जो हमेशा दिल में बसी रहती हैं। उत्तराखंड के पहाड़, वहाँ की संस्कृति, और अपनेपन से भरी वो छोटी-छोटी बातें हमें बार-बार अपनी ओर खींचती हैं। यह कविता उन मीठी यादों को संजोए हुए है, जो हमारे बचपन और उत्तराखंड की धरती की महक से जुड़ी हुई हैं।


कविता:

नहीं भूलती वो यादें,
वो पाथरो के घर,
वो ऊँचे नीचे रास्ते,
वो नौले का पानी,
वो बाँज की बुझाणि।

ये पंक्तियाँ हमारे पहाड़ के जीवन का सार हैं। जहाँ पत्थरों से बने घर, ऊँचाई-नीचाई वाले रास्ते और नौले का ठंडा मीठा पानी हमें हमेशा अपनी मिट्टी की ओर बुलाते हैं। बाँज के जंगल की ठंडी छांव और उसकी खुशबू मन को एक अलग ही सुकून देती है।

वो आमा बुबु के फसक,
वो भट्ट के डुबुक,
वो गाँव की बखाई,
वो झोड़े, चांचरी,
वो जागर की धुन।

गाँव के बुजुर्गों से सुनी कहानियाँ, वो भट्ट की डुबुक का स्वाद, झोड़े-चांचरी की सामूहिकता और जागर की धुन में बसी आस्था – ये सभी हमारे जीवन का हिस्सा हैं जो हमें अपनी संस्कृति से जोड़ते हैं।

वो "भुला" का अपनापन,
वो "दाज्यू" का प्यार,
वो "बेणी" का दुलार,
वो "बौजी" की झिड़क,
वो "ईजा" की फिक्र।

यह पहाड़ों के रिश्ते हैं – जहाँ हर "भुला" में अपनापन और हर "दाज्यू" में एक स्नेह झलकता है। "बेणी" का दुलार, "बौजी" की डाँट, और "ईजा" की ममता – इन सब में हमें अपने परिवार की गर्माहट महसूस होती है।

वो गोल्ज्यू का थान,
वो "शिवालय" की शान,
वो "बुराँश" के फूल,
वो "काफल" का स्वाद,
वो "हिसालू", "किलमोड़े",
वो "पालक" का साग।

उत्तराखंड की धरती पर हर जगह गोल्ज्यू महाराज का थान है, जो हमें हमारी संस्कृति से जोड़ता है। शिवालय का भव्य रूप, बुराँश के लाल फूल, और काफल-हिसालू का स्वाद – ये सभी प्राकृतिक सौंदर्य और हमारी भूमि के उपहार हैं।

वो रास्तो पर बेख़ौफ़ धिरकना,
वो सब "अपने" है का एहसास,
नहीं भूलती है वो यादें,
कहीं भी रहे हम,
पहाड़ों की बहुत आती है याद।

पहाड़ों की संकरी पगडंडियों पर बेफिक्री से चलना, हर चेहरे में अपनापन महसूस करना, और जहाँ भी जाएं, वहाँ की मिट्टी की महक का एहसास – ये सब हमारे भीतर बसी यादें हैं जिन्हें भुलाना मुश्किल है।


सच में, नहीं भूलती है वो यादें! जय हो उत्तराखंड!

पहाड़ों की चीख पुकार – एक लुप्त होती सांस्कृतिक विरासत


पहाड़ों की चीख पुकार

आज जब हम अपने गाँवों और पहाड़ों की ओर देखते हैं, तो एक गहरी उदासी का एहसास होता है। उत्तराखंड की ये देवभूमि, जो कभी जीवन और हरियाली से भरपूर थी, अब वीरान और बंजर होती जा रही है। यह कविता उसी दर्द को बयां करती है, जहाँ हमारे पूर्वजों का कठिन परिश्रम, त्याग, और सपने आज धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं।


कविता:

सोचो जरा,
कितनी मेहनत से हमारे पुरखों ने,
इन पर्वतों को काटकर घर बनाये होंगे,
किन भीषण परिस्थितियों में,
ये खेत सीढ़ीनुमा बनाये होंगे।

हमारे पूर्वजों ने जिन पहाड़ों को अपने खून-पसीने से आबाद किया, उन पहाड़ों की मिट्टी अब सूख रही है। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में सीढ़ीनुमा खेत तैयार किए ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों को भूखा न रहना पड़े।

घने जंगलों के बीच,
अपना एक गाँव बसाया था,
बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए,
न जाने सालों तक पसीना बहाया था।

गाँव बसाने में सालों-साल का संघर्ष शामिल था। जंगलों के बीच एक सुरक्षित जगह बनाकर उन्होंने न केवल अपना घर बसाया, बल्कि एक पीढ़ी को एक सुरक्षित भविष्य देने का सपना भी देखा।

ये पहाड़ यूँ ही आबाद नहीं हुए थे,
हमारे पूर्वजों ने अपना लहू बहाया था,
बच्चों को मिले एक ताज़ी आबो हवा,
बस उनकी यही मंशा थी।

इन पहाड़ों में हमारे पूर्वजों का खून और पसीना बहा है। उनके लिए ये केवल पहाड़ नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक थे।

कालांतर में ये सपना चकनाचूर हुआ,
गाँव छोड़कर शहरों की तरफ उनके नौनिहालों का कूच हुआ,
बंजर हुए गाँव, बेजार खेत खलिहान हुआ,
शहरों की चकाचौंध ने मेरा गाँव मुझसे छीन लिया।

शहरों की आकर्षण ने हमारे गाँवों को खाली कर दिया। जो गाँव कभी जीवन और ऊर्जा से भरे हुए थे, अब वहां सूनेपन का राज है। शहरों की चकाचौंध में गाँवों की शांत सुंदरता खो गई।

"स्वर्ग" सी धरती, "देवताओं" के घर पर,
न जाने ये कैसा कुटिल घात हुआ,
लटक गए ताले घरों में,
मेरा स्वर्ग "सरकारों" के निक्कमेपन का शिकार हुआ।

सरकार की लापरवाही और विकास के असमान वितरण के कारण, ये गाँव अब वीरान हो चुके हैं। जहाँ कभी जीवन की रौनक थी, वहाँ अब खामोशी और बंजरपन है।

पूछ रही है आज चीख चीख कर ये देवभूमि,
क्यों मेरे अपने ने मुझसे मुँह मोड़ लिया,
बंजर करके मुझे,
तुमने कौन सा "कुबेर" का खजाना जोड़ लिया।

देवभूमि की चीख हमें याद दिला रही है कि हम अपनी मिट्टी से दूर होकर क्या खो रहे हैं। वो धरती जो कभी हमारे जीवन का आधार थी, आज हमें सवालों के घेरे में खड़ा कर रही है। आखिर इस विरासत को छोड़कर हम किस दौलत की तलाश में हैं?


निष्कर्ष:

यह कविता केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि एक पुकार है उन लोगों के लिए जो अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं। आधुनिकता और विकास के बीच हमने जो छोड़ा है, वो केवल ज़मीन का टुकड़ा नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की कड़ी मेहनत और सपनों का अंत है। हमें सोचना होगा कि क्या वाकई हम अपने सपनों को पूरा कर रहे हैं, या फिर अपनी सांस्कृतिक और पारिवारिक धरोहर को खो रहे हैं। यह वक्त है हमें अपने गाँवों और अपनी धरती को बचाने का, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन खूबसूरत पहाड़ों का आनंद उठा सकें।

जय उत्तराखंड, जय देवभूमि।

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