Kumaon Regiment, कुमाऊं रेजिमेंट
कुमाऊं रेजिमेंट: गौरवशाली इतिहास और वीरता
13 बटालियन की वीरता की अद्भुत कहानियाँ।
कुमाऊं रेजिमेंट के इतिहास का गहन विश्लेषण।
रेजिमेंट की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर।
रेजिमेंट के शौर्य और बलिदान की कहानियाँ।
रेजिमेंट की स्थापना और उपलब्धियों पर लेख।
प्रथम विश्व युद्ध में रेजिमेंट का योगदान।
भारतीय सेना के प्रेरणादायक नारे और उनके महत्व।
रेजिमेंट म्यूजियम की विशेषताएँ और इतिहास।
रेजिमेंट के साहसी सैनिकों की कहानियाँ।
मेजर शैतान सिंह की शौर्यगाथा।
मेजर शैतान सिंह का जीवन और बलिदान।
कुमाऊँ रेजिमेंट: भारतीय सेना की शान
कुमाऊँ रेजिमेंट भारतीय सेना की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित पैदल सेना रेजिमेंटों में से एक है। इस रेजिमेंट की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुई थी और इसका समृद्ध इतिहास दो विश्व युद्धों और कई महत्वपूर्ण अभियानों में भागीदारी से भरा हुआ है। यह रेजिमेंट भारतीय सेना की सबसे सम्मानित इकाइयों में गिनी जाती है।
सैनिकों की भर्ती
रेजिमेंट का इतिहास
कुमाऊँ रेजिमेंट का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप के युद्धों और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से जुड़ा हुआ है।
- 18वीं और 19वीं शताब्दी:कुमाऊँ क्षेत्र के लोग ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए सैनिक के रूप में भर्ती होते थे। ये सैनिक एंग्लो-नेपाली युद्ध में ब्रिटिश पक्ष से लड़े।
- हैदराबाद निज़ाम की सेना में भूमिका:कुमाऊँ क्षेत्र के लोगों ने निज़ाम की सेना में भी सेवा दी। इन सैनिकों को बाद में "हैदराबाद कंटिजेंट" के नाम से जाना गया, जो 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट बनी।
- प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध:रेजिमेंट ने दोनों विश्व युद्धों में विशिष्ट भूमिका निभाई। 1917 में रानीखेत में 4/39वीं कुमाऊँ राइफल्स के रूप में इसकी शुरुआत हुई।
आधुनिक दौर में योगदान
1945 में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, इस रेजिमेंट का नाम बदलकर कुमाऊँ रेजिमेंट रखा गया। स्वतंत्रता के बाद, इसने कई बड़े युद्धों में भारतीय सेना का प्रतिनिधित्व किया।
- प्रमुख घटनाएं:
- 1947-48 भारत-पाकिस्तान युद्ध
- 1962 का भारत-चीन युद्ध
- 1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम
कुमाऊँ रेजिमेंट के प्रमुख तथ्य
- तीन सेना प्रमुख:कुमाऊँ रेजिमेंट ने भारतीय सेना को तीन प्रमुख दिए हैं:
- जनरल सत्यवंत श्रीनागेश
- जनरल कोडेंडेरा सुबैय्या थिमय्या
- जनरल टी.एन. रैना
- जुड़ाव:रेजिमेंट से नागा रेजिमेंट और कुमाऊँ स्काउट्स जैसे अन्य सैन्य इकाइयाँ भी जुड़ी हुई हैं।
- सांस्कृतिक विरासत:कुमाऊँ रेजिमेंट के सैनिक भारतीय और पश्चिमी सैन्य परंपराओं का संगम हैं। पाइप और ड्रम बैंड इसकी पहचान है।
उपलब्धियां और सम्मान
कुमाऊँ रेजिमेंट ने अपने शौर्य और बलिदान से अनगिनत सम्मान अर्जित किए हैं। यह भारतीय सेना की एक ऐसी रेजिमेंट है जो अदम्य साहस और देशभक्ति की प्रतीक है।
1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध: कुमाऊं रेजिमेंट की वीरता की कहानी
1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें भारतीय सेना ने अदम्य साहस और शौर्य का प्रदर्शन किया। इस युद्ध में कुमाऊं रेजिमेंट ने अपनी वीरता से नई मिसालें कायम कीं। आइए, कुमाऊं रेजिमेंट की उपलब्धियों और उनके अद्वितीय योगदान पर एक नज़र डालते हैं।
कुमाऊं पहाड़ी की लड़ाई
कुमाऊं रेजिमेंट की दो बटालियनों ने गुरिल्ला हमलों के खिलाफ अभियान चलाया। लेफ्टिनेंट कर्नल सालिक के नेतृत्व में, 21 सितंबर 1965 की रात को एक खामोश हमला किया गया। इस हमले में जमादार राम सिंह ने घायल होने के बावजूद दुश्मन की बारूदी सुरंगों का सामना करते हुए रास्ता साफ किया।
सुबह 10 बजे तक कुमाऊंनी सैनिकों ने पहाड़ी पर कब्जा कर लिया। इस वीरता के लिए कैप्टन सुरेंद्र शाह और एनके चंदर सिंह को वीर चक्र से सम्मानित किया गया। इस जीत को यादगार बनाने के लिए इस पहाड़ी का नाम 'कुमाऊं पहाड़ी' रखा गया।
छंब सेक्टर की लड़ाई
छंब सेक्टर में कुमाऊं रेजिमेंट ने दुश्मन के भारी हमलों का सामना किया। 3 कुमाऊं को दुश्मन के गढ़ गुलाबा-चापर पर हमला करने का आदेश मिला। मेजर धीरेंद्र नाथ सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने दुश्मन के 63 सैनिकों को मार गिराया।
यहां से बटालियन को केरी-पेल क्षेत्र पर कब्जा करने का कार्य सौंपा गया। दुश्मन के भारी प्रतिरोध के बावजूद, भारतीय सेना ने अपनी स्थिति को मजबूती से संभाले रखा।
महाराजके का युद्ध
6 और 7 सितंबर 1965 की रात को कुमाऊं रेजिमेंट ने पाकिस्तान के महाराजके क्षेत्र पर कब्जा किया। 13 सितंबर को, उन्होंने पागोवाल गांव पर हमला किया और वहां 13 मील अंदर तक घुसकर जीत हासिल की।
इस ऑपरेशन के दौरान एनके गणेश दत्त को वीर चक्र से सम्मानित किया गया। बटालियन को 'पंजाब' थिएटर ऑनर से भी नवाजा गया।
कुमाऊं रेजिमेंट का सियाचिन में योगदान
1984 में ऑपरेशन मेघदूत के दौरान, कुमाऊं रेजिमेंट ने सियाचिन ग्लेशियर पर भारतीय सेना के लिए रणनीतिक बढ़त हासिल की। लेफ्टिनेंट कर्नल डीके खन्ना के नेतृत्व में, बटालियन ने दुर्गम परिस्थितियों में दुश्मन को मात दी।
19 कुमाऊं की वीरता का यह प्रमाण है कि उन्होंने 29 मई 1984 को साल्टोरो रिजलाइन पर भारतीय तिरंगा फहराया। इस अभियान में 19 सैनिकों ने सर्वोच्च बलिदान दिया।
कुमाऊं रेजिमेंट: गौरवशाली इतिहास
उपसंहार
कुमाऊं रेजिमेंट की गौरवशाली कहानियां हर भारतीय को गर्वित करती हैं। उनका शौर्य न केवल युद्ध में बल्कि शांति स्थापना के प्रयासों में भी अद्वितीय है।
जय हिंद!
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