"काफल पाको, मिन नी चाखो" उत्तराखंड की एक मार्मिक लोककथा 'kafal paco, min ni chakho' uttarakhand ki ek marmik lokkatha

 ‘काफल पाको, मिन नी चाखो’ उत्तराखंड की एक मार्मिक लोककथा



 ‘काफल पाको, मिन नी चाखो’ उत्तराखंड की एक मार्मिक लोककथा
 काफल का वानास्पतिक नाम " मिरिका एस्कुलेन्टा"

गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड के पहाड़ मौसमी फलों से लदना शुरू हो जाते है। काफल भी उन्हीं मौसमी फलों में से एक फल है। काफल स्वाद में बेसुमार लाल चटक रंग के ये फल रसदार होने के कारण स्थानीय लोगों और पर्यटकों को बहुत लुभाते है।

साथ में यह एक ऐसा फल है जिसे प्रकृति की दैन कहा जाता है , कई गाँव के लोगों के लिए यह फल रोजगार का एक साधन भी बन जाता है। इसी फल से जुड़ी काफी पुरानी एक कथा है जो उत्तराखंड में खासी लोक प्रिय है।

काफल पाको की करुण कथा-

बहुत समय पहले की बात है सुदूर गाँव में एक औरत और उसकी बेटी रहती थी। दोनों एक दूसरे का एक मात्र सहारा थी। माँ जैसे तैसे घर का गुज़ारा किया करती थी। ऐसे में गर्मियों के मौसम में जब पेड़ो पर काफल आया करते थे तो वह उन काफलों को तोड़कर बाजार में बेचा करती थी। जिससे उनका गुज़ारा चलता था।

उस समय पहाड़ो पर काफल रोजगार का साधन हुआ करता था। जो आज भी देखा जा सकता है। एक दिन जब वह जंगल से काफल तोड़कर लायी तो बेटी का मन उन काफलों को खाने का करने लगा ।

उसका मन उन लाल रसीले काफलों की ओर आकर्षित हुआ तो उसने माँ से उन्हें चखने की इच्छा जाहिर की। लेकिन माँ ने उन्हें बेचने का कह कर उसे काफलों को छूने से भी मना कर दिया और काफलों की छापरी (टोकरी) बाहर आंगन में एक कोने में रख कर खेतों में काम करने चली गई और बेटी से काफलों का ध्यान रखने को कह गई।

दिन में जब धूप ज्यादा चढ़ने लगी तो काफल धूप में सूख कर कम होने लगे। क्युकी काफलों में पानी की मात्रा ज्यादा होती है जिससे वह धुप में सुख से जाते है और ठण्ड में फिर से फुल जाते है। माँ जब घर पहुंची तो बेटी सोई हुई थी।

माँ सुस्ताने (थकान दूर करने ) के लिए बैठी तो उसे काफलों की याद आयी उसने आँगन में रखी काफलों की छापरि (टोकरी) देखी तो उसे काफल कम लगे। गर्मी में काम करके और भूख से परेशान वह पहले ही चिड़चिड़ी (गुस्सा) हुई बैठी थी कि काफल कम दिखने पर उसे और ज्यादा गुस्सा आ गया। उसने बेटी को उठाया और गुस्से में पूछा कि काफल कम कैसे हुए? तूने खादिए ना?

इस पर बेटी बोली – “नहीं मां, मैंने तो चखे भी नहीं! पर माँ ने उसकी एक नहीं सुनी, माँ का गुस्सा बहुत बढ़ गया और उसने बेटी की खूब पिटाई शुरू कर दी। बेटी रोते-रोते कहती गई की मैंने नहीं चखे, पर माँ ने उसकी एक नहीं सुनी

और लगातार मारते गई जिससे बेटी अधमरी सी हो गई और अंतः मारते मारते एक वार बेटी के सर पर दे मारा जिससे छटककर आँगन में गिर पड़ी और उसका सर पत्थर में लगा जिससे उसकी वही मृत्यु हो गई।

काफल फल

अपनी गलती का एहसास-

धीरे धीरे जब माँ का गुस्सा शांत हुआ तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, उसने बेटी को गोद में उठा कर माफ़ी मांगनी चाही, उसे खूब सहलाया, सीने से लगाया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, बेटी के प्राण जा चुके थे , माँ तिलमिला उठी और छाती पीटने लगी कि उसने यह क्या कर दिया।

उसका वह एक मात्र सहारा थी। छोटी सी बात के लिए उसने अपनी बेटी की जान ले ली। जब माँ को ये एहसास हुआ की काफल धूप में सुखकर कम हो गए थे तो उसे अपनी गलती का काफी पश्चाताप हुआ। पर अब इतनी देर हो चुकी थी की वह पश्चाताप के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी। और इस पश्चाताप में उसने अपने भी प्राण ले लिए।

काफल का वानास्पतिक नाम मिरिका एस्कुलेन्टा

काफल का फल

कहा जाता है कि वे दोनों माँ बेटी मर के पक्षी बन गए और जब भी पहाड़ो में काफल पकते हैं तो एक पक्षी बड़े करुण भावसे गाता है – ‘काफल पाको! मैंल नी चाखो!’ (काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं) और तभी दूसरा पक्षी चीत्कारकर उठता है पुर पुतई पूर पूर! (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)

‘काफल पाको, मिन नी चाखो’ उत्तराखंड की एक मार्मिक लोककथा

चैत का महीना शुरू होने वाला है और इन दिनों उत्तराखंड के जंगलों में काफल का फल पकने को तैयार है। काफल पर एक प्रसिद्ध गाना भी बना है – बेडू पाको बारा मासा नारयणी काफल पाको चैता मेरी छैला। आप अगर इस समय में उत्तराखंड जाएंगे तो आपको पहाड़ों में सड़क के किनारे इसके पेड़ देखने को मिल जाएंगे या छोटे-छोटे बच्चे आपको सड़क के पास काफल बेचते नज़र आएंगे। 

एक कहानी आज एकाएक मेरे जेहन में आई, जिसे हम बचपन से अपने घर के बड़े-बुजुर्गों से सुनते आए हैं। जब भी काफल का मौसम आता है तो यह आम मान्यता है कि उसके साथ दो चिड़ियाओं का भी आगमन होता है, एक चिड़िया कहती है कि काफल पाको मिन नी चाखो (काफल पाक गए लेकिन मैंने नहीं चखे) तो दूसरी चिड़िया कहती है- पता च बेटी, पता च (पता है बेटी, पता है)।

ये बस एक कहानी है या सच्ची घटना है, इसकी सत्यता का मेरे पास अभी तक कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन जब भी यह कहानी कभी पढ़ता हूँ या इस गाने को जब भी सुनता-देखता हूँ, तो मन दुखी सा हो जाता है। हर बार रोना आ जाता है।

काफल फल

यह गढ़वाली गीत सुनने में जितना अच्छा है, इसकी कहानी भी उतनी ही मार्मिक है। उत्तराखंड में एक लोक कथा प्रचलित है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला और उसकी बेटी रहती थी। उस महिला के पास आजीविका के लिए थोड़ी-सी ज़मीन के अलावा कुछ भी नहीं था। एक बार वह महिला सुबह ही जंगल जाकर एक टोकरी भरकर काफल तोड़ लाई। उसके बाद उसने अपनी बेटी को नींद से जगाया और कहा कि धूप आने लगी है, मैं खेत से गेहूं काट कर आती हूँ, तब तक सिलबट्टे में नमक पीसकर तैयार रखना। फिर हम दोनों साथ मिलकर काफल खाएँगे। सुनकर, उसकी बेटी उसे कहती है- माँ कल रात से कुछ भी नहीं खाया है, मुझे बहुत तेज़ भूख लग रही है। कुछ काफल मुझे खाना है। लेकिन उसकी माँ उसे मना करके, गेहूं काटने खेत में चली जाती है। 

माँ की बात मानकर बच्ची दोपहर तक इंतज़ार करती है।  इस दौरान भूख के कारण कई बार उन रसीले काफलों को देखकर बच्ची के मन में लालच आया। पर माँ की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठी रही। दोपहर काफ़ी देर बाद जब उसकी माँ घर आई तो उसने देखा कि टोकरी में काफल कम हैं। सुबह से ही काम पर लगी माँ को ये देखकर बहुत गुस्सा आता है। वह अपनी बेटी से कहती है- मेरे मना करने के बाद भी तूने इसे क्यूँ खाया। इस पर उसकी बेटी उसे कहती है कि मैं अपने मरे हुए पिता की कसम खाती हूँ, मैंने इसेमें से एक काफल चखा तक नहीं। इस बीच माँ गुस्से में अपनी बच्ची को ज़ोर से धक्का देती है। बेटी को धक्का इतना तेज़ लगा कि वह बेसुध होकर नीचे गिर जाती है। तभी उसकी माँ उसे काफ़ी देर तक हिलाती है लेकिन तब तक उसकी बेटी की मौत हो चुकी थी।

मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। इधर शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब उस महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आता है कि दिन की तेज  धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा गए और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर जाती है।

‘काफल पाको, मिन नी चाखो’ उत्तराखंड की एक मार्मिक लोककथा

ये कहानी हमारे राज्य की एक लोक कथा भर नहीं है बल्कि यह कहानी राज्य की आर्थिक स्थिती को भी दर्शाती है। ये एक कहानी है या सच, वह तो हमको तय करना है। यह कहानी उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में कठिनाई भरे जीवन की व्यथा बताने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण भी है।

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