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नैन सिंह रावत कौन थे?
दुनिया के नक्शे पर तिब्बत का भूगोल जोड़ने वाले नैन सिंह रावत कौन थे?
पण्डित नैन सिंह के नाम पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार करने की उपाधी दर्ज है। यह नक्शा उन्होंने बिना किसी आधुनिक उपकरण के तैयार किया था।
एक कहानी के रूप में नैन सिंह जी के अदम्य साहस का परिचय-
पंडित नैन सिंह न केवल तिबब्त गए बल्कि वहां जाकर तिबब्त का नक्शा बना लाए और वह भी बिना किसी आधुनिक उपकरण के।सर्वे ऑफ इंडिया में जी एंड आरबी के निदेशक अरुण कुमार बताते हैं कि 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे। अब वो आगे बढने की तैयारी कर रहे थे लेकिन उनके आगे बढ़ने में सबसे बड़ा रोड़ा था तिब्बत। यह क्षेत्र दुनिया से छुपा हुआ था। न सिर्फ़ वहां की जानकारियां बेहद कम थीं बल्कि विदेशियों का वहां जाना भी सख़्त मना था। ऐसे में अंग्रेज कशमकश में थे कि वहां का नक्शा तैयार होगा कैसे?हालांकि ब्रितानी सरकार ने कई कोशिशें कीं लेकिन हर बार नाकामी ही हाथ लगी। पंडित नैन सिंह पर किताब लिख चुके और उन पर शोध कर रहे रिटार्यड आईएएस अधिकारी एसएस पांगती बताते है कि अंग्रेज अफसर तिब्बत को जान पाने में नाकाम हो गए थे।
पांगती के अनुसार कई बार विफल होने के बाद उस समय के सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने ये फैसला लिया कि अंग्रेजों के बजाए उन भारतीयों को वहां भेजा जाए जो तिब्बत के साथ व्यापार करने वहां अक्सर आते जाते हैं और फिर खोज शुरु हुई ऐसे लोगों की जो वहां की भौगोलिक जानकारी इकत्र कर पाए और आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी दो ऐसे लोग मिल ही गए। 33 साल के पंडित नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह।पांगती कहते हैं कि अब सबसे बडी चुनौती ये थी कि आखिर दिशा और दूरी नापने के यंत्र तिब्बत तक कैसे ले जाए जाएं क्योंकि ये आकार में बहुत बड़े थे और पकड़े जाने पर तिब्बती इसे जासूसी मान कर मौत की सजा भी दे सकते थे।
आखिरकार दोनों भाइयों को ट्रेनिंग के लिए देहारदून लाया गया और ये तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास लेकर जाएंगे और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर। हाथ में एक प्रार्थना चक्र था जिसे तिब्बती भिक्षुक साथ रखते थे और दूरी नापने के लिए एक नायाब तरीका अपनाया गया।नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें। इसके साथ उन्हें देहरादून में महीनों अभ्यास करवाया गया।हिंदुओं की 108 की कंठी के बजाय उन्होंने अपेन हाथों में जो माला पकड़ी वह 100 मनकों की थी ताकि गिनती आसान हो सके।अरुण कुमार कहते हैं कि भले ही उनके पास उपकरण बेहद साधारण रहे हों लेकिन हौसला असाधारण था।1863 में दोनों भाइयों ने अलग-अलग राह पकड़ी।नैन सिंह रावत काठमांडू के रास्ते वह तिब्बत के लिए निकले और मानी सिंह कश्मीर के रास्ते।मानी सिंह इस पहले ही प्रयास में नाकाम हो गए और कश्मीर से वापस लौट आए लेकिन नैन सिंह ने अपनी यात्रा जारी रखी।
वह तिब्बत पहुंचे और अपनी पहचान छुपा कर बौद्ध भिक्षु के रूप में रहे।वह दिन में शहर में टहलते और रात में किसी ऊंचे स्थान से तारों की गणना करते ।जो भी गणनाएं वो करते थे उन्हें कविता के रूप में याद रखते या फिर कागज में लिख अपने प्रार्थना चक्र में छिपा देते थे।नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को ये बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, उसके अक्षांश और देशांतर क्या है। यही नहीं उन्होंने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी हैं।सतलुज और सिंधु नदी के स्त्रोत भी सबसे पहली उन्होंने ही दुनिया को बताए। उन्होंने सबसे पहली बार दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से रूबरू कराया।सबसे बड़ी बात उन्होंने अपनी समझदारी अपनी हिम्मत और अपने वैज्ञानिक दक्षता से तिब्बत का नक्शा बना डाला। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था कई बार तो उन्होंने इस काम के लिए जान जोखिम में भी डाली।नैन सिंह पर सागा ऑफ नेटिव एक्सपलोरर नाम किताब लिख चुके पांगती बताते हैं कि यह कितना मुशकिल था।अन्वेषक होने के नाते पंडित नैन सिंह रावत ने चार बड़ी यात्राएं कीं।सबसे पहले वह साल 1865 में वो काठमांडू के रास्ते लहासा गए और कैलाश मानसरोवर के रास्ते वापस 1866 में वापस भारत आए।साल 1867-68 में वह उत्तराखण्ड में चमोली जिले के माणा पास से होते हुए तिब्बत के थोक जालूंग गए, जहां सोने की खदानें थीं।उनकी तीसरी बड़ी यात्रा थी शिमला से लेह और यारकंद जो उन्होंने साल 1873 -74 में की।उनकी आखिरी और सबसे महत्तवपूर्ण यात्रा साल 1874-75 में की लद्दाख से लहासा गए और फिर वहां से असम पहुंचे।इस यात्रा में वह ऐसे इलाकों से गुज़रे, जहां दुनिया का कोई आदमी अभी तक नही पहुंचा था।
आत्मपरिचय -
नैन सिंह रावत (1830-1895) 19वीं शताब्दी के उन पण्डितों में से थे जिन्होने अंग्रेजों के लिए हिमालय के क्षेत्रों की खोजबीन की। नैन सिंह कुमायूँ घाटी के रहने वाले थे। पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता अमर सिंह को लोग लाटा बुढा के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया।
स्लागिंटवाइट बंधुओं के साथ अभियान (1855-1857)
नैन सिंह रावत |
हम्बॉल्ट जो उस समय के जाने-माने जर्मन भूगोलवेत्ता, प्रकृतिवादी और खोजकर्ता थे, ने दो जर्मन वैज्ञानिकों स्लांगित्वाई बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट को सर्वे आॅफ इंडिया के आॅफिस में तिब्बत सर्वेक्षण में मदद की प्रार्थना के लिए भेजा। अंग्रेजों ने बेमन से उनको अनुमति दे दी। दोनो जर्मन तिब्बत सीमा के जोहर घाटी आये और वहां उनकी मुलाकात देव सिंह रावत से हुई। देव सिंह की सलाह पर परिवार के तीन सदस्यों को मिशन के लिए चुना गया उसमें नैन सिंह रावत(Nain Singh Rawat) भी शामिल थे। नैन सिंह दो साल तक इस कार्य में जुड़े रहे और इस दौरान उन्होंने मानसरोवर और राक्षस ताल झीलों के अलावा पश्चिम तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेह-ल्हासा तक की यात्रायें की थी।
शिक्षक के पद पर (1858-1863)
वहां से लौटने के बाद नैन सिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक के रूप पर कार्य करने लगे। बाद में हेडमास्टर के पद पर उनकी पदोन्नती हई। उनके नाम के साथ अब पंडित पंडित शब्द जुड़ गया क्योंकि उस समय शिक्षक अथवा ज्ञानी लोगों को पंडित कहने का रिवाज था।
ग्रेट त्रिकोणमितीय सर्वे (1863-1875)
पंडित नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टन थॉमस जार्ज ने जी. टी. एस. के तहत मध्य एशिया की जानकारी के लिए चयनित किया था। उनका वेतन मात्र 20 रुपये प्रतिमाह था। इन दोनों भाईयों को देहरादून स्थित सर्वे कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण दिया गया था। बाद मे उनको दिया गया इसी तरह का प्रशिक्षण हर सर्वेयर के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
उन्हें एक निश्चित गति से चलना सिखाया गया जिससे उनका हर कदम एक निश्चित 33 इचं की दूरी ही तय करे। कदमों की संख्या गिनने के लिए उन्हें 100 मोतियों वाली माला दी गई थी। एक माला खत्म होने का मलतब था कि वे कुल 10,000 कदम चले होंगें यानी उनके द्वारा एक माला में 5-मील की दूरी तय होगी।
धार्मिक सैलानी के भेष में नैन सिंह के बोरी-बिस्तर में कई यंत्र छिपे थे। चाय का मग दो तली था, जिसमें नीचे वाले हिस्से को पारे से भरा गया था इसके द्वारा जिससे क्षेतिज ढूंढंने में मदद मिलती थी। उसकी छडी़ में एक थर्मामीटर छिपा कर रखा गया था जो कि ऊँचाई मापने मे मददगार होता है। पर सबसे महत्वपूर्ण चीज नैन सिहं की प्राथर्ना-चक्र था, सामान्यतः प्रार्थना-चक्र में कागजों पर लिखे मंत्र भरे होते हैं परंतु नैन सिंह का जो विशेष प्रार्थना-चक्र था उसमे यात्रा की जानकारी इकट्ठी की जानी थी जैसे कि दूरियों, नक्शों, उंचाईयों आदि का आंकड़ा। इन दोनों भाईयों के कोड नाम भी रखे गये जैसे नैन सिंह के लिए चीफ पंडित और उनके चचेरे भाई के लिए सेकंड पंडित। यह विशेष नाम सर्वे करने वालों पर सदा के लिए चिपक गए और बाद में सभी सर्वेयर ‘पंडित’ के नाम से पुकारे जाने लगे।
1865 में दोनों भाईयों ने अपना पहला अभियान शुरु किया। वे जानते थे पकड़े जाने पर उनको चीन मे मौत की सजा मिल सकती है क्योंकि उस समय वहां के राजा ने जासूसी पर मौत की सजा निर्धारित की थी। इसलिए उनके लिए बेहद सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक था। अतः तिब्बती बार्डर पार करते वक्त उन्हें अपना भेष बदल लिया। नेपाल पहुंचने पर दोनो भाई अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। नैन सिंह ल्हासा जाने के लिए तिब्बत के बार्डर की ओर बढ़ा। एक व्यापारियों के दल में मिल कर उसने तिब्बत में प्रवेश किया। रास्ते में व्यापारियों ने उसे धोखा दिया और उसके सारे पैसे लूट लिए पर उनके उपकरण बच गये क्योंकि वह सब विशेष तरीके से छुपा कर रखे गये थे।नैन सिंह के पास अब खर्चा चलाने के लिए भी पैसे नहीं थे। स्थिति बहुत विकट हो गयी थी। लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी और यात्रा को जारी रखने का फैसला किया। खाने-पीने के लिए वह राहगीरों से भीख मांगते और जहां जगह मिलती सो जाते। जनवरी 1866 में वे ल्हासा पहुंचे। वे एक धर्मशाला में कई हफ्ते ठहरे। वहां उन्होने उस क्षेत्र की विभिन्न भौगोलिक व पर्यावणीय जानकारियाँ इकट्ठी की।
ल्हासा में दो कश्मीरी व्यापारियों को उनकी असली पहचान उजागर हो गयी थी पर उन्होने अधिकारियों से नैन सिंह की शिकायत नहीं की बल्कि उसकी घड़ी के बदले कुछ रकम उधार दिये। पर अब नैन सिंह समझ चुके थे कि उनका ल्हासा में ज्यादा रुकना ठीक नहीं है। उन्होने अपने सारे उपकरण इकट्ठे किये और एक कारवां में शामिल होकर वापस भारत लौट आये। 27 अक्टूबर 1866 को वे सर्वे के देहरादून स्थित मुख्यालय में पहुंचे और यात्रा की पूरी जानकारी दी।
बाद में नैन सिंह ने दो और यात्राएं की। 1867 की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान उसने पश्चिमी तिब्बत का दौरा किया और वहां स्थित प्रख्यात ठोक-जालुंग सोने की खदानों को देखा। वहां के मजदूर केवल सतह को ही खोद रहे थे। उनका मानना था कि गहरी खुदाई करना पृथ्वी के खिलाफ एक अन्याय होगा और उससे पृथ्वी की उर्वरता कम हो जायेगी। वहां उन्होने देखा कि सोना इतना कम मात्रा में प्राप्त होता था कि उसे निकालने वालों से अधिक धनी तो भेड़ चराने वाले थे।
1873-75 के बीच नैन सिंह ने कश्मीर में लेह से ल्हासा की यात्रा की। पिछली बार वो सांगपो नदी के किनारे गये थे इसलिए इस बार उन्होने उत्तर का रास्ता चुना।
अतुलनिय उपलब्धियां (Incredible achievements)
अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा। अब तक उन्होंने कुल 16000 मील की कठिन यात्रा की थी और अपने यात्रा क्षेत्र का नक्शा बनाया था। उनकी आंखें बहुत कमजोर हो गयीं। उसके बाद भी वो कई सालों तक अन्य लोगों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाता रहा।नैन सिंह के काम की ख्याति अब दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उन्होंने ग्रेट हिमालय से परे कम जानकारी वाले प्रदेशों मध्य एशिया और तिब्बत की जानकारी दुनिया के सामने रखी थी। इन क्षेत्रों के भूगोल के बारे में उनकी एकत्र वैज्ञानिक जानकारी मध्य एशिया के मानचित्रण में एक प्रमुख सहायक साबित हुई। सिंधु, सतलुज और सांगपो नदी के उद्गम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति के बारे में विश्व को उन्होने ही अवगत कराया था। उन्होने ही पहली बार यह पता किया कि चीन की सांगपो नदी और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी वास्तव में एक ही नदी हैं।1876 में नैन सिंह की उपलब्धियों के बारे में ज्योग्राफिकल मैगजीन में एक लेख लिखा गया। सेवानिवृत्ति के बाद भारत सरकार ने नैन सिंह को बख्शीश में एक गांव और एक हजार रुपए का इनाम दिया। 1868 में राॅयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोनेे की घडी़ पुरस्कार में दी। 1877 में इसी संस्था ने नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मैडल से भी सम्मानित किया। मेडल से सम्मानित करते हुए कर्नल यूल के कहे ये शब्द नैन सिंह की सम्पूर्ण संर्घष गाथा बता देती है।
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