"म्यारु उत्तराखंड" - हमारी मातृभूमि की पुकार - "Myaru Uttarakhand" - the call of our motherland

"म्यारु उत्तराखंड" - हमारी मातृभूमि की पुकार

प्रस्तावना
"म्यारु उत्तराखंड" एक गहरी भावनाओं से भरी कविता है, जो हमें हमारी मातृभूमि की याद दिलाती है। यह कविता उत्तराखंड के पहाड़ों, संस्कृति, भाषा और लोक जीवन को बयां करती है। यहाँ हम इस कविता के भावार्थ और उत्तराखंड की संस्कृति के महत्व पर चर्चा करेंगे।


कविता: म्यारु उत्तराखंड

भावार्थ:
यह कविता उत्तराखंड की मिट्टी से जुड़ी एक गहरी सच्चाई को व्यक्त करती है। यह बताती है कि कैसे लोग अपने गढ़ और परंपराओं को छोड़कर अन्य स्थानों पर बस जाते हैं, जबकि वे अपनी मातृभूमि को भूल जाते हैं। कवि ने विभिन्न भावनाओं को बखूबी चित्रित किया है, जैसे कि माँ की याद, भाषा का पतन, और लोक संगीत की उपेक्षा।


कविता के अंश:

देखि की पहाडूं यूँ , कन मन खुदै गै
माँ थे अपड़ी भूली गयेनी , ढूध पिये कै
अरे माँ थे अपड़ी भूली गयेनी ,दूध पिये कै

बाँजी छीन सगोड़ी ,सयारा रगड़ बणी गयें
परदेशूं मा बस गईनी , अपणु गढ़ देश छोड़ी कै
माँ थे अपड़ी भूल गयीं , ढूध प्येई कै
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध प्येई कै

रूणा छीं पुन्गडा ,खिल्याण छैल्यी गेई
रोलूउं मा रुमुक पोडी , ग्युइर्र हर्ची गयें,
माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई की
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई की

पंदेरा - गदेरा भी सुक्की गयेनी ,अब रौई रौई कै
अरे ढंडयालू भी बौऊलै गेई , धेई लगयी लगयी कै
माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै

बोली भाषा जल्याई याल , अंगरेजी फुकी कै
अरे गौं कु पता लापता ह्वै,कुजाअणि कब भट्टे
माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै

ढोल - दमोऊ फुट गयीं ,म्यूजिक पोप सुनिके
गैथा की रोट्टी भूली ग्योऊ , डोसा पिज्जा खाई कै
माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै

रुन्णु च केदार खंड ,खंड मानस बोल्याई गेई
अखंड छो जू रिश्ता , किलाई आज खंड खंड होए गयी
माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै
अरे माँ थे अपड़ी भूल गयीं ,ढूध पयेई कै

रूणा छीं शहीद ,शहीद "बाबा उत्तराखंडी " होए गेई
नाम धरयुं च उत्तराँचल ,कख म्यारु "उत्तराखंड " खोयेगे
माँ थे अपड़ी भूल गयौं ,किले तुम दूध पीयें कै
माँ थे अपड़ी भूल गयौं ,किले तुम ढूध पीयें कै
माँ थे अपड़ी भूल गयौं ,किले तुम ढूध पीयें कै

"देव भूमि उत्तराखंड का अमर सपूतों थेय सादर समर्पित"


उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर

इस कविता में कवि ने उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को छुआ है। विभिन्न चित्रण जैसे कि दूध, पहाड़, और पारंपरिक संगीत हमें याद दिलाते हैं कि हमारी जड़ों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण है। यह कविता हमें यह समझाती है कि आज की आधुनिकता में हमारी पहचान, हमारी भाषा और हमारी परंपराएँ कहीं खोती जा रही हैं।

निष्कर्ष

"म्यारु उत्तराखंड" एक महत्वपूर्ण कविता है, जो हमें हमारी मातृभूमि की याद दिलाती है। यह हमें प्रेरित करती है कि हम अपनी संस्कृति और परंपराओं को संजोकर रखें। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी अगली पीढ़ी भी उत्तराखंड की विरासत को जानें और समझें।

आपके विचार:
क्या आप इस कविता से सहमत हैं? आपके मन में क्या विचार हैं? हमें बताएं कि "म्यारु उत्तराखंड" आपके लिए क्या मायने रखती है!

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