गोपाल बाबू गोस्वामी: उत्तराखंड के अमर लोकगायक - Gopal Babu Goswami: The immortal folk singer of Uttarakhand

गोपाल बाबू गोस्वामी: उत्तराखंड के अमर लोक गायक

प्रसन्नचित्त डेस्क, हल्द्वानी।

जब भी हम उत्तराखंड के लोकसंगीत की बात करते हैं, तो कुछ सदाबहार गीतों की धुनें तुरंत हमारे कानों में गूंज उठती हैं – ‘कैले बाजे मुरली’, ‘बेड़ू पाको बारमासा’, और ‘हाय तेरी रूमाला, गुलाब मुखड़ी’। ये गीत भले ही आपको पहाड़ों से दूर, किसी शहर में सुनाई दें, लेकिन ये गीत मन में पहाड़ी माटी की सुगंध और वहां के जीवन की जीवंत तस्वीर खींच देते हैं। इन गीतों को अपने मधुर स्वर में जन-जन तक पहुंचाने वाले महान लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी थे, जिन्हें आज भी उत्तराखंड का हर संगीत प्रेमी याद करता है।

प्रारंभिक जीवन और संघर्ष

गोपाल बाबू गोस्वामी का जन्म 2 फरवरी 1941 को अल्मोड़ा जिले के चौखुटिया तहसील के छोटे से गांव चांदीखेत में हुआ था। उस समय देश में ब्रिटिश हुकूमत का दौर था, और गांव में गरीबी का बोलबाला था। गोपाल बाबू ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा चौखुटिया के सरकारी स्कूल से प्राप्त की, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति के चलते उन्हें पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसके बाद, परिवार की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए वे दिल्ली चले गए, जहां उन्होंने नौकरी की तलाश शुरू की। ट्रक ड्राइवर से लेकर छोटे-मोटे कई काम किए, लेकिन उनका मन हमेशा गीत-संगीत की ओर खिंचा रहता था।

संगीत का सफर और प्रसिद्धि

गोपाल बाबू का संगीत सफर मेले और उत्सवों से शुरू हुआ। उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर होने वाले मेलों में वे गीत गाते थे। अल्मोड़ा के नंदादेवी मेले में उनकी मुलाकात कुमाऊं संगीत के बड़े पारखी ब्रजेंद्रलाल साह से हुई, जिन्होंने गोपाल बाबू की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें प्रसिद्ध गीतकार गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ के पास भेज दिया। गिर्दा ने गोपाल बाबू की प्रतिभा को निखारते हुए उन्हें नैनीताल के सांग एंड ड्रामा डिविजन में कलाकार के रूप में नियुक्त करवाया।

यहां पर गोपाल बाबू का पहला गीत ‘कैले बाजे मुरली, बैंणा, ऊंची-ऊंची ड्यान्यू मां’ रिकॉर्ड किया गया, जो प्रेमिका के विरह को दर्शाने वाला एक बेहद सुंदर गीत था। इस गीत ने उन्हें रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद गोपाल बाबू ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 55 वर्षों के अपने संगीत सफर में उन्होंने 550 से अधिक गीतों को अपनी आवाज दी, जिनमें से अधिकांश गीत आज भी सदाबहार हैं।

गोपाल बाबू गोस्वामी का कार्यक्षेत्र

1970 में, उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाट्य प्रभाग की एक टीम अल्मोड़ा के चखुटिया तहसील में एक कार्यक्रम के लिए आई थी। उनकी प्रतिभा ने इस टीम के सदस्यों को इतना प्रभावित किया कि उन्हें नैनीताल के गीत-संगीत प्रभाग में भर्ती होने का सुझाव मिला।

1971 में, गोस्वामी जी को नैनीताल में गीत संगीत नाट्य प्रभाग में नियुक्ति मिल गई, जहाँ से उनके जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। इसके बाद उन्होंने कुमाऊनी गीतों को मंच पर गाना शुरू किया और धीरे-धीरे कुमाऊनी लोकगीतों में अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी आवाज़ का जादू लोगों के दिलों में बस गया, और इस दौरान उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ से भी अपने गीतों को स्वर देना शुरू किया।

उनका पहला गीत "कैले बाजे मुरली" आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हुआ, जिसने उन्हें घर-घर में प्रसिद्ध कर दिया। 1976 में HMV कंपनी ने उनका पहला कैसेट जारी किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ।

प्रमुख गीत और रचनाएँ

गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत उत्तराखंड की प्रकृति, नारी सौंदर्य, विरह और प्रेम को अपने में समेटे हुए हैं। उनके अधिकांश गीत खुद के लिखे हुए होते थे, जो श्रोताओं के दिलों को छू जाते थे। उनके प्रमुख गीतों में शामिल हैं:

  • कैले बाजे मुरली ओ बैणा
  • बेडू पाको बारामासा
  • हिमाला को
  • भुर भुरू उज्याव हैगो
  • मी बरमचारी छुं
  • जा चेली जा सौरास
  • छैला वे मेरी छबीली
  • घुघूती ना बासा
  • हाई तेरो रुमाला
  • रुपसा रमोति घुँगुर न बजा छम
  • गोपुली
  • राजुला मालूशाही
  • जय मैया दुर्गा भवानी

इनके गीतों में न सिर्फ उत्तराखंड की माटी की महक है, बल्कि वह सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश को भी संजोए हुए हैं। उनके द्वारा रचित राजुला मालूशाही, हरू हीत, और रामी बौराणी जैसी लोकगाथाएं भी बेहद प्रसिद्ध हुईं।

लोकगीतों में छिपी माटी की खुशबू

गोपाल बाबू के गीतों में उत्तराखंड की मिट्टी की खुशबू बसी हुई थी। उनके गीतों ने कुमाऊं और गढ़वाल की एकता का संदेश भी दिया। उन्होंने गढ़वाल की प्रसिद्ध लोकगाथा ‘रामी बौराणी’ को भी अपनी आवाज दी थी। ‘हाय तेरी रूमाला’ जैसे गीतों में उन्होंने नारी सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया, जबकि ‘अल्बेर बिखौती में म्यर दुर्गा हरा गे’ जैसे गीतों में पति-पत्नी के बीच के रिश्ते और पति का विरह का मार्मिक चित्रण किया।

गोपाल बाबू के गीतों में न केवल मानव संबंधों का बखूबी चित्रण था, बल्कि प्रकृति का भी अद्भुत वर्णन था। ‘काली गंगा को कालो पाणी’ जैसे गीतों में उन्होंने पिथौरागढ़ की काली गंगा नदी के काले पानी का वर्णन किया, जो मन को सुकून पहुंचाता है। उनके गीतों और भजनों में उत्तराखंड के तमाम शक्तिपीठों का भी उल्लेख मिलता है।

संगीत जगत में योगदान

गोपाल बाबू गोस्वामी की मधुर आवाज ने उत्तराखंड के संगीत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उन्होंने न केवल पारंपरिक लोकगीतों को जीवित रखा, बल्कि उन्हें नई पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य भी किया। उनके गीत आज भी उत्तराखंड के हर गांव और हर घर में सुने जाते हैं। ‘बेड़ू पाको बारमासा’ और ‘घुघुती न बासा’ जैसे गीत तो उत्तराखंड की पहचान बन गए हैं।

समाप्ति और स्मृति

1990 के दशक की शुरुआत में गोपाल बाबू को ब्रेन ट्यूमर हो गया। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में उनका इलाज चला, लेकिन वे पूरी तरह ठीक नहीं हो सके। 26 नवंबर 1996 को इस महान लोकगायक का निधन हो गया। हालांकि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया, लेकिन उनकी आवाज आज भी उत्तराखंड की वादियों में गूंजती है।

गोपाल बाबू के कुछ अमर गीत:

  • कैले बाजे मुरली
  • बेड़ू पाको बारमासा
  • हाय तेरी रुमाला
  • घुघुती न बासा
  • हिमाला को ऊँचा डाना
  • काली गंगा को कालो पाणी

गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज और उनके गीत हमेशा के लिए उत्तराखंड के संगीत प्रेमियों के दिलों में अमर रहेंगे। उनके गीतों ने उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को विश्व पटल पर पहुंचाया, और आज भी वे संगीत प्रेमियों के दिलों में जिंदा हैं

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