गोपाल बाबू गोस्वामी: कुमाऊंनी संगीत का अनमोल रत्न - Gopal Babu Goswami: The Precious Gem of Kumaoni Music

गोपाल बाबू गोस्वामी: कुमाऊंनी संगीत का अनमोल रत्न

जन्म और प्रारंभिक जीवन
हिमालय के सुर सम्राट, स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी का जन्म 2 फरवरी 1941 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के पाली पछांऊं क्षेत्र के मल्ला गेवाड़, चौखुटिया तहसील स्थित चांदीखेत नामक गांव में हुआ था। उनके माता-पिता मोहन गिरी और चनुली देवी थे। गोपाल बाबू ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा चौखुटिया के सरकारी स्कूल से प्राप्त की, लेकिन पिता के देहांत के बाद उन्हें शिक्षा छोड़कर नौकरी की तलाश में दिल्ली जाना पड़ा।

नौकरी और संघर्ष
दिल्ली में गोस्वामी जी ने एक प्राइवेट नौकरी की, लेकिन स्थाई नौकरी की कमी के चलते उन्हें वापस अपने गांव लौटना पड़ा, जहां उन्होंने खेती के कार्यों में हाथ बंटाया। हालांकि, यह संघर्ष उनके भीतर के कलाकार को दबा नहीं सका।

संगीत की दुनिया में आगमन
गोपाल बाबू के जीवन में 1970 एक महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया, जब उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाटक प्रभाग का एक दल चौखुटिया पहुंचा। इस दल के माध्यम से उनका संगीत की दुनिया से परिचय हुआ और 1971 में उन्हें गीत और नाटक प्रभाग में नियुक्ति मिल गई।

प्रभाग में काम करते हुए उन्होंने कुमाऊंनी गीत गाने शुरू किए और जल्द ही अपनी मधुर आवाज के दम पर चर्चित हो गए। आकाशवाणी लखनऊ में अपनी स्वर परीक्षा देने के बाद उनका पहला गीत "कैलै बजै मुरूली ओ बैणा" आकाशवाणी नजीबाबाद और अल्मोड़ा से प्रसारित हुआ, जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ।

लोकप्रियता और योगदान
1976 में उनका पहला कैसेट एच.एम.वी. द्वारा बनाया गया, जिसमें उनके प्रसिद्ध गीतों में से एक "हिमाला को ऊँचो डाना, प्यारो मेरो गाँव" था। इसके बाद उनके कई लोकप्रिय कुमाऊंनी गीत जैसे "बेड़ू पाको बारमासा", "घुगुती न बासा", "हाये तेरी रुमाला" ने उन्हें हर घर में लोकप्रिय बना दिया।

गोपाल बाबू ने न केवल कुमाऊंनी लोकगीतों को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया, बल्कि उन्होंने लोकगाथाओं जैसे मालूशाही और हरूहीत को भी संजोया। उनके गाए अधिकांश गीत स्वरचित थे, जो सामाजिक चेतना और पहाड़ों के जीवन को प्रदर्शित करते थे।

पुस्तकें और साहित्यिक योगदान
संगीत के अलावा गोपाल बाबू ने कुछ कुमाऊंनी और हिंदी पुस्तकें भी लिखीं। इनमें "गीत माला (कुमाऊंनी)", "दर्पण", "राष्ट्रज्योति (हिंदी)" और "उत्तराखंड" प्रमुख थीं। हालांकि, उनकी पुस्तक "उज्याव" प्रकाशित नहीं हो पाई।

अंतिम समय और मृत्यु
90 के दशक की शुरुआत में उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया था, जिसके इलाज के लिए वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) गए, लेकिन पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए। 26 नवम्बर 1996 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

लोकप्रिय गीत
गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत आज भी लोगों की जुबां पर रहते हैं। उनके कुछ प्रसिद्ध गीत हैं:

  • बेड़ू पाको बारमासा
  • घुगुती न बासा
  • कैलै बजै मुरूली
  • हाये तेरी रुमाला
  • हिमाला को ऊँचा डाना
  • भुर भुरु उज्याव हैगो

गोपाल बाबू गोस्वामी का कार्यक्षेत्र

1970 में, उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाट्य प्रभाग की एक टीम अल्मोड़ा के चखुटिया तहसील में एक कार्यक्रम के लिए आई थी। उनकी प्रतिभा ने इस टीम के सदस्यों को इतना प्रभावित किया कि उन्हें नैनीताल के गीत-संगीत प्रभाग में भर्ती होने का सुझाव मिला।

1971 में, गोस्वामी जी को नैनीताल में गीत संगीत नाट्य प्रभाग में नियुक्ति मिल गई, जहाँ से उनके जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। इसके बाद उन्होंने कुमाऊनी गीतों को मंच पर गाना शुरू किया और धीरे-धीरे कुमाऊनी लोकगीतों में अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी आवाज़ का जादू लोगों के दिलों में बस गया, और इस दौरान उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ से भी अपने गीतों को स्वर देना शुरू किया।

उनका पहला गीत "कैले बाजे मुरली" आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हुआ, जिसने उन्हें घर-घर में प्रसिद्ध कर दिया। 1976 में HMV कंपनी ने उनका पहला कैसेट जारी किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ।

प्रमुख गीत और रचनाएँ

गोपाल बाबू गोस्वामी के गीत उत्तराखंड की प्रकृति, नारी सौंदर्य, विरह और प्रेम को अपने में समेटे हुए हैं। उनके अधिकांश गीत खुद के लिखे हुए होते थे, जो श्रोताओं के दिलों को छू जाते थे। उनके प्रमुख गीतों में शामिल हैं:

  • कैले बाजे मुरली ओ बैणा
  • बेडू पाको बारामासा
  • हिमाला को
  • भुर भुरू उज्याव हैगो
  • मी बरमचारी छुं
  • जा चेली जा सौरास
  • छैला वे मेरी छबीली
  • घुघूती ना बासा
  • हाई तेरो रुमाला
  • रुपसा रमोति घुँगुर न बजा छम
  • गोपुली
  • राजुला मालूशाही
  • जय मैया दुर्गा भवानी

इनके गीतों में न सिर्फ उत्तराखंड की माटी की महक है, बल्कि वह सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश को भी संजोए हुए हैं। उनके द्वारा रचित राजुला मालूशाही, हरू हीत, और रामी बौराणी जैसी लोकगाथाएं भी बेहद प्रसिद्ध हुईं।

निष्कर्ष
गोपाल बाबू गोस्वामी ने कुमाऊंनी और गढ़वाली संगीत को नई दिशा दी और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उनके गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं थे, बल्कि वे पहाड़ों की सांस्कृतिक धरोहर और जीवनशैली का जीता-जागता उदाहरण थे। उनकी आवाज आज भी हर कुमाऊंनी और पहाड़ी के दिल में गूंजती है, और वे हमेशा संगीत प्रेमियों के दिलों में जिंदा रहेंगे।

श्रद्धांजलि
गोपाल बाबू गोस्वामी का योगदान केवल कुमाऊंनी संगीत तक सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने पहाड़ की संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों को सहेजने में भी एक अहम भूमिका निभाई। उनके गीत हमें हमारे सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ते हैं और उनके संगीत के सुर सदियों तक गूंजते रहेंगे।

“घुगुती न बासा, म्यारा पहाड़ की याद दिलाई छु”

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