1962 का भारत-चीन युद्ध और जसवंत सिंह रावत की वीरता - The 1962 India-China war and the bravery of Jaswant Singh Rawat.
आज भी जिंदा है 72 घंटे में 300 चीनियों को मौत के घाट उतारने वाला यह भारतीय 'रायफल मैन'
गुरु गोविंद सिंह पर कही गई ये बात भारतीय सेना के सबसे छोटे जवान ने भी आत्मसात कर रखी है। चीन भारतीय सेना के इस जज्बे को जानता है, शायद यही वजह है कि वह भारत की सीमा की तरफ कदम उठाने से पहले कांपने लगता है।
भारतीय सेना में एक नाम है जसवंत सिंह रावत। 1962 में चीन के साथ भारत की जंग में गुरु गोविंद सिंह के बारे में लिखी गई इन पंक्तियों को जसवंत सिंह ने साकार कर दिखाया था। इस जंग में उन्होंने ऐसी मिसाल पेश की कि 1962 से अब तक जसवंत सिंह को अपनी सेवा से रिटायर्ड ही नहीं किया गया है। हिंदुस्तानी फौज का यह राइफलमैन आज भी सरहद पर तैनात है। उनके नाम के आगे कभी स्वर्गीय नहीं लिखा जाता है। उन्हें आज भी बाकायदा पोस्ट और प्रमोशन दिया जाता है, यहां तक कि छुट्टियां भी।
इस असाधारण बहादूर जवान का मंदिर बनाया गया है। उनकी सेवा में भारतीय सेना के पांच जवान दिन-रात लगे रहते हैं। वे उनकी वर्दी को प्रेस करते हैं, जूते पॉलिश करते हैं और सुबह-शाम नाश्ता और खाना देने के साथ रात को सोने के लिए बिस्तर लगाते हैं।
चीन की सेना के खिलाफ जसवंत सिंह ने मोर्चा खोला था, वही चीनी सैनिक आज भी उनके सामने झुककर प्रणाम करते हैं।
1962 का भारत-चीन युद्ध और जसवंत सिंह रावत की वीरता
दरअसल, 1962 की जंग में महज 17-18 साल के जसवंत सिंह चीन के सामने हिमालय सा अडिग होकर 72 घंटों तक खड़े रहे। इस जंग में चीनी सेना अरुणाचल के सेला टॉप के रास्ते हिंदुस्तानी सरहद पर सुरंग बनाने की कोशिश कर रही थी। उसे गुमान था कि दूसरी तरफ भारतीय सैनिकों को मार गिराया गया है। तभी सामने के पांच बंकरों से आग और बारूद के ऐसे शोले निकले कि देखते ही देखते चीनी सेना के करीब 300 जवानों की लाशों के ढेर लग गए।
चीनी फौज के होश उड़ गए कि सामने हिंदुस्तान की कितनी बड़ी बटालियन तैनात है। 72 घंटों के बाद जब धमाकों की आवाजें बंद हुईं और चीनी सैनिक यह देखने के लिए आगे आए तो उनके हाथ पैर कांप रहे थे। उनके सामने घायल पड़े बस एक भारतीय फौजी ने 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। और वो थे गढ़वाल राइफल की डेल्टा कंपनी के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत।
बिना थके 72 घंटे तक मुकाबला
1962 का भारत-चीन युद्ध अंतिम चरण में था। 14,000 फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा युद्ध का मैदान बनी थी। इस इलाके में जाने से लोगों की रूह भी कांपती है लेकिन वहां हमारे सैनिक लड़ रहे थे। चीनी सैनिक भारत की जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार कर अरुणाचल प्रदेश के तवांग तक आ पहुंचे थे।
बीच लड़ाई में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए बटालियन को वापस बुला लिया गया। लेकिन जसवंत सिंह ने वहीं रहने और चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का फैसला किया। उन्होंने अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की दो लड़कियों नूरा और सेला की मदद से फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और टैंक रखे।
उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहे कि भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है। नूरा और सेला के साथ-साथ जसवंत सिंह तीनों जगह पर जा-जाकर हमला करते रहे। इस तरह वे 72 घंटे यानी तीन दिनों तक चीनी सैनिकों को चकमा देने में कामयाब रहे।
साहस की कहानी और उनकी अंतिम गोली
बाद में दुर्भाग्य से उन्हें राशन की आपूर्ति करने वाले शख्स को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया। उसने चीनी सैनिकों को जसवंत सिंह रावत के बारे में सारी बातें बता दीं। जिसके बाद चीनी सैनिकों ने 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेर लिया।
हमले में सेला मारी गई जबकि नूरा को चीनी सैनिकों ने जिंदा पकड़ लिया। जब जसवंत सिंह को अहसास हो गया कि उन्हें पकड़ लिया जाएगा तो उन्होंने युद्धबंदी बनने से बचने के लिए एक गोली खुद को मार ली।
चीनी सेना द्वारा सिर काटने और सम्मान
चीनी सेना का कमांडर जसवंत सिंह की तबाही से इतना नाराज था कि वह उनका सिर काटकर ले गया। लेकिन बाद में चीनी सेना भी जसवंत सिंह के पराक्रम से इतनी प्रभावित हुई कि युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। चीनी सेना ने उनकी पीतल की बनी प्रतिमा भी भेंट की।
जसवंत सिंह रावत की जिंदगी
जसवंत सिंह जब 17 साल की उम्र में पहली कोशिश में फौज में भर्ती नहीं हो पाए, तो लेकिन दूसरी बार में वे राइफलमैन बनकर सेना में भर्ती हुए।
जसवंत सिंह रावत उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के रहने वाले थे। उनका जन्म 19 अगस्त, 1941 को हुआ था। उनके पिता गुमन सिंह रावत थे। जिस समय शहीद हुए उस समय वह राइफलमैन के पद पर थे और गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेवारत थे।
जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और भारतीय सेना बाबा जसवंत सिंह रावत कहती है।
निष्कर्ष
जसवंत सिंह रावत की वीरता और साहस भारतीय सेना के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहेगा। उनका नाम हमेशा याद किया जाएगा और उनकी असाधारण बहादुरी का इतिहास कभी मिटने वाला नहीं है।
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