गिरीश तिवारी "गिर्दा": उत्तराखंड की सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर (Girish Tiwari 'Girda': Uttarakhand's cultural and literary heritage)

गिरीश तिवारी "गिर्दा": उत्तराखंड की सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर

जन्म: 10 सितंबर 1945
निधन: 22 अगस्त 2010
जन्म स्थान: ज्योली गाँव, हवालबाग, अल्मोड़ा, उत्तराखंड

गिरीश तिवारी "गिर्दा" उत्तराखंड के एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, जैविक संस्कृतिविद्, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनकी पहचान न केवल उनकी रचनात्मकता बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना को जागृत करने के उनके अथक प्रयासों से भी होती है।


प्रारंभिक जीवन

गिर्दा का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के ज्योली गाँव में हुआ। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा के राजकीय इंटर कॉलेज में प्राप्त की और बाद में नैनीताल में पढ़ाई की। उनका रचनात्मक सफर तब शुरू हुआ, जब वे प्रसिद्ध गीतकार और लेखक बृजेंद्र लाल साह से मिले। इससे उन्हें अपनी साहित्यिक क्षमता का एहसास हुआ।

21 वर्ष की उम्र में गिर्दा ने लखीमपुर खीरी में सामाजिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। इन मुलाकातों ने उनके जीवन को एक नई दिशा दी। वे प्रसिद्ध चिपको आंदोलन और उत्तराखंड राज्य आंदोलन से जुड़े, जहाँ उन्होंने अपनी रचनात्मकता और सामाजिक चेतना का भरपूर उपयोग किया।


आजीविका और रचनात्मक सफर

गिर्दा ने अपने जीवन में कई उल्लेखनीय नाटक लिखे और निर्देशित किए। इनमें शामिल हैं:

  • अंधा युग
  • अंधेर नगरी
  • थैंक यू मिस्टर ग्लैड
  • भारत दुर्दशा

उन्होंने "नागारे खामोश हैं" और "धनुष यज्ञ" जैसे प्रसिद्ध नाटक भी लिखे। गिर्दा ने 1969 में "शिखरों के स्वर" का संपादन किया और बाद में हमारी कविता के अंकर और रंग डारी दियो अलबेलिन मैं जैसे काव्य-संग्रहों को प्रकाशित किया।

उनकी रचनाएँ उत्तराखंड आंदोलन और हिमालयी संस्कृति के प्रति समर्पित रही हैं। उनके गीत और कविताएँ उत्तराखंड की समस्याओं और संभावनाओं को मुखरता से प्रस्तुत करती हैं।


उत्तराखंड आंदोलन और गिर्दा का योगदान

गिर्दा ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गीत एवं नाटक प्रभाग में प्रशिक्षक के रूप में काम किया। लेकिन उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर खुद को पूरी तरह से उत्तराखंड आंदोलन और रचनात्मक लेखन के लिए समर्पित कर दिया।

वह नैनीताल स्थित संगठन पहाड़ के संस्थापकों में से एक थे। यह संगठन हिमालयी संस्कृति, पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों को बढ़ावा देने के लिए समर्पित था।


लोकगीत और सांस्कृतिक धरोहर

गिर्दा उत्तराखंड के लोकगीतों और पारंपरिक धुनों को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने लोकगीत बेडु पाको बारामासा को अपनी मौलिक आवाज़ और अंदाज में गाया, जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक बन गया। उनकी कविताएँ और गीत आज भी उत्तराखंड के सांस्कृतिक आंदोलन में एक प्रेरणा स्रोत हैं।


निधन और स्मृति

22 अगस्त 2010 को गिरीश तिवारी "गिर्दा" का निधन हो गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी हेमलता तिवारी और एक बेटा हैं। उनकी मृत्यु के साथ ही उत्तराखंड ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल रत्न खो दिया।


गिर्दा की विरासत

गिरीश तिवारी "गिर्दा" उत्तराखंड के साहित्य और संस्कृति के ऐसे अभिन्न अंग हैं, जो हमेशा याद किए जाएंगे। उनकी रचनाएँ, विचार और आंदोलन के प्रति उनका समर्पण आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

“गिर्दा सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं, जो उत्तराखंड की आत्मा में रची-बसी है।”

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