फूलदेई पर्व: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर (Phuldei Festival: Cultural Heritage of Uttarakhand)

फूलदेई पर्व: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर

फूलदेई उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों का एक प्रमुख लोकपर्व है, जो चैत्र मास के आरंभ में मनाया जाता है। यह पर्व न केवल प्रकृति की सुंदरता को दर्शाता है, बल्कि हमारे पारंपरिक रीति-रिवाजों, लोकगीतों और परंपराओं का प्रतीक भी है। फूलदेई पर्व में प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने के साथ ही समाज और परिवार में खुशहाली की कामना की जाती है।


फूलदेई पर्व की पौराणिक कथा

फूलदेई पर्व के पीछे एक भावुक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि एक राजकुमारी का विवाह काले पहाड़ों के पार हुआ था। मायके की याद में तड़पती वह राजकुमारी अपनी सास से मायके जाने की प्रार्थना करती रही, लेकिन उसकी सास ने उसे मायके नहीं जाने दिया। मायके की याद में तड़पते हुए राजकुमारी की मृत्यु हो गई।

राजकुमारी को उसके मायके के पास दफनाया गया, और कुछ समय बाद वहां एक सुंदर पीले रंग का फूल खिला जिसे "फ्योंली" कहा गया। उसी राजकुमारी की स्मृति में फूलदेई पर्व मनाया जाने लगा। यह पर्व उत्तराखंड के लोकजीवन और परंपराओं का अभिन्न हिस्सा बन गया है।


पर्व का सांस्कृतिक महत्व

फूलदेई केवल प्रकृति और खुशहाली का त्यौहार नहीं है, बल्कि यह मायके से जुड़ी भावनाओं और महिलाओं की सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतीक भी है। इस पर्व पर शादीशुदा महिलाओं की मायके से जुड़ी परंपरा "लगमानी" भी प्रचलित थी।

लगमानी परंपरा:
शादीशुदा लड़कियों के मायके से उनके औजी (ढोल वादक) ससुराल में जाते थे। वे ढोल-दमाऊ बजाकर उनके मायके की खुशहाली के गीत गाते और संदेश लाते थे। बदले में, महिला और उसके ससुराल वाले उन्हें सम्मान और उपहार के साथ विदा करते थे।


फूलदेई पर्व के लोकगीत

फूलदेई पर्व पर गाए जाने वाले गीतों में पहाड़ की संस्कृति और प्रकृति की झलक मिलती है। ये गीत फूलों के महत्व और उनके जरिए ईश्वर से खुशहाली की प्रार्थना का प्रतीक हैं।

उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल में फुलारी गीत

फुलारी गीत उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा है। यह गीत बच्चों द्वारा फूलदेई पर्व के दौरान गाया जाता है, जो राज्य के पारंपरिक त्योहारों में से एक है। यह गीत घर की खुशहाली और सुख-समृद्धि की कामना करते हुए गाया जाता है।

गीत के बोल (गढ़वाली/कुमाऊंनी)

चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला

हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि फ्योंली लयड़ी
मैं घौर छोड्यावा
हे जी घर बौण बौड़ीगे ह्वोलु बालू बसंत
मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि

चला फुलारी फूलों को
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लायाँ

ना उनु धरम्यालु आगास
ना उनि मयालू यखै धरती
अजाण औंखा छिन पैंडा
मनखी अणमील चौतर्फी
छि भै ये निरभै परदेस मा तुम रौणा त रा
मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूलीगे ह्वोलि

फुल फुलदेई दाल चौंल दे
घोघा देवा फ्योंल्या फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजली
गुड़ परसाद दै दूध भत्यूल

अयूं होलू फुलार हमारा सैंत्यां आर चोलों मा
होला चैती पसरू मांगणा औजी खोला खोलो मा
ढक्यां द्वार मोर देखिकी फुलारी खौल्यां होला


हिंदी अनुवाद

चलो फुलारियो! फूलों के लिए
ताज़े-ताज़े फूल चुन लें

हे जी! खेतों में खिल गयी होंगी फ्योंली की लड़ियाँ
मुझे घर छोड़ आओ
हे जी! घर और वन में लौट आया होगा बालू बसंत
मुझे घर छोड़ आओ

भौंरों के झूठे फूल ना तोड़ना
मधुमक्खियों के झूठे फूल ना लाना

यहाँ का आकाश उतना निर्मल नहीं
यहाँ की धरती उतनी स्नेहिल नहीं
चारों ओर अजनबी और विपरीत लोग हैं
छिः, इस अभागे परदेश में रहना है तो रहो
मुझे घर छोड़ आओ

फूलदेई! दाल-चावल दो
घोघा देवता, फ्योंली के फूल
घोघा फूलदेई की डोली सजेगी
गुड़ का प्रसाद, दही और दूध-भात का नैवेद्य


सांस्कृतिक महत्व

यह गीत फूलदेई त्योहार की पृष्ठभूमि में गाया जाता है। फूलदेई में बच्चे घर-घर जाकर फ्योंली और अन्य फूल चढ़ाते हैं और घर की समृद्धि की कामना करते हैं। गीत में प्रकृति के सौंदर्य, लोक भावनाओं और पारंपरिक मान्यताओं का जीवंत वर्णन है।

फूलदेई पर्व और यह गीत मिलकर उत्तराखंड की सांस्कृतिक विविधता और प्रकृति से जुड़ाव को दर्शाते हैं। यह गीत बच्चों के बीच लोक संस्कृति के बीज बोने का कार्य करता है।

फूलदेई पर्व का उत्सव

श्रीनगर गढ़वाल जैसे स्थानों में यह पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यहां स्थानीय लोग और सामाजिक संगठन मिलकर फूलदेई के माध्यम से अपने लोक त्योहारों को संरक्षित करते हैं।

एक उदाहरण के रूप में, गढ़वाल विश्वविद्यालय में फूलदेई पर्व मनाने की परंपरा शुरू की गई थी। छात्रों और शिक्षकों ने मिलकर इस परंपरा को जीवित रखने के लिए प्रयास किए।


पलायन का प्रभाव

दुर्भाग्यवश, उत्तराखंड के गांवों से तेजी से हो रहे पलायन के कारण फूलदेई पर्व अब विलुप्त होने की कगार पर है। गांवों में बच्चों की कमी के चलते यह त्योहार पहले जैसी धूमधाम से नहीं मनाया जाता।


आधुनिक प्रयास और जागरूकता

आज मुख्यमंत्री आवास से लेकर विभिन्न सामाजिक संगठनों तक, फूलदेई को फिर से लोकप्रिय बनाने के प्रयास हो रहे हैं। यह त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, जिसे सहेजना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना हमारा कर्तव्य है।


आप सभी को फूलदेई पर्व की शुभकामनाएं!

उत्तराखंड के इस प्रकृति पर्व को अपने परिवार और बच्चों के साथ मनाएं। अपने रीति-रिवाजों, भाषा और संस्कृति को सहेजें। माता वसुंधरा और भगवान बदरी-केदार की कृपा आप पर बनी रहे।

जय देवभूमि उत्तराखंड!

फूलदेई पर्व से जुड़े सामान्य प्रश्न (FAQ)

  1. फूलदेई पर्व क्या है?

    • फूलदेई पर्व उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों का एक प्रमुख लोकपर्व है, जो चैत्र मास के आरंभ में मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान, बच्चे घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं और खुशहाली की कामना करते हैं।
  2. फूलदेई पर्व क्यों मनाया जाता है?

    • फूलदेई पर्व प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने और समाज और परिवार में खुशहाली की कामना करने के लिए मनाया जाता है। यह पर्व एक राजकुमारी की कहानी से जुड़ा है, जो अपनी सास से मायके जाने की इच्छा रखती थी और उसकी मृत्यु के बाद "फ्योंली" फूल की उत्पत्ति हुई।
  3. फूलदेई पर्व का सांस्कृतिक महत्व क्या है?

    • फूलदेई पर्व उत्तराखंड की संस्कृति, परंपराओं और लोकगीतों का प्रतीक है। यह पर्व शादीशुदा महिलाओं की मायके से जुड़ी "लगमानी" परंपरा का भी प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें महिलाएं अपने ससुराल में खुशहाली की कामना करने के लिए गीत गाती हैं।
  4. फूलदेई के दौरान कौन से गीत गाए जाते हैं?

    • फूलदेई पर्व के दौरान "फुलारी" और "घोघा" जैसे लोकगीत गाए जाते हैं, जो घर की खुशहाली और समृद्धि की कामना करते हैं। ये गीत उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं।
  5. फूलदेई पर्व के आयोजन में कौन-कौन भाग लेता है?

    • इस पर्व में मुख्य रूप से बच्चे भाग लेते हैं। वे घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं और समृद्धि की कामना करते हैं। साथ ही, महिलाएं भी इस पर्व को मनाने में सक्रिय रूप से शामिल होती हैं, विशेष रूप से "लगमानी" परंपरा में।
  6. क्या फूलदेई पर्व अब भी मनाया जाता है?

    • आधुनिक समय में, विशेष रूप से उत्तराखंड के गांवों में, पलायन और बच्चों की कमी के कारण फूलदेई पर्व पहले जैसी धूमधाम से नहीं मनाया जाता। हालांकि, विभिन्न सामाजिक संगठनों और सरकारी प्रयासों से इसे पुनः प्रचलित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
  7. फूलदेई पर्व का उत्सव कहां मनाया जाता है?

    • फूलदेई पर्व गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। श्रीनगर गढ़वाल और गढ़वाल विश्वविद्यालय जैसे स्थानों में इस पर्व को जीवित रखने के लिए विशेष प्रयास किए जाते हैं।
  8. फूलदेई पर्व में किस प्रकार के खाद्य पदार्थ वितरित किए जाते हैं?

    • इस पर्व के दौरान गुड़, दूध-भात, और प्रसाद के रूप में दही दिया जाता है। यह सब घर की समृद्धि और खुशहाली की कामना करते हुए वितरित किया जाता है।
  9. फूलदेई पर्व के आयोजन में बच्चों का क्या रोल है?

    • बच्चे इस पर्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। वे फूलों को चढ़ाते हैं और गाने गाते हैं, जो समृद्धि और खुशहाली की कामना करते हैं।
  10. फूलदेई पर्व की पौराणिक कथा क्या है?

    • फूलदेई पर्व की पौराणिक कथा एक राजकुमारी से जुड़ी है, जो अपनी सास से मायके जाने की प्रार्थना करती थी, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद वहां एक पीला फूल "फ्योंली" उगा। उसी राजकुमारी की स्मृति में यह पर्व मनाया जाने लगा।

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