राज राजेश्वरी, देवलगढ़ पौड़ी

राज राजेश्वरी, देवलगढ़ पौड़ी

राज-राजेश्वरी मन्दिर, देवलगढ़, पौड़ी ।  माँ गौरा देवी आपकी हर मनोकामनाओ को जरुर पूरी करेंगी और उम्मीद करते हैं कि कोरोना वाइरस के वैश्विक संकट की इस घड़ी में माँ राज राजेश्वरी लोगों की रक्षा करेंगी।
गौरतलब है कि राज राजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी। राज राजेश्वरी मन्दिर देवलगढ़ का सबसे अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मन्दिर है। इसका निर्माण १४वीं शताब्दी के राजा अजयपाल द्वारा ही करवाया गया था। गढ़वाली शैली में बने इस मन्दिर में तीन मंजिलें हैं । तीसरी मंजिल के दाहिने कक्ष में वास्तविक मंदिर है। यहां देवी की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमायें हैं। इनमें राज-राजेश्वरी कि स्वर्ण प्रतिमा सबसे सुन्दर है। इस मन्दिर में यन्त्र पूजा का विधान है। यहां कामख्या यन्त्र, महाकाली यन्त्र, बगलामुखी यन्त्र, महालक्ष्मी यन्त्र व श्रीयन्त्र की विधिवत पूजा होती है। संपूर्ण उत्तराखण्ड में उन्नत श्रीयन्त्र केवल इसी मन्दिर में स्थापित है।  

नवरात्रों में रात्रि के समय राजराजेश्वरी यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस सिद्धपीठ में अखण्ड ज्योति की परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है। अत: इसे जागृत शक्तिपीठ भी कहा जाता है। पौड़ी जनपद में पुरातात्विक दृष्टि से यह सबसे अवलोकनीय स्थान है। यहां पर कई मन्दिर समाधियां और द्वार हैं। इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कांगड़ा से आये राजा देवल ने करवाया था। इसके अलावा यहां नाथ सम्प्रदाय के लोगों की भी समाधियां भी हैं। जिन पर खुदे शिलालेख इनकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। इस दुर्लभ मन्दिर समूह को देखकर स्वत: प्रमाणित हो जाता है कि गढ़वाल के राजाओं के समय वास्तुकला, विशेष रूप से मन्दिरों की निर्माण कला अपने चरम उत्कर्ष पर थी। राजराजेश्वरी देवलगढ़ के मन्दिर परिसर में कई अन्य छोटे बड़े मन्दिर स्थित है। जय माँ राज राजेश्वरी की।


जय माँ राज राजेश्वरी 

राज राजेश्वरी, देवलगढ़ पौड़ी
उत्तराखंड के पौड़ी जिले में स्थित है और एक अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थल खिरसू से 15 किलोमीटर दूर स्थित है। इस शहर का नाम कांगड़ा के राजा देवल से पड़ा है जिसने इस शहर की स्थापना की थी। श्रीनगर से पहले, 16 वीं शताब्दी में अजय पाल के शासनकाल के दौरान देवलगढ़ गढ़वाल साम्राज्य की राजधानी था। अपने अतीत के अतीत के कारण, यह शहर अपने पूजनीय मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। विशेषकर राज राजेश्वरी मंदिर। जो अति सुंदर प्राचीन गढ़वाली वास्तुकला को दर्शाता है जो इस खूबसूरत शहर को सुशोभित करता है।देवलगढ़ का पहाड़ी शहर तब लोकप्रिय हुआ जब गढ़वाल राज्य के राजा अजय पाल ने अपनी राजधानी को चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ स्थानांतरित कर दिया। 1512-1517 तक श्रीनगर में स्थानांतरित होने से पहले यह गढ़वाल साम्राज्य की भागदौड़ वाली राजधानी बनी रही। उसके बाद भी, शाही दल देवगढ़ में अपनी गर्मी और श्रीनगर में सर्दियाँ बिताता था। ऐसा था देवलगढ़ शहर की खूबसूरती। वर्तमान में यहाँ कई ऐतिहासिक मंदिर हैं| जो देवलगढ़ की खूबसूरती में चार चाँद लगाता हैं |देवलगढ़ प्राचीन मंदिरों के समूह के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें मध्ययुगीन काल में बनाया गया माना जाता है। मंदिरों की वास्तुकला अति सुंदर गढ़वाली वास्तुकला से प्रभावित करती है। देवलगढ़ में कुछ प्रसिद्ध मंदिर हैं| राज-राजेश्वरी मंदिर देवलगढ़ में प्रसिद्ध तीर्थस्थल है जो बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है भक्त यहाँ  देवी से आशीर्वाद लेने के लिए आते हैं। 4,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित, मंदिर देवी राजेश्वरी को समर्पित है जो गढ़वाल राजाओं के स्थानीय देवता हैं। हर साल अप्रैल के महीने में मेला लगता है। धार्मिक महत्व के अलावा, मंदिर पुरातत्व दृष्टिकोण से भी एक सुप्रसिद्ध है। गौरा देवी मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है और माना जाता है कि इसे 7 वीं शताब्दी ईस्वी में बनाया गया था और इसे केदारनाथ और बद्रीनाथ के रूप में काफी पुराना माना जाता है।

राज राजेश्वरी, देवलगढ़ पौड़ी


 पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि मंदिर का निर्माण भगवान कुबेर ने किया था। फसल के मौसम के दौरान, एक बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। स्थानीय लोग ताज़े गेहूँ से बने रोटी को देवता को (सीख)प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। देवलगढ़ में अन्य महत्वपूर्ण स्थान लक्ष्मीनारायण मंदिर और सोम-की-डंडा (राजा का मचान) है। गौरा देवी (गैरजादेवी) मन्दिर प्रसिद्ध हैं |गौरा देवी (गैरजादेवी) मन्दिर की गणना प्राचीन सिद्धपीठों में की जाती है। सातवीं शताब्दी का बना यह पाषाण मन्दिर प्राचीन वास्तुकला का अतुलनीय उदाहरण है। राजराजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी इसलिये उनकी पूजा देवलगढ़ स्थित राजमहल के पूजागृह में होती थी। जनता के लिये एक और मन्दिर की आवश्यकता महसूस करते हुये गौरा मन्दिर का निर्माण कराया गया। निर्माण कार्य उपरान्त होने के पश्चात विषुवत संक्रान्ति (वैशाखी) को सुमाड़ीगांव से श्री राजीवलोचन काला जी की अगुवाई में देवलगढ़ मन्दिर में स्थापित किया गया। इस मन्दिर में शाक्त परंपरा प्रचलित रही है। यहां मुख्यरूप से भगवती गौरी व सिंह वाहिनी देवी कि प्रतिमा स्थापित हैं।

यहां से हिमालय का बड़ा मनोहारी दृश्य दिखाई देता है। यह स्थानीय निवासियों की कुलदेवी हैं तथा प्रतिवर्ष बैशाखी को यहां विशाल मेले का अयोजन होता है। दूर दूर से देवी के भक्त आकर यहां इसमें सम्मिलित होते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि कुबेर ने गौरा माता का आशिर्वाद प्राप्त कर इस मन्दिर का निर्माण कराया था। गढ़वाल के राजवशं की कुलदेवी राजराजेश्वरी और सत्यनाथ के लिये प्रसिद्ध देवलगढ़ 6 वर्ष तक गढ़वाल राज्य की राजधानी रह चुका है। जनश्रुति के अनुसार यहां देवल ऋषि का आश्रम हुआ करता था। बाद में गुरू गोरखनाथ के शिष्यों ने यहां सत्त्यनाथ की स्थापना की। कहा जाता है कि गढ़वाल की भूमि गौरा माता का ही आशिर्वाद है। यहां से हिमालय का बड़ा मनोहारी दृश्य दिखाई देता है। 52 गढ़ में एक देवलगढ़ स्थित माँ गौरा देवी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर में हर वर्ष बैशाखी के दिन एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। माँ भगवती गौरादेवी सुमाड़ी के काला परिवार की कुलदेवी हैं। बैसाखी के पावन पर्व पर हर वर्ष माँ गौरा भगवती रीतिनुसार 4 महीने मायके में रहने के बाद ससुराल आती है। 13 अप्रैल को रात्रि जागरण किया जाता है। 14 अप्रैल को माँ भगवती गर्भगृह से बाहर आकर हिन्डोंला खेलती हैं। देवलगढ मे माँ गौरा देवी के दर्शन के लिए दूर-दूर से हजारों भक्त दूर-दूर से आते हैं। माँ भगवती गौरा देवी सभी आये हुए भक्तों के रोग व्याधि, दुख, दरिद्र लेकर संतान सुख, वैभव, कीर्ति, यश व ज्ञान का आशीष देते हुए भावुक होकर नम आंखों से अपने मायके वालों और सभी भक्तों से विदाई लेकर, अपने गर्भ में थान मान हो जाती है

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