उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं जसुली शौक्याण /Famous women of Uttarakhand Jasuli Shaukyaan

 जसुली शौक्याण – कुमाऊं – गढ़वाल से लेकर तिब्बत तक व्यापारियों ,यात्रियों के धर्मशालाएं ,पानी के प्याऊ बनाने वाली दानी महिला दारमा की जसुली शौक्याण ,जसुली अम्मा के नाम से जानते हैं। जसुली शौक्याण बहुत बड़ी सम्पत्ति की मालकिन थी। दुर्भाग्य से उनके पति और पुत्र की जल्दी मृत्यु हो जाने के कारण वे अकेली पड़ गई। हताशा के मारे एक दिन वो सारी दौलत धौलीगंगा में बहा देनी चाही। दौलत को बहाते हुए अचानक अंग्रेज कमिश्नर रैमजे की नजर जसुली बुढ़िया पर पड़ गई।  उन्होंने उसे समझाया कि इस पैसे का सदुपयोग किया जाय। तब हेनरी रैमजे ने जसुली अम्मा के नाम से पुरे कुमाऊं गढ़वाल और तिब्बत तक धर्शालाएँ और सराय खोली।

उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं  जसुली शौक्याण

Famous women of Uttarakhand Jasuli Shaukyaan

जसूली देवी 'शौक्याणी' (Jasuli Devi 'Shaukyani')

जन्म                             1805
जन्म स्थान                   दांतू गाँव, दारमा घाटी (धारचुला, पिथौरागढ़)
पति का नाम                ठाकुर जम्बू सिंह दताल
मृत्यु                           1895 
अन्य नाम                   जसुली शौक्याणी, जसुली लला, जसुली बुड़ी, उत्तराखंड की दानवीर महिला

प्रारम्भिक जीवन

जसुली देवी का जन्म उत्तराखंड के दारमा घाटी (धारचूला, पिथौरागढ़) के एक गाँव दांतू में 1805 में हुआ था। जसुली शौका समुदाय से संबंध रखती थी। बाल्यावस्था में ही उनकी शादी दारमा घाटी के ही व्यापारी ठाकुर जम्बू सिंह दताल से हो गयी। दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रंग या शौका समुदाय के लोगों का सदियों से तिब्बत के साथ व्यापार चलता रहता था। यही वजह थी कि उनकी गिनती पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। शादी के कुछ वर्षों बाद उनके घर में एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम बछुवा था लेकिन वह बोलने में असमर्थ (गुँगा) था। इकलौता पुत्र बछुवा के जन्म के कुछ वर्ष बाद ही ठाकुर जम्बू सिंह दताल का निधन हो गया। अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी। कुदरत का कहर यहीं पर नहीं थमा। उनके इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गयी। जसुली विधवा होने के बाद निःसन्तान भी हो गयी।

जसूली देवी सौक्याणी की दानवीरता

ठाकुर जम्बू सिंह दताल के श्राद्ध के एक दिन पूर्व जसूली देवी ने अपने नौकरों को बुलाकर आदेश दिया था कि दांतू गाँव से न्योला नदी (जो दुग्तू एवं दाँतू के बीच बहती है, पूर्वी धौलीगंगा की सहायक नदी) के किनारे तक रिंगाल (निगाल) की चटाई (मोट्टा या तेयता) बिछायी जाये और करीब 350 मीटर की दूरी तक गाँव से न्योला नदी के तट पर चटाई बिछायी गयी। उन दिनों धनी एवं सम्पन्न परिवार के लोग मृत्यु के बाद गंगा-दान करना पुण्य समझते थे। जब यह सब तैयारियां हो रही थी तब कुमाऊँ कमिश्नर हैनरी रैमजे का काफिला दारमा भ्रमण में था। उसी दौरान उन्हें यह विदित हुआ कि जसूली देवी सौक्याणी गंगा-दान करने की तैयारियां कर रही हैं। उन्होंने देखा की एक महिला सोने-चांदी के सिक्कों को नदी में बहा रही थी। यह देखकर अंग्रेज अधिकारियों ने जसुली देवी से विचार-विमर्श किया। विचार के दौरान अंग्रेज अधिकारियों ने गांव एवं जगह का नाम पूछा तो दुखित जसुली देवी ने गांव का नाम दारमा बताया। तभी से अंग्रेज अधिकारियों ने इस क्षेत्र का नाम परगना दारमा के रूप में जाना जो तदोपरान्त इस क्षेत्र का नाम परगना दारमा जाना जाता है।

कमिश्नर रैमजे खुद दारमा घाटी गए और जसूली देवी के साथ विचार-विमर्श के बाद सुझाव दिये ताकि इस अपार धन-दौलत का सही उपयोग आम जनता की भलाई में हो सके। उन्होंने सुझाव दिये ताकि धन-दौलत को गंगा-दान करने के बजाय स्कूल, भवन, सड़क और धर्मशाला का निर्माण करवाये। जसुली ने कमिश्नर की बात मान ली। जसुली का असीम धन घोडों और भेड़-बकरियों में लाद कर अल्मोड़ा पहुंचाया गया। इसी धन से कमिश्नर रैमजे ने जसुली सौक्याण के नाम से 300 से अधिक धर्मशालाएं बनवाई। इन्हें बनवाने में लगभग 20 वर्ष लगे। इनमें सबसे प्रसिद्ध है- नारायण तेवाड़ी देवाल, अल्मोड़ा की धर्मशाला। इसके अतिरिक्त वीरभट्टी (नैनीताल), हल्द्वानी, रामनगर, कालाढूंगी, रांतीघाट, पिथौरागढ़, भराड़ी, बागेश्वर, सोमेश्वर, लोहाघाट, टनकपुर, ऐंचोली, थल, अस्कोट, बलुवाकोट, धारचूला, कनालीछीना, तवाघाट, खेला, पांगू आदि अनेक स्थानों पर धर्मशालाएं हैं जो उस महान विभूति की दानशीलता का स्मरण कराती हैं। उसके बाद जो धनराशि बच गई थी वह धनराशि अल्मोड़ा बैंक में जमा करवा दिया था। यह धनराशि अभी भी बैंक में जमा है।
यह धर्मशालायें नेपाल-तिब्बत के व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के लिए पुरे कुमाऊँ में बनवाई गयी थी। इन धर्मशालाओं में पीने के पानी व अन्य चीजों की अच्छी व्यवस्था होती थी। इन धर्मशालाओं का वर्णन 1870 में अल्मोड़ा के तत्कालीन कमिश्नर शेरिंग ने अपने यात्रा वृतांत में भी किया था। इन धर्मशालाओं के निर्माण के 250 साल तक इनका उपयोग होता रहा। उस समय मानसरोवर व अन्य तीर्थ स्थलों को जाने वाले यात्री, व्यापारी और आम यात्री इन धर्मशालाओं में आराम करने के लिए उपयोग करते थे। 1970 तक सभी दूर-दराज क्षेत्रों के सड़क से जुड़ जाने से इन धर्मशालाओं का उपयोग बंद हो गया। धीरे- धीरे इन धर्मशालाएं वक्त के साथ-साथ जीर्ण होती चली गयी। कुछ सड़कों के निर्माण मार्ग में आने की वजह से तोड़ दी गयी।
रंग कल्याण समिति काफी समय से शासन से इन धर्मशालाओं को संरक्षित करने और पुरात्तव धरोहर घोषित करने की मांग करते आ रही है।

जसूली देवी का अंतिम समय

दानवीर जसूली देवी सोक्याणी ने अपनी जिन्दगी के बाकी समय कुतिया दताल के साथ पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन किया था। और कुतिया सिह दताल के इकलौते पुत्र सेन सिंह दताल को जसूली देवी सौक्याणी ने धर्मपुत्र/गोदनामा स्वीकार किया था। 1895 के आसपास दानवीर जसूली देवी सोक्याणी का निधन हो गया।

गढ़वाल-कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी, जो नदी में बहाने जा रही थी अपनी अकूत दौलत

पिथौरागढ़: इस दुनिया में सब कुछ नश्वर है। धन-संपत्ति, बाहरी सुंदरता एक न एक दिन नष्ट होनी है, लेकिन जो बात शाश्वत है वो है सेवाभाव। आपके द्वारा निश्वार्थ भाव से की गई सेवा हमेशा याद रखी जाएगी। आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बनेगी।

दारमा घाटी के सेठानी जसुली शौकायनी की कहानी

आज हम आपको कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी की कहानी सुनाएंगे। सेठाणी जसुली शौक्याणी, वह महिला हैं, जिन्होंने कुमाऊं और गढ़वाल में कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। आज ये धर्मशालाएं भले ही जीर्ण-शीर्ण हो गई हों, लेकिन कभी यह यात्रियों के लिए आश्रय स्थल हुआ करती थीं। बात करीब पौने दो सौ साल पुरानी है। कुमाऊं की दारमा घाटी के दातूं गांव में जसुली दताल यानी जसुली शौक्याणी रहा करती थी। वो उस शौका समुदाय से थीं, जिनका तिब्बत के साथ व्यापार चलता था। उस वक्त जसुली शौक्याणी की गिनती गढ़वाल-कुमाऊं के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। जसुली के पास सब कुछ था, लेकिन दुर्भाग्य से वह कम उम्र में ही विधवा हो गईं। उनका इकलौता बेटा भी चल बसा।

हताशा भरे जीवन ने जसुली को तोड़ कर रख दिया। एक दिन उन्होंने फैसला लिया कि वह अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देंगी। संयोग से उसी दौरान उस दुर्गम इलाके में कुमाऊं के कमिश्नर रहे अंग्रेज अफसर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। साल 1856 में गढ़वाल-कुमाऊं के कमिश्नर रहे रैमजे नेकदिली के लिए मशहूर थे। रैमजे को जब जसुली के मंसूबों के बारे में पता चला तो वह तुरंत ही उनके पास पहुंचे और उन्हें कहा कि धन को पानी में बहाने की बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाएं। अंग्रेज अफसर का विचार जसुली को जंच गया। कहते हैं कि इसके बाद दारमा घाटी से वापस लौटते वक्त अंग्रेज अफसर के पीछे-पीछे जसुली की अकूत संपदा लेकर बकरी और मवेशियों का एक लंबा काफिला चला। रैमजे ने इस धन से कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत में व्यापारियों और तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। अब ये धर्मशालाएं भले ही खंडहर हो गईं हैं, लेकिन आज भी Jasuli Shoukayani और रैमजे जैसे नेकदिल लोगों की याद दिलाती हैं।

धनी शौका महिला जसुली शौक्याणी ने उत्तराखण्ड में कई धर्मशालाएं बनवाई

कहा जाता है कि शौका परिवार की एक धनी महिला जसुली शौकयानी ने स्थान स्थान पर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाई जिनके अवशेष आज भी पहाड़ के पुराने मार्गों पर मिलते हैं लगभग 1805 में जन्मी वसूली बूढ़ी जसुली दाताल पिथौरागढ़ जिले के दारमा घाटी धारचूला के दांतू गांव की रहने वाली थी. वह अपने माता पिता की एकमात्र वह निसंतान महिला थी कुछ लोग उनके बारे में बताते हैं कि पिथौरागढ़ से 175 किलोमीटर पर पंचाचूली पर्वतमाला के नीचे दांतू गांव ‘दरमा दाँतो गबला’ के नाम से जाना जाता है.

इसी पवित्र भूमि में राजा ‘चर्का ह्यां’ का एकछत्र राज्य था. सुनपति शौका भी दारमा के थे. ग्राम दांतू में दो राठ हैं, पहला दांजन (ह्याऊं जन) दूसरा यानजन (जवों जन). वर्तमान काल में दांजन के केवल 25 परिवार शेष हैं. जसुली दांजन राठ परिवार में पैदा हुई और उसी गांव में ब्याही गयी. जसुली के 2 भाई थे — नुनु और तिनका. जसुली का एक पुत्र हुआ.

जसुली के साथ भाग्य ने अन्याय किया. अथाह संपत्ति के बावजूद उसके पति और पुत्र की छोटी आयु में ही मृत्यु हो गयी. संपत्ति से घृणा होने से वह धौली नदी में रुपये डालकर बहाने लगी. तब कुमाऊँ कमिश्नर रामजे की उस पर दृष्टि पड़ी. उसने जसुली को समझाया और उसकी इच्छा के अनुसार सारे कुमाऊँ में धर्मशालाओं का निर्माण कराया.

कहा यह भी जाता है कि तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रामजे एक बार दौरे पर दुगतु गांव से दांतू गाँव जा रहे थे. उन्हें वहां की नदी के किनारे खड़ी एक महिला मिली जो चांदी के सिक्कों को एक-एक कर नदी में बहा रही थी. रामजे को पता चला कि उसके पास चांदी के बहुत सारे सिक्के हैं किन्तु उसका वंश चलाने वाला कोई नहीं है. इसलिए वह हर सप्ताह मन भर रुपये नदी में बहा देती है. शायद उसके मन में नदी को धन अर्पित करने की भावना हो.

रामजे साहब ने उसे समझाया कि यदि वह इन सिक्कों को बहाने की बजाय जनहित में खर्च करे तो उसे अधिक पुण्य मिलेगा. जसुली बूढ़ी को बात समझ में आ गयी और उसने अपना सारा धन घोड़ों और भेड़ों में लादकर अल्मोड़ा पहुंचा दिया. तब पैदल का ही ज़माना था. इस पैसे से पूरे पहाड़ में लगभग 10-10 मील के अंतर में 300 धर्मशालाओं का निर्माण करवा दिया. जिन्हें बनवाने में लगभग 20 साल लगे. रानीबाग में भी इस धर्मशाला के अवशेष बचे हैं. अब उस धरमशाला से सटाकर एक चाय-पानी की दुकान खुल गयी है.

रानीबाग में ही मिलट्री की छावनी भी है. ब्रिटिश शासन काल में काठगोदाम से लगे दमुवाढुंगा ग्राम-सभा के ब्यूरा खाम क्षेत्र को चांदमारी कहा जाता था, जहाँ सिपाही गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे. यहाँ एक बहुत अच्छा डाकबंगला भी है. रानीबाग के चित्रशिला घाट का अपना एक बहुत बड़ा धार्मिक महत्त्व भी है. कहा जाता है कि पुष्पभद्रा, गार्गी, कमलभद्रा, सुभद्रा, वेणुभद्रा, शेषभद्रा वे सात धाराएं चित्रशिला में सम्मिलित होती हैं.

यदि हम रानीबाग के नाम पर जायें तो कभी यहाँ निश्चित रूप से बहुत बड़ा बाग़ रहा होगा. बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊँ का इतिहास में कहा है कि कत्यूरी राजा धामदेव व ब्रह्मदेव की माता जियारानी यहाँ निवास करती थी. उत्तरायणी के पर्व पर यहाँ जिया रानी का जागर लगाया जाता है और बहुत बड़ा मेला भी लगता है. गौला नदी के किनारे कई रंगों का एक बहुत बड़ा पत्थर भी है. लोग इसे जियारानी का घाघरा भी कहते हैं. लोग इसे चित्रशिला के नाम से भी जानते हैं और इसकी पूजा करते हैं.

वर्तमान में रानीबाग में शिव मंदिर के अलावा शनिदेव का मंदिर भी स्थापित किया गया है. दूर-दूर से लोग इसे बड़ा तीर्थ मानते हुए शवदाह के लिए यहाँ आते हैं. सव्दाह के लिए लकड़ी का प्रबंध वन-निगम द्वारा किया जाता है. रानीबाग के आस-पास का क्षेत्र गिरी व नाथों का बताया जाता है यहाँ उनकी समाधियाँ भी बनी हुई हैं

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