जसुली शौक्याण – कुमाऊं – गढ़वाल से लेकर तिब्बत तक व्यापारियों ,यात्रियों के धर्मशालाएं ,पानी के प्याऊ बनाने वाली दानी महिला दारमा की जसुली शौक्याण ,जसुली अम्मा के नाम से जानते हैं। जसुली शौक्याण बहुत बड़ी सम्पत्ति की मालकिन थी। दुर्भाग्य से उनके पति और पुत्र की जल्दी मृत्यु हो जाने के कारण वे अकेली पड़ गई। हताशा के मारे एक दिन वो सारी दौलत धौलीगंगा में बहा देनी चाही। दौलत को बहाते हुए अचानक अंग्रेज कमिश्नर रैमजे की नजर जसुली बुढ़िया पर पड़ गई। उन्होंने उसे समझाया कि इस पैसे का सदुपयोग किया जाय। तब हेनरी रैमजे ने जसुली अम्मा के नाम से पुरे कुमाऊं गढ़वाल और तिब्बत तक धर्शालाएँ और सराय खोली।
उत्तराखंड की प्रसिद्ध महिलाएं जसुली शौक्याण
Famous women of Uttarakhand Jasuli Shaukyaan
जसूली देवी 'शौक्याणी' (Jasuli Devi 'Shaukyani')
जन्म स्थान दांतू गाँव, दारमा घाटी (धारचुला, पिथौरागढ़)
पति का नाम ठाकुर जम्बू सिंह दताल
मृत्यु 1895
अन्य नाम जसुली शौक्याणी, जसुली लला, जसुली बुड़ी, उत्तराखंड की दानवीर महिला
प्रारम्भिक जीवन
जसूली देवी सौक्याणी की दानवीरता
जसूली देवी का अंतिम समय
दानवीर जसूली देवी सोक्याणी ने अपनी जिन्दगी के बाकी समय कुतिया दताल के साथ पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन किया था। और कुतिया सिह दताल के इकलौते पुत्र सेन सिंह दताल को जसूली देवी सौक्याणी ने धर्मपुत्र/गोदनामा स्वीकार किया था। 1895 के आसपास दानवीर जसूली देवी सोक्याणी का निधन हो गया।
गढ़वाल-कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी, जो नदी में बहाने जा रही थी अपनी अकूत दौलत
पिथौरागढ़: इस दुनिया में सब कुछ नश्वर है। धन-संपत्ति, बाहरी सुंदरता एक न एक दिन नष्ट होनी है, लेकिन जो बात शाश्वत है वो है सेवाभाव। आपके द्वारा निश्वार्थ भाव से की गई सेवा हमेशा याद रखी जाएगी। आने वाली पीढ़ियों के लिए मिसाल बनेगी।
दारमा घाटी के सेठानी जसुली शौकायनी की कहानी
आज हम आपको कुमाऊं की सेठाणी जसुली शौक्याणी की कहानी सुनाएंगे। सेठाणी जसुली शौक्याणी, वह महिला हैं, जिन्होंने कुमाऊं और गढ़वाल में कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। आज ये धर्मशालाएं भले ही जीर्ण-शीर्ण हो गई हों, लेकिन कभी यह यात्रियों के लिए आश्रय स्थल हुआ करती थीं। बात करीब पौने दो सौ साल पुरानी है। कुमाऊं की दारमा घाटी के दातूं गांव में जसुली दताल यानी जसुली शौक्याणी रहा करती थी। वो उस शौका समुदाय से थीं, जिनका तिब्बत के साथ व्यापार चलता था। उस वक्त जसुली शौक्याणी की गिनती गढ़वाल-कुमाऊं के सबसे संपन्न लोगों में होती थी। जसुली के पास सब कुछ था, लेकिन दुर्भाग्य से वह कम उम्र में ही विधवा हो गईं। उनका इकलौता बेटा भी चल बसा।
हताशा भरे जीवन ने जसुली को तोड़ कर रख दिया। एक दिन उन्होंने फैसला लिया कि वह अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देंगी। संयोग से उसी दौरान उस दुर्गम इलाके में कुमाऊं के कमिश्नर रहे अंग्रेज अफसर हैनरी रैमजे का काफिला गुजर रहा था। साल 1856 में गढ़वाल-कुमाऊं के कमिश्नर रहे रैमजे नेकदिली के लिए मशहूर थे। रैमजे को जब जसुली के मंसूबों के बारे में पता चला तो वह तुरंत ही उनके पास पहुंचे और उन्हें कहा कि धन को पानी में बहाने की बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाएं। अंग्रेज अफसर का विचार जसुली को जंच गया। कहते हैं कि इसके बाद दारमा घाटी से वापस लौटते वक्त अंग्रेज अफसर के पीछे-पीछे जसुली की अकूत संपदा लेकर बकरी और मवेशियों का एक लंबा काफिला चला। रैमजे ने इस धन से कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत में व्यापारियों और तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। अब ये धर्मशालाएं भले ही खंडहर हो गईं हैं, लेकिन आज भी Jasuli Shoukayani और रैमजे जैसे नेकदिल लोगों की याद दिलाती हैं।
धनी शौका महिला जसुली शौक्याणी ने उत्तराखण्ड में कई धर्मशालाएं बनवाई
कहा जाता है कि शौका परिवार की एक धनी महिला जसुली शौकयानी ने स्थान स्थान पर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाई जिनके अवशेष आज भी पहाड़ के पुराने मार्गों पर मिलते हैं लगभग 1805 में जन्मी वसूली बूढ़ी जसुली दाताल पिथौरागढ़ जिले के दारमा घाटी धारचूला के दांतू गांव की रहने वाली थी. वह अपने माता पिता की एकमात्र वह निसंतान महिला थी कुछ लोग उनके बारे में बताते हैं कि पिथौरागढ़ से 175 किलोमीटर पर पंचाचूली पर्वतमाला के नीचे दांतू गांव ‘दरमा दाँतो गबला’ के नाम से जाना जाता है.
इसी पवित्र भूमि में राजा ‘चर्का ह्यां’ का एकछत्र राज्य था. सुनपति शौका भी दारमा के थे. ग्राम दांतू में दो राठ हैं, पहला दांजन (ह्याऊं जन) दूसरा यानजन (जवों जन). वर्तमान काल में दांजन के केवल 25 परिवार शेष हैं. जसुली दांजन राठ परिवार में पैदा हुई और उसी गांव में ब्याही गयी. जसुली के 2 भाई थे — नुनु और तिनका. जसुली का एक पुत्र हुआ.
जसुली के साथ भाग्य ने अन्याय किया. अथाह संपत्ति के बावजूद उसके पति और पुत्र की छोटी आयु में ही मृत्यु हो गयी. संपत्ति से घृणा होने से वह धौली नदी में रुपये डालकर बहाने लगी. तब कुमाऊँ कमिश्नर रामजे की उस पर दृष्टि पड़ी. उसने जसुली को समझाया और उसकी इच्छा के अनुसार सारे कुमाऊँ में धर्मशालाओं का निर्माण कराया.
कहा यह भी जाता है कि तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रामजे एक बार दौरे पर दुगतु गांव से दांतू गाँव जा रहे थे. उन्हें वहां की नदी के किनारे खड़ी एक महिला मिली जो चांदी के सिक्कों को एक-एक कर नदी में बहा रही थी. रामजे को पता चला कि उसके पास चांदी के बहुत सारे सिक्के हैं किन्तु उसका वंश चलाने वाला कोई नहीं है. इसलिए वह हर सप्ताह मन भर रुपये नदी में बहा देती है. शायद उसके मन में नदी को धन अर्पित करने की भावना हो.
रामजे साहब ने उसे समझाया कि यदि वह इन सिक्कों को बहाने की बजाय जनहित में खर्च करे तो उसे अधिक पुण्य मिलेगा. जसुली बूढ़ी को बात समझ में आ गयी और उसने अपना सारा धन घोड़ों और भेड़ों में लादकर अल्मोड़ा पहुंचा दिया. तब पैदल का ही ज़माना था. इस पैसे से पूरे पहाड़ में लगभग 10-10 मील के अंतर में 300 धर्मशालाओं का निर्माण करवा दिया. जिन्हें बनवाने में लगभग 20 साल लगे. रानीबाग में भी इस धर्मशाला के अवशेष बचे हैं. अब उस धरमशाला से सटाकर एक चाय-पानी की दुकान खुल गयी है.
रानीबाग में ही मिलट्री की छावनी भी है. ब्रिटिश शासन काल में काठगोदाम से लगे दमुवाढुंगा ग्राम-सभा के ब्यूरा खाम क्षेत्र को चांदमारी कहा जाता था, जहाँ सिपाही गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे. यहाँ एक बहुत अच्छा डाकबंगला भी है. रानीबाग के चित्रशिला घाट का अपना एक बहुत बड़ा धार्मिक महत्त्व भी है. कहा जाता है कि पुष्पभद्रा, गार्गी, कमलभद्रा, सुभद्रा, वेणुभद्रा, शेषभद्रा वे सात धाराएं चित्रशिला में सम्मिलित होती हैं.
यदि हम रानीबाग के नाम पर जायें तो कभी यहाँ निश्चित रूप से बहुत बड़ा बाग़ रहा होगा. बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊँ का इतिहास में कहा है कि कत्यूरी राजा धामदेव व ब्रह्मदेव की माता जियारानी यहाँ निवास करती थी. उत्तरायणी के पर्व पर यहाँ जिया रानी का जागर लगाया जाता है और बहुत बड़ा मेला भी लगता है. गौला नदी के किनारे कई रंगों का एक बहुत बड़ा पत्थर भी है. लोग इसे जियारानी का घाघरा भी कहते हैं. लोग इसे चित्रशिला के नाम से भी जानते हैं और इसकी पूजा करते हैं.
वर्तमान में रानीबाग में शिव मंदिर के अलावा शनिदेव का मंदिर भी स्थापित किया गया है. दूर-दूर से लोग इसे बड़ा तीर्थ मानते हुए शवदाह के लिए यहाँ आते हैं. सव्दाह के लिए लकड़ी का प्रबंध वन-निगम द्वारा किया जाता है. रानीबाग के आस-पास का क्षेत्र गिरी व नाथों का बताया जाता है यहाँ उनकी समाधियाँ भी बनी हुई हैं
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