72 घंटे तक अकेले चीनियों से लड़ने वाले उत्तराखंडी ( जसवंत सिंह रावत )
1962 के भारत चीन युद्ध में 72 घंटे तक अकेले चीनियों से लड़ने वाले उत्तराखण्ड निवासी, महावीर चक्र विजेता, राइफलमैन, अमर शहीद जसवंत सिंह रावत जी की जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन।

एक सैनिक इस दुनिया में नहीं है, फिर भी उसको प्रमोशन मिलता है। छुट्टी भी मिलती है। सुबह में साढ़े चार बजे चाय, नौ बजे नाश्ता और शाम में खाना भी दिया जाता है। आप सोचेंगे कि आखिर वह सैनिक कौन है और उसने ऐसा क्या किया है जो मरने के बाद भी इतना सम्मान दिया जा रहा है। तो जान लीजिए, उस सैनिक का नाम है जसवंत सिंह रावत। उन्होंने अकेले 72 घंटे तक चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था और 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था। इसी वजह से उनको इतना सम्मान मिलता है। आइए आज उनकी बहादुरी की दास्तान पढ़ते हैं...
परिचय...
जसवंत सिंह रावत उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के रहने वाले थे। उनका जन्म 19 अगस्त, 1941 को हुआ था। उनके पिता गुमन सिंह रावत थे। जिस समय शहीद हुए उस समय वह राइफलमैन के पद पर थे और गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सेवारत थे। उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग के नूरारंग की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी।
1962 का भारत चीन युद्ध...
1962 का भारत चीन युद्ध अंतिम चरण में था। 14,000 फीट की ऊंचाई पर करीब 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत चीन सीमा युद्ध का मैदान बनी थी। यह इलाका जमा देने वाली ठंड और दुर्गम पथरीले इलाके के लिए बदनाम है। इन इलाकों में जाने भर के नाम से लोगों की रूह कांपने लगती है लेकिन वहां हमारे सैनिक लड़ रहे थे। चीनी सैनिक भारत की जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार करके आगे बढ़ रहे थे। चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुंच गए थे। भारतीय सैनिक भी चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे।
चीनी सैनिकों को यूं दिया चकमा...
चीनी सैनिकों से भारतीय थल सेना की गढ़वाल राइफल्स लोहा ले रही थी। गढ़वाल राइफल्स जसवंत सिंह की बटालियन थी। लड़ाई के बीच में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए बटालियन को वापस बुला लिया गया। लेकिन जसवंत सिंह ने वहीं रहने और चीनी सैनिकों का मुकाबला करने का फैसला किया।
स्थानीय किवदंतियों के मुताबिक, उन्होंने अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की दो लड़कियों नूरा और सेला की मदद से फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और टैंक रखे। उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहे कि भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है। नूरा और सेला के साथ साथ जसवंत सिंह तीनों जगह पर जा जाकर हमला करते। इससे बड़ी संख्या में चीनी सैनिक मारे गए। इस तरह वह 72 घंटे यानी तीन दिनों तक चीनी सैनिकों को चकमा देने में कामयाब रहे। लेकिन दुर्भाग्य से उनको राशन की आपूर्ति करने वाले शख्स को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया। उसने चीनी सैनिकों को जसवंत सिंह रावत के बारे में सारी बातें बता दीं। इसके बाद चीनी सैनिकों ने 17 नवंबर, 1962 को चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेरकर हमला किया। इस हमले में सेला मारी गई लेकिन नूरा को चीनी सैनिकों ने जिंदा पकड़ लिया। जब जसवंत सिंह को अहसास हो गया कि उनको पकड़ लिया जाएगा तो उन्होंने युद्धबंदी बनने से बचने के लिए एक गोली खुद को मार ली। सेला की याद में एक दर्रे का नाम सेला पास रख दिया गया है।
बहादुरी से चीनी सेना भी प्रभावित...
कहा जाता है कि चीनी सैनिक उनके सिर को काटकर ले गए। युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। अकेले दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना भी प्रभावित हुई और पीतल की बनी रावत की प्रतिमा भेंट की। कुछ कहानियों में यह कहा जाता है कि जसवंत सिंह रावत ने खुद को गोली नहीं मारी थी बल्कि चीनी सैनिकों ने उनको पकड़ लिया था और फांसी दे दी थी।
सम्मान...
जिस चौकी पर जसवंत सिंह ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है। मंदिर में उनसे जुड़ीं चीजों को आज भी सुरक्षित रखा गया है। पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। वे पांच सैनिक रात को उनका बिस्तर करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश तक करते है। सैनिक सुबह के 4.30 बजे उनके लिए बेड टी, 9 बजे नाश्ता और शाम में 7 बजे खाना कमरे में रख देते हैं।
मरने के बाद भी प्रमोशन और छुट्टी...
उनको मृत्यु के बाद भी प्रमोशन मिलता है। राइफलमैन के पद से वह प्रमोशन पाकर मेजर जनरल बन गए हैं। उनकी ओर से उनके घर के लोग छुट्टी का आवेदन देते हैं और छुट्टी मिलने पर सेना के जवान पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके चित्र को उनके पैतृक गांव ले जाते हैं। छुट्टी समाप्त होने पर उनके चित्र को वापस जसवंत गढ़ ले जाया जाताहै।
![]() |
जसवंत सिंह रावत |
अब भी करते हैं सीमा की रक्षा...
सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चौकी की रक्षा करती है। उनलोगों का कहना है कि वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उनको जगा देते हैं। उनके नाम के आगे शहीद नहीं लगाया जाता है और यह माना जाता है कि वह ड्यूटी पर हैं।
बायॉपिक...
देश के जांबाज सैनिक जसवंत सिंह रावत के जीवन पर अविनाश ध्यानी ने एक फिल्म भी बनाई है जिसका नाम 72 आर्स मार्टियार हू नेवर डाइड (72 Hours Martyr Who Never Died) है। इस बायॉपिक में अविनाश ध्यानी जसवंत सिंह के किरदार में हैं।
वर्ष था 1950... भारत को आजाद हुए कुछ ही समय बीता था। देहरादून के इंडियन मिलिट्री ऐकेडमी की ज्वाइंट सर्विसेज विंग में थल सेना, एयरफोर्स और नेवी के कैडेट्स की साझा ट्रेनिंग चल रही थी (क्योंकि उस वक्त तक खडगवासला में नेशनल डिफेंस ऐकेडमी पूरी तरह से बनकर तैयार नही हुई थी।)
एक सत्रह साल के कैडेट को बाॅक्सिंग रिंग में अपने सीनियर बैच के कैडेट का मुकाबला करना था। वो सीनियर कैडेट बड़ा ही ब्रिलियेंट और बेहतरीन बाॅक्सर था।
वो सीनियर बैच के कैडेट थे भविष्य का भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष जनरल S.F. राॅड्रिग्स जिनका बाॅक्सिंग रिंग में दबदबा रहता था।
उसके सामने था सत्रह साल का जूनियर कैडेट नरेन्द्र कुमार शर्मा। पाकिस्तान के रावलपिंडी मे पैदा हुआ वो लड़का, जिसका परिवार देश के विभाजन के समय भारत आया था। घमासान बाॅक्सिंग मैच हुआ और भविष्य के सेनाध्यक्ष ने जूनियर कैडेट नरेन्द्र कुमार शर्मा का भूत बनाकर रख दिया।
वो जूनियर लडका बुरी तरह पिटा, मगर पीछे नहीं हटा। बार बार पलटकर आता, मारता और मार भी खाता मगर पीछे हटने को तैयार ना होता। अंतत: कैडेट S.F. राॅड्रिग्स ने वो मुकाबला जीत लिया। जूनियर कैडेट बुरी तरह पिटकर हारा जरूर मगर उसी बाॅक्सिंग मैच में मैच देखने वाले कैडेट्स ने उसको एक निकनेम दे दिया। जो जीवन भर उसके नाम से चिपका रहा। वो निकनेम था BULL यानि बैल...
वो बैल चार दिन पहले 31 दिसंबर को दिल्ली के धौलाकुंआ स्थित आर्मी के R.R. हाॅस्पिटल में अपनी जिंदगी का आखिरी मुकाबला, अपनी मौत से हार गए।
देश के एक नायक, वास्तविक हीरो चुपचाप दुनिया से चले गये, Unknown and unsung... बहुत कम लोगों को ये मालूम है नरेन्द्र कुमार "बुल" आखिर थे कौन?
वो बंदा फौज में कर्नल की पोस्ट से आगे नहीं बढ़ सका, क्योकि हमेशा बर्फीले पहाड़ों की चोटिया लाँघते उस बैल के पैरों में एक भी उंगली नहीं बची थी। उसके लगातार मिशन चलते रहे। सारी उंगलियां गलकर गिर गईं। अपंग हुए, मगर उनके मिशन नही रुके।
आज अगर भारत देश सियाचीन ग्लेशियर पर बैठा है, अगर भारत ग्लेशियरों की उन ऊँचाइयों का मास्टर है, एक एक रास्ते का जानकार है, और पाकिस्तान को सियाचिन से दूर रखने में कामयाब रहा है, तो उसका श्रेय मात्र एक ही व्यक्ति को जाता है, वो थे कर्नल नरेन्द्र कुमार शर्मा यानि नरेन्द्र "बुल" कुमार...
उन सुनसान बर्फीले ग्लेशियरों पर शून्य से 60° कम तापमान में अपने देश की खातिर बुल ने ना जाने कितने अभियानों का नेतृत्व किया। नक्शे बनाये, उस दुर्गम क्षेत्र की एक एक जानकारी हासिल की। उनके नक्शे, फोटोग्राफ, भारत की ग्लेशियर पर विजय का आधार स्तंभ बने। इलाके में विदेशी पर्वतारोही अभियानों और पाकिस्तानी दखल की जानकारी भारत और दुनिया को दी। उन रास्तों का पता लगाया, उनकी स्थिति नक्शे, फोटोग्राफ जहाँ से पाकिस्तानी सियाचीन पर कब्जा करने की ताक में थे। वो सब अपने सैनिको को दी।
यही वजह थी कि सरकार ने ऑपरेशन मेघदूत जिसके जरिये सियाचीन पर कब्जा किया था। उस ऑपरेशन की जिम्मेदारी नरेन्द्र बुल कुमार की अपनी रेजीमेंट यानि कुमायूँ रेजीमेंट को दी थी।
पूरा देश नरेन्द्र "बुल" का ऋणी है। जिन्होंने अपने शरीर के अंगों को बर्फ मे गलाकर, सालों साल दुर्गम ग्लेशियरों में बिताकर, असंख्य चोटियाें पर पर्वतारोही अभियानों में विजय हासिल की। जो सही मायने में फादर ऑफ सियाचीन ग्लेशियर कहलाने का हकदार है।
वो शानदार पर्वतारोही, वो ग्लेशियरों के सरताज, कर्नल नरेन्द्र "बुल" कुमार 31 दिसम्बर 2020 को यहाँ से विदा हो गए... मगर विडंबना है कि हम अपने देश के देश के इन वास्तविक नायक, हीरो के नाम तक से परिचित नहीं।
कर्नल बुल साहब...! हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे... सभी देशवासियों और आपकी कुमायूँ रेजीमेंट की तरफ से आपके पूज्य चरणों में शत शत नमन... श्रद्धांजलि, सेल्यूट पहुँचे...
- गढ़वाल राइफल्स भारतीय सेना की एक थलसेना रेजिमेंट -
- गढ़वाल राइफल्स क्या है?
- वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जीवनी
- वीर चंद्र सिंह
- आजाद हिन्द फौज के सेनानी लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट
- 1970 के दशक में गढ़वाल राइफल्स भर्ती
- 72 घंटे तक अकेले चीनियों से लड़ने वाले उत्तराखंडी ( जसवंत सिंह रावत )
- शहीद जसंवत सिंह रावत
- गढ़वाल राइफल्स भारतीय सेना की एक थलसेना रेजिमेंट
0 टिप्पणियाँ