श्री भीमा काली जी मंदिर - Shri Bhima Kali Ji Temple

Shri Bhima Kali Ji Temple (श्री भीमा काली जी मंदिर)

श्री भीमा काली जी मंदिर

भीमाकाली मंदिर - हिमाचल प्रदेश का एक अनोखा शक्तिपीठ

देवी भीमाकाली मंदिर बुशहर राजवंश की कुलदेवी को समर्पित है। भीमादेवी हिमाचल प्रदेश के सराहन क्षेत्र की आराध्य देवी एवं अधिष्ठात्री हैं। सराहन बुशहर राजवंश की राजधानी थी। इससे पूर्व इस राजवंश की राजधानी सांगला के निकट स्थित कामरू में थी, जहाँ से उसे सराहन स्थानांतरित किया गया था। कालांतर में बुशहर शासक रामपुर में सतलुज के किनारे बस गए।
हिमाचल प्रदेश में ज्योरी से ऊपर चढ़ते हुए हम सराहन नामक इस छोटे से पर्वतीय गाँव में पहुँचते हैं। भीमाकाली मंदिर इस गाँव के अस्तित्व का केंद्र बिंदु है। सराहन जाते समय आप मनभावी सतलुज से दूर अवश्य जाते हैं किन्तु हिमालय के श्रीखंड पर्वत श्रंखला के अप्रतिम दृश्यों के समीप पहुँच जाते हैं।

भीमाकाली मंदिर से सम्बंधित पौराणिक कथाएं

सराहन से जुड़ी दंतकथा भीमाकाली से पूर्व की है। ऐसा कहा जाता है कि बाली पुत्र बाणासुर इस क्षेत्र का शासक था। उसकी पुत्री उषा भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से, प्रत्यक्ष देखे बिना ही प्रेम करने लगी थी। उषा ने अनिरुद्ध को अपने स्वप्न में देखा था तथा तब से उसे अपने हृदय में बसा लिया था। उसने अपनी सखी चित्रलेखा को इस विषय में बताया। उषा द्वारा दी गयी जानकारी से सखी चित्रलेखा ने अनिरुद्ध का चित्र रेखांकित किया तथा अपनी सखी के लिए उसे खोजने निकल पड़ी। वह अनिरुद्ध को खोजकर उसे निद्रामग्न अवस्था में ही उठाकर सराहन ले आयी। यह ज्ञात होते ही श्रीकृष्ण जी ने बाणासुर से युद्ध की घोषणा कर दी। अंत भला तो सब भला, इस कहावत को चरितार्थ करते हुए, अंत में उषा एवं अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ। ऐसा माना जाता है कि तब से निरंतर उन्ही के वंशज इस क्षेत्र में शासन करते आ रहे थे। किन्तु २०वीं सदी में भारत के स्वतन्त्र होते ही सराहन के साथ साथ देश के सभी क्षेत्रों की राजशाही समाप्त कर दी गयी।

हिमाचल की काष्ठ कला धरोहर

भीमाकाली से सम्बंधित कथा सती की कथा से जुड़ी हुई है। सती प्रजापति दक्ष की पुत्री एवं भगवान शिव की पत्नी है। प्रजापति दक्ष ने अपने एक महत्वपूर्ण यज्ञ समारोह में सभी को आमंत्रित किया था किन्तु भगवान शिव से वैमनस्य के कारण उन्हें एवं सती को आमंत्रण नहीं भेजा। सती के वहां पहुँचने पर दक्ष ने उनके समक्ष भगवान शिव का घोर अनादर किया एवं खरी-खोटी सुनाई। पति का अपमान सहन ना कर पाने के कारण उन्होंने वहीं यज्ञ कुण्ड की अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी। इसका आभास होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए तथा देवी सती की पार्थिव देह को उठाकर तांडव नृत्य करने लगे। उनका क्रोध शांत करने के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती का पार्थिव देह विच्छेदित कर दिया। जहाँ जहाँ देवी की देह के भाग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई जो दैवी देवी-उर्जा के केंद्र माने जाते  हैं। भारत उपमहाद्वीप में ५१ ऐसे शक्ति पीठ हैं। भीमाकाली को उन्ही शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। किवदंतियों के अनुसार इस क्षेत्र ने  देवी का कर्ण भाग प्राप्त किया था।

भीमाकाली मंदिर परिसर में अनेक मंदिर हैं। उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित प्रवेश द्वार से होते हुए आप मंदिर परिसर के भीतर पहुँचते हैं। दाहिनी ओर आप एक शैल संरचना देखेंगे जिसका ऊपरी भाग उत्कीर्णित काष्ठ द्वारा निर्मित है। बाईं ओर प्राचीन शैल मंदिर हैं। समक्ष यात्रियों के लिए एक जलपान गृह एवं विश्राम गृह हैं। सर्वप्रथम मैंने एक लघु शैल मंदिर का दर्शन किया जो एक शिवालय था। यह रामपुर के नरसिंह मंदिर के समान था। नागर स्थापत्य शैली में निर्मित इस मंदिर के शिखर के चारों ओर काष्ठ का गलियारा है जिस पर ढलुआ छत है।

काष्ठ गलियारे पर उत्कीर्णित प्रतिमाएं साधारण हैं तथा पौराणिक ग्रंथों में दर्शाए गए संकेतों व चिन्हों के अनुरूप हैं। वहीं शिखर पर प्रतिमाओं की उत्तम नक्काशी की गयी है जिनमें त्रिमूर्ति विशेष है। प्रांगण में खड़े होकर चारों ओर देखें तो आपको शिलाओं एवं काष्ठ का उत्कृष्ट एवं सुडौल समागम दृष्टिगोचर होगा जो एक दूसरे के सौंदर्य को दुगुना करते प्रतीत होते हैं। शिलाएं कठोरता एवं पार्थिवता प्रदान करते हैं, वहीं काष्ठ सम्पूर्ण संरचना को लावण्यता तथा कलाकारी के लिए उपयुक्त कोमलता प्रदान करते हैं।

चाँदी के उत्कीर्णित द्वार एवं प्रतिमाएं

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मुख्य मंदिर के परिसर पहुँचते हैं। परिसर का प्रवेश द्वार चाँदी का है जो उत्कृष्ट नक्काशी से ओतप्रोत है। द्वार का चौखट भी चाँदी का है जो प्रवेशद्वार से भी उत्कृष्ट उत्कीर्णित है। प्रवेशद्वार पर देवी-देवताओं की आकृतियों के साथ देवनागरी व गुरुमुखी लिपी में उत्कीर्णित अभिलेख हैं। गुरुमुखी लिपी के अभिलेख देख मैं स्तब्ध हो गयी थी किन्तु कुछ क्षण पश्चात मुझे स्मरण हुआ कि प्राचीन काल में यह प्रान्त विशाल पंजाब राज्य का ही भाग था। यहाँ पंजाबी भाषा भी प्रचुर मात्रा में बोली जाती है।



चाँदी में मढ़े हुए द्वार 
कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के प्रवेशद्वार तक पहुंचते हैं। भीतर जाते ही एक प्रांगण है जहां से मंदिर के प्रथम दर्शन प्राप्त होते हैं। आगे जाकर एक अन्य प्रांगण के भीतर पहुँचते हैं जहाँ से एक ऊँचे मंदिर का प्रथम दृश्य प्राप्त होता है। पुनः कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर एक अन्य द्वार तक पहुँचते हैं जिसका रक्षण देवी के वाहन, दो सिंह करते हैं। अब आप मुख्य मंदिर में प्रवेश करते हैं।

नवीन मंदिर

शिला एवं काष्ठ द्वारा निर्मित दो ऊँची संरचनाएं एक दूसरे के समीप स्थित हैं। दाहिनी ओर स्थित संरचना दूसरे की अपेक्षा साधारण एवं प्राचीन है। बायीं ओर की संरचना नवीन मंदिर है जहाँ पूजा अनुष्ठान किये जाते हैं। उपरी भाग में काष्ठ पर अप्रतिम नक्काशी की गयी है। नवीन मंदिर का निर्माण १९४० के दशक में किया गया था किन्तु देवी की प्रतिमा को सन् १९६२ में इस नवीन मंदिर में स्थानांतरित कर पुनःस्थापित किया गया।  प्राचीन संरचना का प्रयोग अब भण्डार के लिए किया जाता है। इस मंदिर की विशेषता इसकी ऊँचाई है। मूल मंदिर दूसरे तल पर स्थित है जो इस मंदिर का सर्वोच्च तल है। मंदिर के भीतर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर प्रथम तल पर पहुँचते हैं जहाँ पर्वतराज पुत्री देवी पार्वती का मंदिर है।
मंदिर के भीतर हमने एक विशाल तिजोरी देखी जो तालाबंद थी। इससे मुझे स्मरण हुआ कि प्राचीन काल में मंदिर बैंक की भूमिका भी निभाते थे।

देवी भीमाकाली

मंदिर के दूसरे तल पर देवी भीमाकाली की प्रतिमा है जिनके साथ बुद्ध समेत अन्य देवी-देवताओं की भी प्रतिमाएं हैं। यहाँ देवी के सभी ९ अवतारों की प्रतिमाएं हैं जिनमें प्रमुख है, देवी का चामुंडा रूप। मुख्य प्रतिमा के साथ धातु की कुछ लघु प्रतिमाएं थीं। पुरोहित जी ने बताया कि वे सभी बुशहर राजपरिवार में ब्याह कर आयी रानी के कुलदेवता हैं। मुझे उन्हें देख अत्यंत प्रसन्नता हुई। ब्याह कर आयी रानी के कुलदेवताओं को भी मंदिर में स्थान प्रदान कर रानी को समान अधिकार व सम्मान प्रदान किया गया था। तब का समाज वर्तमान की अपेक्षा अधिक निष्पक्ष व न्यायसंगत था। कन्याओं को ब्याह के पश्चात भी ना केवल अपनी मूल आस्था का पालन करने की अनुमति थी, अपितु उसकी आस्थाओं को ससुराल पक्ष की आस्थाओं में सुगमता से आत्मसात किया जाता था।

मन्दिर की अनोखी स्थापत्य शैली

भीमाकाली मंदिर की स्थापत्य शैली अतिविशिष्ट है। सम्पूर्ण किन्नौर एवं हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों मैंने ऐसा कोई मंदिर अथवा ऐसी कोई अन्य संरचना नहीं देखी जो स्थापत्य शैली व वास्तुकला की दृष्टि से इस मंदिर के किंचित भी समीप आ सके। मुझे बताया गया कि यहाँ दिशा निर्देश है कि कोई भी मंदिर अथवा किसी भी प्रकार की संरचना की रूपरेखा इस मंदिर जैसी नहीं होनी चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के सभी स्थानीय लोग इस दिशानिर्देश का पूर्ण श्रद्धा से पालन करते हैं। यह एक प्रकार से देवी व उनके मंदिर को विशेष स्थान प्रदान करने का प्रयास है। ऐसी आस्था व परंपरा देवी की ओर श्रद्धा की पराकाष्ठा है। मंदिर के सर्वोच्च तल की खिड़कियों से चारों ओर के पर्वतों का अप्रतिम दृश्य दिखाई देता है। विशेषतः श्रीखंड पर्वतमाला का दृश्य अत्यंत मनमोहक है। ऐसा प्रतीत होता है मानो परिदृश्यों के सर्वोत्तम दृश्य देवी भीमाकाली एवं उनके दर्शनार्थ आये भक्तों के लिए आरक्षित किया गया हो।

मंदिर का संग्रहालय

मंदिर परिसर में एक संग्रहालय है जहाँ मंदिर में दशकों से प्रयुक्त विभिन्न वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है। यहाँ प्रदर्शित पुरातन पात्र महाप्रसाद ग्रहण करते भक्तों की विशाल संख्या की ओर इंगित करते हैं। कुछ आयुध हैं जो मेरे अनुमान से देवी के आयुध हैं। अनेक संगीत वाद्य हैं जिनका प्रयोग कदाचित यहाँ आयोजित समारोहों व उत्सवों में किया गया होगा। भिन्न भिन्न प्रकार व आकार के अनेक दीप हैं जो यहाँ के काष्टकारों के कलाकौशल का बखान करते हैं।


संग्रहालय के निकट छोटा देवालय है। यह मंदिर लंकरा वीर का है जिन्हें यहाँ के स्थानिक भैरव का अवतार मानते हैं। एक विशाल हवनकुंड है जिसकी छत ढलुआ है। मंदिर के समक्ष पुरिहितों के परिवारों के लिए निवासस्थान है।

मंदिर के कुछ दूरी पर बुशहर वंश का एक प्राचीन राजवाड़ा है। इसका कुछ भाग पर्यटकों के अवलोकन के लिए खुला है। मंदिर की ओर जाते मार्गों पर पैदल भ्रमण करें। वे सभी किसी भी लोकप्रिय मंदिर मार्ग के समान हैं। वहां मंदिर एवं पूजा अनुष्ठान से सम्बंधित वस्तुओं की विक्री की जाती है। चारों ओर क्षितिज में दृष्टि दौड़ाएं तो आप स्वयं को पर्वत चोटियों से घिरा पायेंगे। ये पर्वत मालाएँ ही सराहन को एक पर्वतीय गाँव बनाते हैं।

मंदिर के भीतर छायाचित्रीकरण की अनुमति नहीं है। थैले एवं चमड़े द्वारा निर्मित किसी भी वस्तु को भीतर ले जाना निषिद्ध है। मंदिर परिसर के भीतर अपना सिर ढंकने के लिए आपको टोपियाँ दी जायेंगी। मंदिर परिसर में छायाचित्रीकरण निषिद्ध नहीं है।
स्थान:

श्री भीमा काली मंदिर भारत में हिमाचल प्रदेश के सराहन में एक मंदिर है। यह मंदिर शिमला से लगभग 180 किमी दूर स्थित है। सराहन शहर को किन्नौर का प्रवेश द्वार कहा जाता है। जियोरी से लिंक रोड घराट होते हुए 2185 मीटर की ऊंचाई तक सराहन (17 किलोमीटर) तक जाती है। सराहन सतलज नदी के दक्षिणी किनारे की पहाड़ी ढलान पर स्थित है और उत्तर में श्रीखंड महादेव शिखर का सामना कर रहा है। शिमला से दूरी 160 किलोमीटर है। सराहन की पहचान पुराणों में वर्णित तत्कालीन शोणितपुर से की जाती है।


किंवदंती:

एक पौराणिक कथा के अनुसार, देवी की अभिव्यक्ति दक्ष-यज्ञ की घटना से हुई है जब सती का कान इस स्थान पर गिरा था और यह एक पीठ-स्थान के रूप में पूजा स्थल बन गया। वर्तमान में कुंवारी के रूप में इस शाश्वत देवी की प्रतिमा नये भवन की शीर्ष मंजिल पर प्रतिष्ठित है। उस मंजिल के नीचे हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में देवी भगवान शिव की दिव्य पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

विवरण:


भीमाकाली मंदिर, कम से कम 800 वर्ष पुराना माना जाता है, जो पूर्व बुशैयर राज्य के शासकों की इष्ट देवी, देवी माँ भीमाकाली (देवी दुर्गा का एक अवतार) को समर्पित है और यह 51 शक्तिपीठों में से एक है।

मंदिर परिसर में तीन अन्य मंदिर हैं जो भगवान रघुनाथजी, नरसिंहजी और पाताल भैरव जी (लंकड़ा वीर) - संरक्षक देवता को समर्पित हैं।

वास्तुकला:

मंदिर की वास्तुकला शैली तिब्बती है। शानदार नक्काशी के साथ खूबसूरत लकड़ी की संरचना दुनिया भर से पर्यटकों का विशेष ध्यान आकर्षित करती है। इसमें तिरछी स्लेट की छतें, सुनहरी मीनारें, पगोडा और एक नक्काशीदार चांदी का दरवाजा है। देवी की स्वर्ण प्रतिमा 210 वर्ष पुरानी है।

मंदिर की मूल संरचना भूकंप से क्षतिग्रस्त हो गई थी और एक प्रतिकृति का निर्माण किया गया है। दो मंदिरों में से एक को भक्तों के लिए खोल दिया गया है। पुराने जीर्ण-शीर्ण मंदिर को हाल ही में ध्वस्त कर दिया गया है और उसे फिर से खड़ा करने का काम चल रहा है।

त्यौहार:

हर साल मंदिर में नवरात्रि और दशहरा मनाया जाता है। सराहन गांव में दशहरे के दौरान एक बड़ा उत्सव आयोजित किया जाता है, जिसमें पशु बलि उत्सव में एक बड़ी भूमिका निभाती है।

अन्य पर्यटक आकर्षण: मंदिर परिसर के
श्री भीमा काली जी मंदिर

संग्रहालय में प्राचीन बर्तनों, हथियारों, पोशाकों आदि का अच्छा संग्रह है। पर्यटक पदम पैलेस नामक शाही निवास का भी दौरा कर सकते हैं।

हिमालयी पक्षियों की एवियरी: पक्षियों की एवियरी सह प्रजनन केंद्र 1 किमी दूर पहाड़ पर स्थापित किया गया है। मोनाल, खलीज आदि हिमालयी पक्षियों को नजदीक से देखा जा सकता है। प्रजनन काल के दौरान पक्षीशाला बंद रहती है।
Shri Bhima Kali Ji Temple 

उत्साही लोग धरनघाटी में एक और मंदिर की यात्रा कर सकते हैंसराहन से आगे. घराट से सड़क ऊंचाई पर धरनघाटी तक जाती है। उत्तर की ओर बर्फ से ढकी पर्वत शृंखलाएँ सुन्दर लगती हैं। सराहन से श्रीखंड चोटी का दृश्य दिखाई देता है, जो देवी लक्ष्मी के पैतृक निवास के रूप में प्रतिष्ठित है । ट्रेकर्स गर्मियों में शिखर पर जा सकते हैं।

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