दिनमानी कू ब्यौ
प्रस्तावना
"दिनमानी कू ब्यौ" कविता पहाड़ी संस्कृति में विवाह समारोहों की मस्ती और हलचल को दर्शाती है। इसमें विवाह के दौरान होने वाली हलचल, नाटकीयता और कुछ असंगठित घटनाओं को हास्य के साथ पेश किया गया है। यह कविता उस समय की सोच को भी उजागर करती है जब पारंपरिक विवाहों में व्यस्तता और मजेदार घटनाएँ आम थीं।

कविता: दिनमानी कू ब्यौ
वक़्त बदली मन भी, बदलिगी सब्बि धाणी,
प्यारा पहाड़ मा अब, दिन-दिन बारात जाणी,
सोचा हे सब्बि, किलै यनु ह्वै.......
ये जमाना मा ब्योलि कू बुबाजी,
डरदु छ मन मा भारी,
दिनमानी की बारात ल्ह्यावा,
समधी जी कृपा होलि तुमारी,
किलैकी अज्ग्याल का बाराती,
अनुशासनहीन होन्दा छन....
एक जगा गै थै, ब्याखुनी की बारात,
दरोळा रंगमता पौणौन, मचाई उत्पात,
फिर त क्या थौ,
खूब मचि मारपीट,
चलिन धुन्गा डौळा,
अर् कूड़ै की पठाळि,
ब्यौली का बुबान,
झट्ट उठाई थमाळि,
काटी द्यौलु आज सब्ब्यौं
बणिगी विकराल,
घराती बारातियों का ह्वैन,
बुरा हाल।
घ्याळु मचि, रोवा पिट्टी,
सब्बि बब्रैन,
चक्क्ड़ीत बराती, फट्ट भागिगैन,
बुढया खाड्या शरीफ पौणौ की,
लोळि फूटिगैन,
हराम ह्वैगि पौणख,
सब्बि भूका रैन,
वे दिन बिटि प्रसिद्ध ह्वै,
"दिनमानी कू ब्यौ"।
कविता का विश्लेषण
यह कविता विवाह समारोह की हलचल को खूबसूरती से पेश करती है। यहां पर विवाह की उत्सव की मस्ती, अव्यवस्था और आमंत्रित बारातियों के बीच की नोकझोंक को दर्शाया गया है। यह दिखाता है कि कैसे हर कोई उत्सव का आनंद लेने में व्यस्त रहता है, भले ही परिस्थितियाँ असामान्य क्यों न हों।
निष्कर्ष
"दिनमानी कू ब्यौ" न केवल एक मजेदार कविता है, बल्कि यह हमें पहाड़ी संस्कृति के सामूहिक उत्सवों की याद दिलाती है। इसे पढ़कर हमें यह समझ में आता है कि भले ही हालात कैसे भी हों, पर्वों और समारोहों का आनंद हमेशा यादगार रहता है।
आपके विचार:
क्या आपने कभी ऐसे विवाह समारोहों का अनुभव किया है जहाँ कुछ अनोखी और मजेदार घटनाएँ हुई हों? अपने अनुभव साझा करें और इस कविता को अपने दोस्तों और परिवार के साथ बांटें!
यहाँ भी पढ़े
टिप्पणियाँ