हमारू पहाड़
प्रस्तावना
हमारा पहाड़, हमारी पहचान और संस्कृति का प्रतीक है। पर आज यह नाराज है। इस कविता के माध्यम से कवि ने पहाड़ की नाराजगी को बयां किया है, जो मानव व्यवहार और प्रकृति के साथ उसके क्रूर व्यवहार का परिणाम है।
कविता: हमारू पहाड़
भावार्थ:
कविता में पहाड़ की नाराजगी का कारण मानव के क्रूर व्यवहार को बताया गया है। पहाड़, जो सदियों से मानवता की सेवा करता आया है, आज उसकी पीठ पर घावों का बोझ उठाए हुए है। यह कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम अपनी जड़ों को भूल रहे हैं?

कविता के अंश:
हमारू पहाड़
आज नाराज किलै छ,
सोचा दौं हे लठ्याळौं,
किलै औणु छ आज,
बल गुस्सा वे सनै?
रड़ना झड़ना छन,
बिटा, पाखा अर भेळ,
भगतणा छन पर्वतजन,
प्रकृति की मार,
कनुकै रलु पर्वतजन,
पहाड़ का धोरा?
जरूर हमारू पहाड़,
आज नाराज छ,
इंसान कू व्यवहार,
भलु निछ वैका दगड़ा,
नि करदु वैकु सृंगार,
करदु छ क्रूर व्यवहार,
हरियाली विहीन होणु छ,
आग भी लगौंदा छन,
पहाड़ की पीठ फर,
चीरा भी लगौंदा छन,
घाव भी देन्दा छन,
ये कारण सी होणु छ,
गुस्सा "हमारू पहाड़".
पहाड़ की समस्याएँ
कविता में वर्णित समस्याएँ सिर्फ पहाड़ की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की समस्याएँ हैं। मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्तियों ने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। हरियाली का क्षय, जंगलों में आग लगना और पर्वतों का कटना—ये सभी हमारे भविष्य के लिए खतरे की घंटी हैं।
निष्कर्ष
"हमारू पहाड़" कविता हमें यह सिखाती है कि हमें अपने पर्यावरण और पहाड़ों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। यह समय है कि हम अपनी मानसिकता में बदलाव लाएँ और प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनें।
आपके विचार:
क्या आपको भी लगता है कि मानवता ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है? अपने विचार हमारे साथ साझा करें!
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