उत्तराखंड में - In Uttarakhand

उत्तराखंड में

प्रस्तावना
यह कविता "उत्तराखंड में" पर्यावरणीय संकट, जल संकट, और सामाजिक बदलावों पर प्रकाश डालती है। इसमें उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ वहाँ की संस्कृति और विकास के मुद्दों का भी जिक्र किया गया है।


कविता: उत्तराखंड में

जल रहे हैं जंगल, धधक रही है ज्वाला,
देख रहे हैं उत्तराखंडी, कौन बुझाने वाला?

तरस रहे हैं उत्तराखंडी, सूख गया है पानी,
प्यासे हैं जलस्रोत भी, किसने की नादानी?

तप रही है धरती, गायब है हरयाली,
हे पहाड़ का मन्ख्यौं, तुम्न क्या करयाली?

पर्यटकों की हलचल, भाग रही हैं गाड़ी,
कूड़ा करकट फेंक रहे, सचमुच में अनाड़ी।

रोजगार गारंटी योजना, सर्वे सर्वा हैं प्रधान,
पहाड़ के सतत विकास का, यह कैसा समाधान?

मोबाइल संस्कृति छाई है, क्या बुढ़या क्या ज्वान,
पहाड़ की संस्कृति हो गयी, बीमार के सामान।

पहाड़ प्रेमी होने के कारण, घूमने गया गढ़वाल,
देखा अपनी आँखों से जो, मन में उठे सवाल।


निष्कर्ष

यह कविता उत्तराखंड की जलवायु, पर्यावरण, और संस्कृति की स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त करती है। कवि की भावनाएँ दर्शाती हैं कि कैसे विकास और आधुनिकता ने पहाड़ों की पारंपरिक जीवनशैली और प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित किया है।

आपके विचार:
आपके अनुसार उत्तराखंड की पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान क्या हो सकता है? अपने विचारों को साझा करें और इस कविता को अपने साथियों के साथ बांटें!

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