गाँव छोड़ शहर को धावे
प्रस्तावना
"गाँव छोड़ शहर को धावे" एक विचारोत्तेजक कविता है, जो गांव से शहर की ओर जाने वाले लोगों की मनोवृत्ति और अनुभवों को दर्शाती है। इस कविता के माध्यम से कवि ने शहर के जीवन की चुनौतियों और वहाँ के अपनों से दूर होने के दुःख को अभिव्यक्त किया है।

कविता: गाँव छोड़ शहर को धावे
गाँव छोड़ शहर को धावे
करने अपने सपने साकार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
निरख शहर में जन-जन को
टूट जाता अरमां भरा दिल
भटक रहें हैं शहर शहर
पर पा न सके मंजिल
अपनेपन का अभाव दिखता
विलुप्त हुआ यहाँ सदाचार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
निज स्वार्थपूर्ति में लगे सब
अब यहाँ कौन करता भला उपकार
ढूंढ़ रहे हैं यहाँ अपनापन
पर मिले कहाँ अब अपना प्यार
अरमानों की गठरी लादे हुए
भटक रहे हैं बनकर बेरोजगार
खो चुकें हैं भीड़-भाड़ में
आकर बन बैठें हैं लाचार
कविता का विश्लेषण
इस कविता में कवि ने शहर के जीवन की कठिनाइयों को बारीकी से दर्शाया है। गांव के शांत और सुखद जीवन को छोड़कर लोग शहर की भागदौड़ में फंस जाते हैं, जहाँ न तो अपनापन मिलता है और न ही सुख-शांति। यहाँ, हर व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा रहता है, और इस सब के बीच अपने प्यार और संबंधों की कमी महसूस होती है।
निष्कर्ष
"गाँव छोड़ शहर को धावे" कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सच में हम अपने सपनों को पाने के लिए अपने मूल स्थान को छोड़कर बेहतर जीवन की खोज में सही दिशा में जा रहे हैं? यह कविता एक अनोखी सच्चाई को उजागर करती है, जो आज की सामाजिक स्थिति पर एक गहरा सवाल उठाती है।
आपके विचार:
क्या आप भी शहर के जीवन में ऐसे अनुभवों का सामना कर चुके हैं? अपने विचार साझा करें और इस कविता के बारे में अपने दोस्तों के साथ चर्चा करें!
यहाँ भी पढ़े
टिप्पणियाँ