द्वाराहाट, चम्पावत, अल्मोड़ा देहरादून
द्वाराहाट
पाली की मल्ला दोरापट्टी की समतल शोभनीय भूमि पर बसा द्वाराहाट एक ऐतिहासिक स्थल है। यह स्थल कत्युरियों की पाली पछाऊँ शाखा की राजधानी थी। यहाँ उनके मन्दिर तथा न्यायालय आदि के होने का उल्लेख प्राप्त होता है। अनुश्रुतियों में, चांचरी (चन्द्रगिरी) पहाड़ी पर अवस्थित वर्तमान 'थर्प' को इन्हीं के राजभवन का ध्वंसावशेष बताया जाता है। यहाँ पर कत्यूरीकाल के लगभग 30 देवालय हैं। ये सभी मन्दिर समूह आठ समूह में विभक्त किए जा सकते हैं यथा ध्वज मन्दिर, रतनदेवल के सात मन्दिर, कचहरी समूह के 12 मन्दिर, मनियान समूह, मृत्युंजय समूह, अर्चाधीन बदरीनाथ मन्दिर, कुटुम्बड़ी समूह एवं बणदेवाल इत्यादि । प्रत्येक देवालय में पानी की सुविधा हेतु नौला, कूप अथवा पोखर बना है। द्वाराहाट के निकट ही स्यालदा जाति के राजपूतों द्वारा निर्मित स्यालदे पोखर है। यहाँ के देवालयों से हमें अनंतपाल का कालिकामूर्ति लेख, थलकुर्क वापी लेख, गणेशमूर्ति लेख दनगिरि देवमूर्ति लेख, सोमदेव का वापी लेख इत्यादि कई लेख भी प्राप्त होते हैं।

• चम्पावत
वर्तमान में चंपावत नाम का उत्तराखण्ड राज्य का सबसे छोटा जनपद है। इसका प्राचीन नाम चम्पावती था जो कि चंद राजाओं की प्राचीनतम् राजधानी थी। यहाँ से चंदो के प्राचीन दुर्ग सम्भवतः कोटलगढ़ के अवशेष राजबूंगी नाम के टीले से प्राप्त होते है। इसकी प्रस्तर प्राचीर अत्यंत सुदृढ एवं कलात्मक है। यहाँ के बालीश्वर-सुग्रीवेश्वर तथा चंपादेवी-रत्नेश्वर मन्दिर में एक साथ दो गर्भगृह हैं। इन मन्दिरों से भी चंदकालीन लेख मिलते हैं यथा तारचंद का भित्तिलेख, अभयचंद के तीन लेख, ज्ञानचंद के लेख के अलावा बाजबहादुर का ताम्रपत्र, जगतचंद का ताम्रपत्र, उद्योगचंद का ताम्रपत्र इत्यादि लेख प्राप्त हुए हैं। कालान्तर में अंग्रेजों ने गोरखों से इसे छीनकर इसके उत्तर में लोहाघाट में छावनी की स्थापना की।
अल्मोड़ा
प्राचीन वैदिक ग्रंथ मानसखंड में वर्णित अल्मोड़ा को काषाय् पर्वत पुकारा गया है। यह तीन ओर से कोसी और सुयाल नदियों की गहरी घाटियों से घिरा एक प्राकृतिक दुर्ग है। चंद शासकों ने चंपावत से अपनी राजधानी यहाँ स्थानान्तरित की थी। विभिन्न तथ्यों से इसके निर्माण की अवधि 1544-45 ई0 के आस-पास ठहरती है। चंद अभिलेखों से इस नगर के लिए आलमनगर या राजपुर नाम भी प्रयुक्त हुआ है। नगर के पूर्व में कत्युरियों का खगमराकोट दुर्ग, मध्य में बहादुरचंद निर्मित 'मल्ला महल' एवं छावनी के अंदर प्रस्तर निर्मित लालमंडी का किला (Fort Moyeara) है। चंद काल में यह नगर साहित्य एवं ललित कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा। महाकवि भूषण एवं मतिराम भी यहाँ कुछ समय रहे। 1743 ई0 में रोहिल्लों ने यहाँ लूटपाट की। 1790 ई० में गोरखों द्वारा अधिकृत हुआ। 1815 ई0 को इस पर अंग्रेजी नियत्रंण स्थापित हुआ।
कुमाऊँ मण्डल का प्रथम इंटर कालेज "रामजे-कॉलिजिएट 1817 ई0 में यहीं स्थापित हुआ। अल्मोड़ा नगर के आस-पास से लखु उड्यार के अवशेष, कसारदेवी का ब्रह्मी लेख, कट्टारमल का सूर्य देवाल एवं विन्सर जैसे ऐतिहासिक स्थल अवस्थित हैं।
• देहरादून
नवगठित उत्तराखंड राज्य की अस्थायी राजधानी एवं राज्य का सबसे बड़ा नगर देहरादून है। शुंग कालीन मृणमुद्रा पर इसके लिए 'द्रोणीघाटे' अंकित है। एक किवदंती के अनसार प्राचीनकाल में कुणिदों का इस क्षेत्र पर अधिकार था। कालान्तर में राजा विराट का इस क्षेत्र पर नियंत्रण रहा जिसकी राजधानी 'वैराट' अथवा वैराठगढी के अवशेष वर्तमान कालसी के आस-पास से प्राप्य हैं। महाभारत काल में पांडवो ने भी इसी क्षेत्र में वास किया था जिसके साक्ष्य लाखामंडल से मिलते हैं। कालसी में यमुना नदी तट से अशोक का प्रस्तर- शिलालेख भी प्राप्त है। कालांतर में रुहेला सरदार नजीबुदौला ने इस क्षेत्र पर अधिकार किया।
संस्कृत के शब्द द्रोणी से कालांतर में इस संपूर्ण क्षेत्र को दूण अथवा दून कहा जाने लगा। वर्तमान शहर की स्थापना श्री गुरू राम राय जी ने टिहरी नरेश फतेशाह से प्राप्त तीन ग्राम खुड़बुड़ा, राजपुर और चमासरी के साथ की। इन ग्रामों का अनुदान गुरू राम राय को तत्कालीन मुगल शासक औरंगजेब की संस्तुति पर गढदेश के राजा ने किया था। गुरू राम राय सातवें सिक्ख गुरू हर राय के सबसे बड़े पुत्र थे। उन्होंने धामावाला में अपना डेरा
स्थापित किया था। कहा जाता है उनके दून में डेरा स्थापित करने के बाद ही इस क्षेत्र को डेरादून एवं देहरादून कहा जाने लगा। नवंबर 1815 ई0 को यह क्षेत्र गोरखा नियंत्रण से मुक्त होकर अंग्रेजी नियंत्रण में आया और इसको सहारनपुर जिले का हिस्सा बनाया गया। 1825 ई0 में इसे कुमाऊँ प्रात के अधीन कर दिया गया। जुलाई 1828 को कर्नल यंग ने लढ़ौरा (मसूरी) में छावनी की स्थापना की। शीघ्र ही जून 1829 को इसे यंग के अधीन स्वतंत्र जिला बना दिया गया और मेरठ डिविजन से संबद्ध कर दिया गया।
इस बीच कृषकों की गिरती स्थिति के कारण इस क्षेत्र में विद्रोह भी हुए। इनमें सबसे संगठित विद्रोह कलुआ गुजर के नेतृत्व में दून और उसके आस-पास के गूजर कृषकों ने किया। इस कार्य में कलुआ को काउर और भूरा जैसे दो मजबूत सहयोगी भी मिले। कलुआ के अधीन गूजर कृषको ने स्वयं के लिए राजाग्राम में किलेबंद मुख्यालय तैयार किया। कुंजा युद्ध के आरम्भ में ही कलुआ की मृत्यु और भुरा के चोटिल हो जाने बाद अन्ततः काउर भी पकड़ा गया और इस प्रकार अंग्रेजों के विरूद्ध आरम्भ हुए संगाठित कृषक आन्दोलन का अंत हो गया।

कालान्तर में यह क्षेत्र अंग्रेजों को इतना भाया कि उन्होंने सितंबर 1878 में यहीं पर इम्पीरियल फॉरेस्ट स्कूल एवं इसी वर्ष सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना की। वर्ष 1932 में सैन्य अफसरों के प्रशिक्षण के लिए भारतीय सैन्य अकादमी स्थापित की गई।
शिक्षा के क्षेत्र में दयानंद एंग्लो वैदिक सोसाइटी ने 1902 ई० में यहाँ एक संस्कृत विद्यालय स्थापित किया जो आज डी.ए.वी कॉलेज के नाम से शिक्षा का एक बड़ा केंद्र है। एम. केपी (1902 ई0), दून स्कूल (1935 ई0) के अतिरिक्त वर्तमान में एस.जी.आर. आर. (पी.जी.) कॉलेज, एस.जी.आर.आर.आई.टी.एस, ग्राफिक एरा, डी. आई.टी, महंत इन्द्रेश हॉस्पीटल, हिमालयन हॉस्पीटल इत्यादि महत्वपूर्ण संस्थान उच्च शिक्षा के लिए कार्यरत है। स्कूली शिक्षा के लिए तो यह ब्रिटिश काल में ही प्रसिद्धि पा चुका था।
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