गढ़वाली लोक गीत स्वरूप एवं साहित्य (Garhwali Folk Songs: Forms and Literature)

 Garhwali Folk Songs: Forms and Literature

गढ़वाली लोक साहित्य का परिचय

गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप

गढ़वाली लोक गीत : स्वरुप एवं साहित्य 

गढ़वाली लोक गाथाएं : स्वरुप एवं साहित्य

गढ़वाली लोक कथाएं : स्वरुप एवं साहित्य

गढ़वाली लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तियां

गढ़वाली लोक साहित्य का वर्तमान स्वरूप एवं समस्याएं

कुमाउनी लोकसाहित्य का परिचय

कुमाउनी लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप

कुमाउनी लोक गीत : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य

कुमाउनी लोक कथाएं : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य

कुमाउनी लोक कथाएं : इतिहास, स्वरुप एवं साहित्य

कुमाउनी लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तिया

गढ़वाली लोक गीत स्वरूप एवं साहित्य
  1.  प्रस्तावना
  2. उद्देश्य
  3.  गढ़वाली लोक गीत : एक परिचय
  • गढ़वाली लोक गीतों का वर्गीकरण
  •  गढ़वाली लोक गाथागीतों की प्रमुख विशेषताएं
  •  गढ़वाली लोक गाथागीतों की प्रमुख प्रवृत्तियां
  •  गढ़वाली लोकगीतों की प्रमुख प्रवृत्तियां 
  • चांचड़ी' लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएं
4 . सारांश
5 . अभ्यास प्रश्न
6 . पारिभाषिक शब्दावली
7 . अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
8 . संदर्भ ग्रंथ सूची
9 . सहायक उपयोगी पाठ्य सामग्री
10 . निबन्धात्मक प्रश्न
प्रस्तावना
गढ़वाल अने प्राकृतिक सौन्दर्य, धार्मिक स्थानों का केन्द्र स्थल और सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक विरासत के कारण सर्वत्र पहचाना जाता है। हिमालय के पांच खण्डों में एक खण्ड केदारखण्ड है। यही आज गढ़वाल मंडल है। प्राचीन साहित्य में इसे इलावृत्त, ब्रह्मपुर, उत्तराखण्ड, रुद्रहिमालय, चुल्ल हिमवन्त, कृतपुर, कार्तिकेयपुर के नाम से अभिहित किया गया है। गढ़वाल नाम सम्भवत 1500ई. पूर्व जब अजयपाल ने छोटे-छोटे बावन गढ़ों को जीतकर अपने एकछत्र राज्य की नींव डाली, तब से प्रकाश में आया है। सम्भवतः गढ़ों की अधिकता के कारण या गढ़ों वाला प्रदेश होने से इसका नाम गढ़वाल पड़ा होगा। इस नाम के पड़ने पर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। इसका अध्ययन संक्षेप में आप पन्द्रहवी इकाई में कर चुके हैं। यहां के प्राचीन निवासी कौन थे, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ वर्षों में मध्य हिमालय में जो पुरातात्विक उत्खनन हुये उनसे कुछ प्रमाण जरुर मिले है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रागैतिहासिक काल में यह क्षेत्र यक्ष, किन्नर, गंधर्व, नाग, किरात, कोल, तंगण, कुलिन्द, खस आदि जातियों की निवास भूमि रहा है। गढ़वाल में यक्ष पूजा के अवशेष मिलते हैं। गढ़वाल के रबाई क्षेत्र में बसने वाले किन्नौर कहलाते हैं। किरात कुमांऊ, नेपाल, और गढ़वाल में राजी या राज किरात या किरांती नाम से जाने जाते है। भील कभी भिल्डा नाम से जाने जाते थे। भिलंग, भिलंगना, भल्डियाना नाम वाले अनेक स्थान आज भी गढ़वाल में है। साथ ही नागों के स्थान की सूचक नागपुर पट्टी यही गढ़वाल में है। बाद में राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल और दक्षिण से भी यहां लोग आये और बस गये। उत्तराखण्ड की भाषा गढ़वाली में द्रविड, कोल, नाग आदि जातियों की भाषाओं का सम्मिश्रण स्पष्ट दिखता है। कई नृवंशों की छाप गढ़वाली शब्द सम्पदा में शब्द रुप में तथा समाज में सांस्कृतिक मेलापक के रूप में देखी जा सकती है। भाषाओं के इस मेलापक और सांस्कृतिक घाल मेल वाले गढ़वाली लोक के लोक जीवन के बीच उपजे गीत भी उनकी वृहत सांस्कृतिक विरासत का स्मरण कराते है । डॉ० गोविन्द चातक का मत है कि लोक गीत जीवन और जगत की अभिव्यक्ति करते है । उनमें कोई विषय वर्जित नही होता है। गढ़वाल के लोकगीत भी इस सत्य के अपवाद नही है। उनका कहना है कि गढ़वाल के कुछ नृत्यों के आधार पर वर्गीकृत हुए है। छोपती, तान्दी, थाड्या, चौंफुला, झुमैलों आदि नृत्यों के नाम हैं और उनके साथ गाये जाने वाले गीतों को भी ये ही नाम दे दिये गये है। यही बसन्ती, हरियाली, माघ, होली, दीवाली, पंचमी, ऋतु तथा त्यौहारों में पायी जाती है। जैसे चैती ऋतु गीत हैं, गढ़वाल में अब सभी संस्कार गीत उपलब्ध नहीं हैं। मृत्यु के गीत केवल रबाई जौनपुर में प्रचलित हैं। गढ़वाल में व्यापक रूप में विवाह के गीत मिलते है, उनको मांगल कहा जाता है। देवी देवताओं के नृत्यमयी उपासना के गीत जागर कहलाते है। कुछ भागों में झूड़ा और लामण गीत भी मिलते हैं। गीतों के स्थानीय नामों तथा उनके वर्ण्यविषयों में अधिकांशतः कोई आधारभूत एकता नही है। उदहारण के लिए नृत्यों पर आधारित गीतों का नामकरण गीतों के भावसाम्य उपेक्षा सा करता है। चौंफुला, झुमैलों, चांचरी, तान्दी, थाड्य आदि नृत्यगीत अपने वर्ग के गीतों की भाव तथा विषय सामग्री की एकता छादित नही करते है। जैसे कोई चौफुला प्रेम का है तो कोई लड़ाई का। वे अपने वर्ग के गीतों की ताल गति और लय का पालन तो करते हैं परन्तु भाव और विषय की अनुरूपता इनमें नही दिखती है। नृत्यों के अतिरिक्त गीतों की शैली, गाने के अवसर आदि को भी लोक ने वर्गीकरण का आधार बनाया है। प्रेमगीत इसके उदहारण है। छोपती, लामण, बाजूबन्द तथा अन्य प्रेमगीत रस की दृष्टि से एक ही कोटि में आते है। इस तरह लोकगीत गढ़वाल में प्रचलित या विभाजित वर्गीकरण में धार्मिक लोकगीत. संस्कार गीत, वीरगाथा गीत, प्रेम गीत, स्त्रियों के गीत, नीति उपदेश, व्यवहारिक ज्ञान के गीत और विवाहगीत, जनआन्दोलनों, के गीत प्रमुख हैं।

औजी' वाहक चैत के महीने में चैती' गाते हैं। हास्य -व्यंग्य, राष्ट्रीय चेतना के गीत अब विलुप्ति के कगार पर हैं। केवल आन्दोलनों के गीत सृजे जा रहे हैं । उत्तराखण्ड आन्दोलन पर श्री नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत सर्वाधिक लोकप्रिय हुए हैं और उनकी आगे भी सनातन प्रासंगिता बनी रह सकती है। बसन्त ऋतु में गाए जाने वाले गीतों चैती, बसंती, झुमैलों और खुदेड़ गीतों केसृजन की सम्भावना बनी रहेगी। बाल गीत अब समाप्त हो गए है। लोकगीतों में कभी इनकी भी तूती बोलती थी। में 'माँ' के मदर और पिता के ' डैड ' हो जाने पर माँ की लोरीवाले युगान्तर वात्सल्यमय लोकगीतों को अब सुनने को कान तरस रहे है। प्राचीन घटना मूलक गीत भी अब शेष नहीं बचे हैं। कुछ गीत मुगल और गोरखा आक्रमण के बचे हैं। आजादी के लिए जो जन आन्दोलन हुए थे उनकी स्मृति भी लोकगीतों के रुप में बची है। स्वतन्त्रता आन्दोलन के ऐतिहासिक दौर में गांधी, नेहरु, सुभाष, श्रीदेव सुमन पर लोकगीतों की रचना हुई। जन समस्याओं को लेकर भी लोकगीत लिखे गये और अब भी सर्वाधिक रूप में लिखे जा रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, बाघ, टिड्डी, अकाल, बाढ़ और आपदाओं पर पहले भी लोकगीत रचे गए और वर्तमान में भी इन पर लोकगीत रचे जा रहे हैं । देवपूजा के लोकगीत आज भी अपने जीवन्त रुप की साक्षी दे रहे हैं। पाण्डवों से सम्बन्धित पंडवा्ता, मंडाण, नागराजा को नचाने की लोकवार्ता, घंडियाल, बिनसर, कलाकार, महासभा, क्षेत्रपाल 'जाख' नरसिंह और भैरवनाथ देवी आदि जो गढ़वाल के स्थानीय लोकदेवता हैं उन पर आधारित लोकगीत, लोकवार्ता (जागर) के रूप में मौजूद हैं। गढ़वाल के ये विविध प्रकार के लोकगीत गढ़वाल की लोकमान्यता, विश्वास, धार्मिक तथा संस्कृति स्वरुप और आमोद-प्रमोद के परिचायक हैं। ये लोकगीत सचमुच गढ़वाल के लोक मानस को जानने पहचानने के ज्ञानकोष हैं।

उद्देश्य
इस इकाई का अच्छी प्रकार अध्ययन करने के बाद आप समझ सकेंगे कि

1. लोकगीत किसे कहते है और उनकी विषय वस्तु में लोकतत्व कैसे समाया रहता है ?

2. गढ़वाली लोकगीतों का स्वरूप कैसा है ?

3. डॉ0 गोविन्द चातक और मोहनलाल बाबुलकर द्वारा किया गया गढ़वाली लोकगीतों का वर्गीकरण कैसा है - क्या है ?

4. गढ़वाली लोकगीतों के पद्यात्मक साहित्य की विशेषताएं क्या है ?

5. प्रमुख गढ़वाली लोकगीत कौन-कौन से हैं ?

6. लोकगीतों के कथानक और उनकी शैली से परिचित हो सकेंगे।

7. लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएं तथा उनकी प्रवृत्तियों को जान सकेंगे।
 गढ़वाली लोक गीत : एक परिचय
लोकगीत, लोक मानस के चित्त की रागात्मक अभिव्यक्ति का स्वरूप है। मन जब हर्ष विषाद और रोमांच तथा आश्चर्य से तंरगित या क्षुब्ध होता है, तब मानव मन के ये सुप्त रागात्मक स्थाई भाव' रस में परिणित होने के लिए गीत' का रुप धारण करते हैं। गीत' में छन्द तुक और लय का विधान होता है। 'गढ़वाल' प्रकृति का एक अद्भुत उपहार है। यहां की प्रत्येक वस्तु कवितामय है। नीरव- उतुंग शिखर, हिमानी चट्टानी, बर्फीले चमकदार पहाड़, नीला विस्तृत आकाश, नयनाभिराम पशु-पक्षियों का क्रीड़ागंन गढ़वाल अपनी मोहकता से गीतों के सृजन के लिए अनाम कवियों को युगों-युगों से आमंत्रण देता रहा है । मानों अनेक लोकोत्सव और मेले त्यौहार इस देवभूमि में गीतों को बिछाते और ओढ़ते हैं। 'गीत' यहां की संस्कृति का प्राण त्व हैं। अतः संस्कारों, क्रियाओं, रीति-परिपाटियों के गीत भी अलग-अलग रूप के हैं प्रमुखतः छोपती, तान्दी, थोड्या, चौफुला, झुमैलो आदि यहां के लोक के नृत्य हैं लेकिन इन नृत्यों में जो गाया जाता है वह गीत इन्ही नृत्यों के नाम पर छोपती गीत, थाड्या गीत, तान्दी गीत चौफुला और झमैलों गीत के नाम से पहचाने जाते हैं। चौफेुंला प्रेम का गीत है तो कोई वीरता का, कोई वन्यजीव के आक्रमण का वर्णन प्रस्तुत करता है तो कोई चौफुला हास्य का पुट लिए होता है। चौफुला गीत अनेक भावों पर आश्रित होते हैं।, इनके नृत्य में हाथ, पैरों और शरीर की नृत्यमुद्रा का पद क्रम भी भिन्न-भिन्न होता है। विवाह के गीत संस्कार गीत हैं जिन्हें मांगल कहा जाता है। छोपती, लामण, बाजूबन्द आदि प्रेमगीत भाव और रस की दृष्टि से एक ही कोटि में आते हैं।

तथपि इनका युक्तिसंगत वर्गीकरण निम्नवत किया जा सकता है

1. धार्मिक गीत 2. संस्कारों के गीत 3. वीरगाथा 4. प्रेमगीत 5. स्त्रियों के गीत 6. नीति-उपदेशों वाले गीत 7. राजनीति एवं समाज सुधार और आपत्ति (अकाल, बाढ़ पशु व्याघ्रादि का आतंक) पर आधारित गीत और विविध गीत, बाल गीत आदि।

गढ़वाल में ऋतुगीतों की अपनी अलग ही पहचान है। ऋतुगीतों में चैती सर्वाधिक लोकप्रिय और परम्परागत गीत हैं। कुमांऊ में इसे ऋतुरैण (ऋतुओं की रानी) कहा जाता है। इस गीत को औजी या बादक चैत के महीने में गाते है। यही नही बादी जाति इन गीतों को गाती ही नहीं बनाती भी है। ये सब गीत, जातियों की दृष्टि से बने हैं, लेकिन ये गीत सभी में फैले हैं किसी वर्ग विशेष की सम्पत्ति नहीं हैं। भले ही एक वर्ग विशेष इनका रचियता एक गायक होता है। ये गीत उनके व्यवसायिक हित को भी साधते हैं। चैत के महीने औजी ( आवजी, बाद लड़की  (घयाण) के माईके से उसके ससुराल में जाते हैं और चैती गाकर ससुराल पक्ष से दक्षिणा प्राप्त करते हैं। ऋतुगीतों का अपना लोक पर भारी प्रभाव हैं ये काव्यात्मकता लिए हुए होते हैं। बसन्त ऋतु कर गीत प्रस्तुत है- “उलरया मैना, ऐगे खुदेड़ बसन्त, बारा रितु बौड़ी ऐन बारा फूल फूलेन!” बासलो कफ्फू मेरा मैत्यों की मैती,। यह गीत नवविवाहिता के मन को करुणा और वात्सल्य तथा श्रृंगाररस से ओत-प्रोत कर देता है। अधिकांश गीत जीवन की क्षणभंगुरता को भी प्रदर्शित करते है। छूड़ा' छोपती की अपनी विशेषताएं अलग हैं। "छूडे' भले ही प्रेम गीत नहीं हैं लेकिन अन्य विषयों के साथ मिलकर प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। 'बाजूबन्द' श्रृंगारी युगल जनों का एकान्तिक प्रेम गीत हैं। त्यौहारों के गीत, होली, चौमासे और वर्षा ऋतु में कुयेड़ी के लौंकने पर एक करुण दृश्य की संरचना कर देते हैं। विरहतप्त, पर्वतीय नारी के हृदय की कोमल भावनाएं मायके की याद में कभी अपने परदेशी पति की याद में प्रकट होकर वातावरण को गमगीन कर देती है। एक गढ़वाली गीत प्रस्तुत है-

 काला डांडा पछि बाबाजी काली छ कुयेड़ी
बाबाजी मैं यखुली लगदी डेर
यखुली मैन कनके की जाण विराणा विदेश ?
आज दिउलू बेटी तने हाथी-घोड़ा
त्वै दगड़ जाला लाडी तेरा दीदा भुला
त्वै लाड़ी मैं यखुली नी भिजौऊ"

हिन्दी भावार्थ है, "काले पर्वत के पीछे पिताजी काले बादल है। पिताजी! मुझे अकेले डर लगता है। मैं पराए देश कैसे जाउंगी। पिता कहता है- पुत्री मैं तेरे आगे पूरी बारात भेजूंगा। तेरे पीछे हाथी, घोड़े भेजूंगा। तेरे साथ बेटी तेरे भाई जायेंगे, बेटी मैं तुझे अकेले नहीं भेजूंगा। मैं तुझे गायों के गोठ दूंगा, मैं तुझे बकरियों की डार दूंगा।

झुमैलों - यह गढ़वाली नृत्यगीत गढ़वाल की धरती को जब अपने गायकों की कंठध्वनि और पैरों की क्रमागत धम्म-धम्म की ध्वनि से गुंजित करता है तब संगीत और श्रृंगार भाव का एक साथ अवतरण हो जाता है और मन में गुदगुदी होने लगती है। कहीं-कहीं पर 'करुण' रस भी चित्त को भिगों देता है। एक उदहारण प्रस्तुत है

गैन दादू झुमैलों, रितु बौडीक झुमैलो
बरा मैनों की झुमैलों, बारा बसुन्धरा झुमैलों
बारा ऋतु मा झुमैलों को रितु प्यारी झमैलों
बारा ऋतु मा झुमैलों, बसंत ऋतु प्यारी झुमैलों"।

झुमैलों गीत लड़कियों द्वारा मायके की याद में गाये जाते हैं। जिनकी टेक ही झुमैलों होती है। इनके साथ वे झूमकर नृत्य करती हैं। ये गीत बसन्त पंचमी से विषुवत संक्रान्ति तक चलते हैं।

खुंदेड़ गीत - “जै भग्यान का ब्वे बाबू होला
स्ये उंका सहारा मैतूड़ा जाला
मेरा मैत छपन्याली डाली, कुल्यां की छाया
ये पापी सैसर रुखड़ा डांडा दायां, बायां"।

अर्थात्- जिस भाग्यवान बेटी के माता-पिता होंगे वे उसे मायके बुलाएंगे। उनके सहारे वह मायके जाएगी। मेरे मायके में छतनार चीड़ के वक्षा की छाया है। इस पापी ससराल में दाएं-बाएं रुखे पर्वत ही पर्वत है।

प्रणय गीत - ये गीत अपने पति की याद में विवाहिता स्त्री द्वारा गाए जाते हैं वह गीत में अपने पति को अपना दर्द बताती है और मिलन की तड़फन जतलाती है और कालिदास की विरहिणी नायिका की तरह बादलों को देखती, नदियों, पक्षियों से अपना रैबार भेजती है। अपने प्रेमी को उलाहना भी देती है। गढ़वाली में प्रेम गीतों में देवर-भाभी, जीजा- साली के गीत बहुत प्रचलित हैं। 'बाजूबन्द' भी श्रृंगार के अतिरंजन पूर्ण मादक वर्णन भरे होते है। ये एकान्तिक, प्रेमी-प्रेमिका के मिलन-विद्रोह के गीत है।

निष्कर्षतः श्रृंगार, प्रेम, वासना, करुणा और धर्म विश्वास इन लोक गीतों का प्राणतत्व है। संगीत की मादकता और गीत की बानगी उसके बोल मन को उमंगित करने में समर्थ होते हैं उदाहरण के लिए एक गीत प्रस्तुत है

 "नाच मेरी वीरा, तेरा घुंघरू बाज्या छम 
घुगता की घोली, तेरी रुबसी धिची होली
 कुछ भर्या आंख्योन, कुछ भर्या गोलीन 
मेरों हिया भरियं, छ तेरी मीणी बोलीन"।

अर्थात्
" हे मेरे हृदय की रानी वीरा! (प्रेमिका का नाम ) तेरे घुंघरू छम-छम बजते हैं। मेरा हृदय तेरी मीठी बोली से भरा है। प्यारी। अपने हृदय पर तू चिन्ता का बोझ मत डाल तू मेरी आखों में रीठे की दानी जैसी घूमती है। तूने मुझे अपनी बांकी नजर से मार डाला है । मेरा हृदय तेरी मीठी रीठे की दानी जैसी घूमती है। तूने मुझे अपनी बांकी नजर से मार डाला है। मेरा हृदय तेरी मीठी बोली से भर गया है। तेरी खूबसूरत गोल मुखाकृति घुघते के घोल सी सुन्दर है।
निष्कर्ष - लोकगीत गढ़वाली लोक साहित्य की एक प्रमुख विधा हैं । ये लोक जीवन से उपजते हैं तथा जीव और जगत की अनुभूति करके सृजे जाते हैं। इनमें कोई भी विषय ऐसा नही हैं जो लोकगीतों के वर्ण्य विषय के अन्तर्गत न आता हो। वर्गीकरण के आधार पर इन्हें संस्कारों, रासनुभूतियों, सामाजिक क्रियाओं, रीतियों, त्यौहारों और जातियों (छन्दों गेयात्मकता) के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। गढ़वाली लोकगीत यहां के नृत्यों के आधार पर भी नामांकित किए गए हैं। जैसे - छोपती, तान्दी, थाड्यो, चौफुलों, झुमैलों आदि गढ़वाली नृत्यों के नाम है लेकिन उनके गीतों के भी इसी नाम से पुकारते हैं। विवाह के गीत, मांगल कहलाते है, संस्कार गीत' भी बहुप्रचलित है। देवी देवताओं के गीत जागर या लामण, झूड़ा गीत के रुप में प्रसिद्ध हैं। मोहनलाल बाबुलकर ने इन्हें धार्मिक गीत, संस्कार गीत, वीरगाथा, प्रेमगीत, स्त्रियों के विरह गीत, नीति उपदेश तथा व्यवहारिक ज्ञान सम्बन्धित गीत और विविध गीत के रुप में विवेचित किया गया है। औजी वादक चैती या ऋतु गीत गाते हैं। यहां हम आपकी जानकारी के लिए संक्षिप्त में इन गीत रूपों का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है। ऋतुगीत का उदहारण है -

उल्या मैनों ऐगे खुदेड़ बगत,
बार रितु बौड़ी ऐन, बार फूल फूलेन।
सरापी जायान मां जी विधाता का घर
केक पाली होलु मांजी निरासू सी फूल
गौं की नौनी स्ये गीत बासन्ती गाली
जौकी बोई होली मैतुड़ा बुलाली।

गढ़वाली पक्षी, तोता, हिलांस, कफ्फू, घुघुती बसन्त के आगमन की सूचना देते हैं। उनके स्वरों से अचेतन मन में सिहरन सी उठती है विहरणी स्त्री 'कफ्फू' पक्षी को अपने मैत (मायके) से आया पक्षी मानकर गीत गाती है

बासलों कफ्फू मेरा मैत्यों कू मैती
कफू बासलो मेरा मैत्यों की तीर।
कफू बासलो नई रीति बौड़ली
कफू बासलो मेरी ब्वे सुणली
मैकू ताई, कलेऊ भेजली।
मेरा मैती सुणला ऊं खुद लगली।

खुद' इन गीतों का मुख्य वर्ण्य विषय होता है। कुमाऊनी में इसे नराई' कहते है। लोक साहित्य में हिलांस, कफ्फू, धुधती आदि पक्षी नारी उत्पीड़न के प्रतीक के रूप में लोक धारणा में घर किए हुए हैं। इनके जीवन में गढ़वाली नारी अपने ही अन्तर्मन की छाया पाती है। धुधती के विषय में एक जनश्रुति यह भी है कि उसकी विमाता (कही सास) ने उसे जब वह नारी थी मारा था। आज भी वह पक्षी बनकर के 'धुधती' वासूती (मां सोई है) पुकारती हुई अपनी मां को खोजती है।

गढ़वाली गीत प्रेम से भी लबालब भरे होते हैं। एक छोपती गीत प्रस्तुत है

काखड़ की सीगी, मेरी भग्यानी हो,
रातू कु सुपिमा देखि, मेरी भग्यानी हो,
दिन आख्यूं रींगी, मेरी भग्यानी हो,
ढोल की लाकूड़ी मेरी भग्यानी हो, 
तू इनी दिखेन्दी, मेरी भग्यानी हो,

छोपती में संयोग-वियोग दोनों अवस्थाएं मिलती है प्रेमगीतों के अन्तर्गत 'बाजूबन्द' में भी छोपती के समान ही संवादगीत होते हैं। अन्तर इतना है कि छोपती चौक में नृत्य के साथ समूह में गाई जाती है और बाजूबन्द दो स्त्री- पुरुष के बीच निजता के साथ वनों के एकान्त में गाए जाते हैं। ‘छुड़े प्रेमगीत तो नहीं है पर उनमें अन्य विषयों के साथ प्रेम की अभिव्यक्ति भी होती है। मूलतः वे सूत्र रुप में गठित सूक्ति गीत कहे जा सकते है इनमें कुछ गीत जीवन और जगत की क्षणभंगुरता पर आश्रित है। कुछ गीत भेड़ पालकों के जीवन पर आधारित है। कुछ प्रेम सम्बन्धी है और कुछ नीति, आदेश या उपदेश सम्बन्धी इनके नायक वे ही प्रेमी-प्रेमिका होते है जो जीवन में किसी पीड़ा को लेकर जी रहे है। कई गीत समायिक समस्याओं पर भी रचे जाते है। त्यौहारों के गीत, आन्दोलनों के गीत, हास्य-व्यंग्य गीत, बाल गीत आदि। स्वतन्त्रता आन्दोलनों के दौर में गांधी, नेहरु, सुभाष पर गीत बने, अकाल, टिड्डी दल, गरीबी, बेरोजगारी गीतों के विषय बनते रहे है, जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

गढ़वाली लोक गीतों का वर्गीकरण 
मोहनलाल बाबुलकर का लोकगीतों का वर्गीकरण वैज्ञानिक है। संक्षेप में उनका वर्गीकरण देखिए
संस्कारों के गीत

जन्म
विवाह
मृत्यु

देवी-देवताओं के स्तुति गीत

होली गीत
नगेला गीत
गंगा माई के गीत
देवी के गीत
भूमि पूजन के गीत
कूर्म देवता के गीत
हरियाली के गीत
हनुमान पूजा गीत
हील प्रस्तुति
खितरपाल पूजन गीत
अग्नि के गीत

खुदेड़ गीत

भाई के सम्बोधित गीत

सास, ननद, जेठानी की निन्दा से सम्बन्धित गीत 
भादो और असूज, चैत के महीने गाए जाने वाले गीत
फल-फूलों को सम्बोधित गीत
मां को सम्बोधित बेटी के गीत
मायके को सम्बोधित बेटी के गीत

विरह गीत

सामूहिक गीत
थड्या, 
चौफुला

तंत्र-मंत्र के गीत

रखौली
समौण
सैठाली
नुखेल
प्रभाव मोचक गीत

लघु गीत

बाल गीत (लोरियां)
अक्कू-मक्कू
अरगण-बरगण
घुघती-वासूती
नौनीकती वीस

वादियों के गीत

घोंघा
भामा
र्यूजी
छुमा
कुसुमाकोलिन
जीजा-साली
लसकमरी
डिबली भकम वम सरैला
 गणेसी, हे यारि रिजरा, गयेली आदि

एवं सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक परिस्थितियों पर आधारित गीत

1.  युद्धगीत एवं दानियों पर आधारित गीत।

2. नया जमाना।

3. नेता विषयक गीत।

4. आर्थिक संकट के गीत।

5. संक्रान्ति के गीत।

6. स्थानीय विषयों पर सम्बन्धित गीत।

 गढ़वाली लोक गाथागीतों की प्रमुख विशेषताएं
लोकगाथा गीत के लिए अंग्रेजी में बैलेड' शब्द का प्रयोग किया जाता है। शब्दकोष

के अनुसार- बैलेड वह स्फूर्तिदायक या रोचक कविता है, जिसको कोई जनप्रिय आख्यान रोचक ढंग से वर्णित होता है। इसी प्रकार प्रोफेसर किटरेज न बैलेड को ऐसा गीत कहा है- जिसमें कोई कहानी हो अथवा वह कहानी हो, जो गीत के माध्यम से व्यक्त की गई हो"। डॉ0 सत्येन्द्र लोकगाथा गीत में कथा और गेयता को अनिवार्य मानते है। कतिपय अन्य विद्वानों ने भी लोकगाथा गीत की परिभाषा में मौखिक परम्परा और अज्ञात स्वयिताओं को भी सम्मिलित किया है। डॉ0 दिनेश चन्द्र बलूनी के अनुसार, *मानव सभ्यता के साथ-साथ नृत्यों, गीतों एवं गाथाओं का विकास हुआ होगा। जो मौखिक परम्परा के आधार पर श्रुतिरुप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते गये। मौखिक परम्परा के आधार पर ही ये लोक जीवन में फैले हुए हैं। अस्तु उनमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन का पूरा समय मिलता रहा है । इसलिए लोकगाथा गीतों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि लिपिबद्ध करने पर इनकी गति एवं प्रगति रुक जायेगी, क्योकि लोकगाथा गीतों की जीवनशक्ति उनकी मौखिक परम्परा में ही निहित है। यह भी देखने में आता है कि कतिपय लोकगाथा गीतों का आदान-प्रदान स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं किया जाता है, ऐसे लोकगायक अपनी विद्या को प्रायः निश्चित् शिष्य परम्परा को ही देना चाहते है। क्योंकि इनके पीछे धार्मिक भावना और पवित्रता से जुड़ी हुई भावना निहित रहती है। फलत: कई लोकगाथाएंमंत्रों के समान अकाल-काल कवलित भी हो गई है। इस प्रकार लोकगाथा गी' लिखित और अलिखित गेय काव्य रचना है, जिसमें किसी लोक प्रिय आख्यान, घटना अथवा नायक के वर्णन के साथ-साथ ऐतिहासिक जो प्रायः विवादग्रस्त होती है। उत्तराखण्ड गढ़वाल में लोकगाथा गीतों की एक समृद्ध परम्परा है। इन गाथा गीतों की कुछ प्रमुख प्रवृत्तियां इस प्रकार है।
  गढ़वाली लोक गाथागीतों की प्रमुख प्रवृत्तियां
1. संगीतात्मक- गढ़वाल के गाथागीत गेय और छन्दबद्ध होते है। गेय होना लोक गाथा गीत की प्रमुख विशेषता है। इसके सम्बन्ध में डॉ0 प्रयाग जोशी का कथन है कि गाथा की रंगत गाने में है, कहने में नहीं"। गायन की परिपाटियां (लोकधुने) लोक में पीढ़ियों से निर्धारित है। उसमें सहजता और सरलता लाना लोक गायकों का अपना व्यक्तिगत गुण है। यहां तक कि गाथा का अर्थ समझे बिना भी मात्र लय के आधार पर करुणा, श्रृंगार, वीर और अन्य भावों की स्थिति का अनुमान किया जा सकता है। गाथागायन में अधिकांशत रुप से गायक किसी न किसी वाद्य प्रयोग करता है। राग-रागिणियों की शास्त्रीय विशेषताओं से परिचित न होन पर भी गाथागायकों का स्वर सधा हुआ रहता है। "इससे प्रतीत होता है कि रचना-विधान के लचीले होने के कारण भी लोकगाथा गीत को इच्छित राग में ढाला जा सकता है। गढ़वाल के लोकगीतों में संगीत के साथ-साथ नृत्य का भी विधान मिलता है।

2. टेकपद की पुनरावृत्ति - लोकगाथा गीतों की सबसे बड़ी विशेषता टेकपद की पुनरावृत्ति मानी जाती है। डॉ0 उपाध्याय का मानना है कि गीतों की जितनी बार दुहराया जाए उतना ही उनमें आनन्द आता है। इन टेक पदों की आवृत्ति से गीत अत्यधिक संगीतात्मक होकर श्रोताओं को आनन्द प्रदान करते है। उदहारण के लिए पांडव गीत गाथा का एक गाथा गीत प्रस्तुत है

“कोंती माता सुपिन ह्वे गए, ताछुम, ताछुम

ओड-नोड आवा मेरा पांच पंडक ताळम तालम
तुम जावा पंडा गैंडा की खोज, ताछुम, ताछुम

सरादक चैंद गैंडा की खाल, ताछुम, ताछुम"।

समूह में गाए जाने वाले गाथा गीतों में गायक जब एक कड़ी गाता है, तो समूह के लोग टेकपद को दुहराते हैं। पुनः पुनः टेकपद की आवृत्ति से श्रोता गीत के भाव को समग्रता के साथ ग्रहण करने में सक्षम होता है।

दीर्धकथानक- लोकगाथा गीत का आरम्भिक रुप चाहे जैसा भी रहा हो, कालान्तर में उनके कथानक दीर्ध होते गये, इसका कारण यह भी है ये गाथाएं अतीत में श्रुतिपरम्परा के आधार पर एक गायक ये दूसरी तथा दूसरी से तीसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रही हैं। हस्तान्तरण के इस क्रम में मूल गाथा गीत के रुप के स्वरुप में कितना परिवर्तन होता है। इसे कहना कठिन है। लोकगाथा द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों के साथ पौराणिक आख्यानों को जोड़करगाथा में प्रस्तुत कर देने से उनमें अमानवीय तथा पराप्राकृतिक तत्वों का समावेश हो गया, मूल गाथा के स्वरुप में इससे परिवर्तन तो आया ही उसका विस्तार भी हो गया। इस तरह लोकगाथा गीतों का कलेवर बढ़ता रहा है, और अतिशयोक्तियां भी इन गीतों के वर्ण्य विषयों की मूल आवश्यकता बन गई।

4. जनभाषा का प्रयोग- लोकगाथा की भाषा चिर नूतन रहती है। इसकी भाषा लोकगाथा के जीवन्त रूप का प्रतिनिधित्व करती है। लोकगाथा गीतों का प्रचार- प्रसार मौखिक परम्परा से होता है। अतः इस परम्परा में अप्रचलित शब्दों के स्थान पर गायक प्रचलित शब्दों का प्रयोग सहज भाव से करता है। गढ़वाल के लोक कथा गीतों में गढ़वाली भाषा-बोली की मिठास गाथागायन में सर्वत्र मिलती है। 
5. स्थानीय विशेषताएं- लोकगाथा गीत स्थान विशेष की संस्कृति और उसकी परम्पराओं का दिक्दर्शन भी कराते हैं। क्योकि लोकगाथाएं जीवन्त साहित्य का उत्कृष्ट रूप होती है। वे जहां-जहां पहुंचती है वहां की स्थानीय विशेषताओं को अपने में समाहित कर लेती हैं। स्थानीय वातावरण की सृष्टि करना ही लोकगाथा गीत की सबसे बड़ी विशेषता है, यदि स्थानीय वातावरण एवं देश काल की छाप लोकगाथा में नहीं है तो वह लोकप्रियता अर्जित नहीं कर पाती है। यहां आपकी जानकारी और इस मत की पुष्टि के लिए हम उदहारणार्थ गंगू रमोला की लोकगाथा को प्रस्तुत कर रहे है

रमोली - द्वारिकाधीश कृष्ण को स्वप्न में गंगू का राज्य दिखाई देता है। कृष्ण ने गंगू से दो गज भूमि तपस्या के लिए मांगी, किन्तु उसने देने में आना-कानी कर दी । वह समझता था कि कृष्ण आज दो गज भूमि मांग रहा है कल पूरा राज्य मांग लेगा। गंगू की लक्ष्मी, बकरी के सिर में निवास करती थी। बकरी बाहर वीसी रेवड़ के साथ कुलानी पाताल चरने गई थी। कृष्ण ने उसी जंगल में प्रवेश किया और दिव्य बांसुरी से लक्ष्मी मोहिनी सुर बजाया, बकरी श्रीकृष्ण के पीछे- पीछे खिंचती चली आई। गंगू की लक्ष्मी का हरण कर कृष्ण अपनी द्वारिका लौट गए। इस प्रसंग में 'स्थानीयता' रमोली की रमणीय भूमि कुलानी पाताल बकरियां आदि स्थानीय वातावरण को प्रस्तत कर रही है। जिससे लोकगाथा सीधे रमोली उत्तराखण्ड गढ़वाल से सीधे जड़ गई है।लोकभाषा के शब्द भी स्थानीयता को प्रस्तुत करने में सहायक होते है। जुड़ गई है।

6. उपदेशात्मक प्रसंगों का अभाव- गढ़वाल की इन लोकगाथा गीतों में संस्कृत की नीति कथाओं का नीति श्लोकों की तरह उपदेशात्मक नहीं मिलती है। लोकगाथा में अत्याचारी को उसके दुष्कर्म के लिए दण्डित किए जाने की बात अवश्य वर्णित रहती है, त्यागी-तपस्वी और परोपकारी व्यक्ति की प्रशंसा मिलती है। गाथागायक लोकगाथाओं को सुनाते हुए धर्म की रक्षा, और अधर्म के नाश को जोर देकर श्रोताओं तक पहुंचाता है। ताकि लोक इन लोकगाथाओं से अच्छी शिक्षा ले सकें और बुरी आदतों को छोड़ सके।

7. संदिग्ध ऐतिहासिकता - गढ़वाली की लोकगाथाएं गीत रूप में भी प्राप्त होती है। इनमें अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन मिलते हैं। भले ही पात्र इतिहास और पुराणों से लिए होते हैं लेकिनउसके पराक्रम दान, ज्ञान और अन्य जीवन व्यापार इतने अतिरंजित कर वर्णित किए जाते हैं कि वें इतिहास न होकर तिलस्मी पात्र जान पड़ते हैं। अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों में इतिहास गौण पड़ जाता है और ये पूरी तरह काव्यानिक प्रतीत होने लगती हैं। इसका कारण श्रुत परम्परा से धटनाओं का विस्तृत होना माना जा सकता है। इनमें इतिहास तत्व, संकेत मात्र रह जाता है।

8. मौखिक परम्परा - लोकगाथा गीत लोकगाथा गीत के अनाम रचयिता के मुख से लोक में उतरते हैं, ये लिखित नहीं बल्कि श्रुत होते हैं अतः परम्परा से सुने जाने के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चलते रहते हैं। इनेक लोकगाथा गीत अब भी अलिखित अवस्था में हैं और परम्परागत लोकगायकों द्वारा मौखिक रूप से गाए जा रहे हैं। इसके सम्बन्ध में विद्वानों ने यह तर्क दिया है कि लोकगाथा गीत तभी तक जीवित रहते हैं जब तक उनकी मौखिक (वाचिक) परम्परा है। लिपिबद्ध होने पर उनका विकास रूक जाता है। यद्यपि डॉ0 गोविन्द चातक, मोहनलाल बाबुलकर, डॉ0 प्रयाग जोशी आदि ने कुछ लोकगाथा गीतों को संग्रहीत करने का प्रयास किया है फिर भी लिपिबद्ध लोकगाथा गीतों की संख्या बहुत कम है। 

9. लोकरुचि के विषय - ये गढ़वाली लोकगाथा गीत लोक रूचि के अनुसार, प्रेम, त्याग, बलिदान, भक्ति आदि धर्म के मूलतत्वों पर आधारित होने से लोकरुचि को जाग्रत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते है। इन भावनाओं को गेय और काव्यबद्ध रुप में प्रस्तुत करके लोकगाथा गायक यथावसर समाज में अपना जादू बिखेर देता है और लोकगाथा गीतां से जुड़े समागमों में बड़ी भारी भीड़ को जुड़ती देखकर कोई भी ऐसा अनुमान सहज ही लगा सकता है कि लोगों की इन लोकगाथा गीतों को सुनने में कितनी रुचि है।

10. विद्वता का अभाव - लोकगाथा गीतों में विद्वता, अलंकरण और कृत्रिमता का अभाव रहता है। अर्थात लोकगाथाओं से साहित्य का सौन्दर्य नहीं रहता है। गाथाकार की अभिव्यक्ति, रस, छन्द अलंकार के बन्धन से दूर लोकरुचि का ध्यान रखती है जिससे उसकी सहज लोकगाथा में प्रस्तुत लोकगाथा गीत, अनगढ़ रचना होते हुये भी समाज द्वारा स्वीकृत होती है और श्रुति परम्परा से चलती रहती है। ये अनगढ़ लोकगाथा गीत अपनी गेयता के कारण तथा कथानक जैसी प्रस्तुति के कारण समाज में अपनी जाग्रत अवरूथा में रहते है। जब भी सामान्य साहित्यिक गीत लोगों द्वारा विसरा दिये जाते हैं।

11 सामूहिकता - लोकगाथा गीत जन सम्पत्ति हैं वे परम्परा से लोक द्वारा संरक्षित किए जाते रहे हैं। वे एक बड़े समुदाय के मनोरंजन के साधन है तथा लोकपरम्परा में धर्म और संस्कृति के संवाहक भी माने जाते हैं। अंग्रेजी के बैलेड शब्द का अर्थ नृत्य करना है। लगता है आदिम समाज में लोकमानस में गाथा गीतों की परम्परा में नृत्य भी प्रचलन में रहा होगा। तब क्रमोत्तर इनमें गीत के साथ संगीत और क्रमबद्ध नृत्य पद संचालन भी आरम्भ हुआ होगा। "पंडों ऐसा ही एक लोक गाथा गीत है जो अब नृत्यनाटिका का रुप ले चुका है लोकगाथा गीत समूह में गाए जाने वाले गीत है जिनमें नृत्य की भी एक विशेष परिपाटी है। तथा एक विशेष अवसर पर ही इनका गायन-वादन होता है।

12. निष्कर्ष - गाथागायन पद्धति हमारी बहुत पुरानी पद्धति है ऋग्वेद और ब्राहमण ग्रन्थों में भी अनेक गाथागीत संस्कृत ऋचाओं एवं श्लोकों में प्राप्त होते है। बौद्धकाल में गाथाएं समाज में प्रमुख मनोरंजन का साधन बन चुकी थी। भगवान बुद्ध ने कहा था कि मैं उसी कन्या से विवाह करुंगा जो गाथा-गायन में प्रवीण हो।
प्राचीन गाथासप्तशती आदि रचनाएं समाज में लोकगाथाओं की गहरी पैठ के प्रमाण है। गढ़वाल में लोक कथा गायक एक समृद्ध परम्परा है जो जागरियों, वाद्य वादकों (आबजी) और ब्राहमणों के द्वारा वाचिक रुप में आज भी सुरक्षित है। राजस्थान में पवाड़े के रुप में थे वीरगाथा गीत आज भी जनता में जोश जगा रहे हैं। भारत के सभी प्रान्तों की लोकभाषाओं में उनके लोकगीत है। उनकी गाथा गायन भिन्न-भिन्न पद्धतियां है और उनकी अपनी धुनें है। कुछ विद्वानों का मत है कि भारत में लोकगाथा गीतों का विकास उस समय हुआ होगा जब फ्रान्स आदि देशों में रोमांस साहित्य का सृजन हो रहा था। यूरोप में बैलेड का विकास सोलहवीं शताब्दी तक हो चुका था। इंग्लैण्ड का लोकगाथाओं में राबिन हुड सम्बन्धी प्रणयगाथाएं अत्यन्त लोकप्रिय है। स्कॉटलैण्ड के सर पैट्रिक स्पेस द कुअल ब्रदर' और 'एडवर्ड' जैसे कथागीत, तो फिनलैण्ड और इटली तक प्रचलित है । कालान्तर में यूरोपिय जातियों के साथ वे अमेरिका पहुंच गए। डेनमार्क में 'बैलेड' प्रायः औलोकिक पृष्ठभूमि वाले होते है। जिनमें जादू टोना और रुपान्तरण जैसी बाते मुख्य होती है। गढ़वाली लोकगाथा गीतों में गेयता क साथ-साथ कथानकों में जादू होना और रुपान्तरण की प्रवृत्त भी दिखाई देती है। सम्भवत इन लोक गाथाओं की वर्ण्य विषय वस्तु में परस्पर आपसी साहचर्य के कारण ये तत्व धुल मिल गए हो। लेकिन उन अनाम लोक गाथाकारों की ये अनगढ़ रचनाएं मानस की लोकचेतना से अलग नहीं की जा सकती है। ये अपनी माणिक संरचना में भी अनगढ़ रहने पर भी सभी के द्वारा सहज बोधगम्य होती है क्योकि ये लोकगाथा में लोकतत्व तथा उसके श्रुत इतिहास को लेकर सदियों से लगातार वाचिक परम्परा से चली आ रही है।
 गढ़वाली लोकगीतों की प्रमुख प्रवृत्तियां 
अपनी प्रभूत विशेषताओं के लिए हुए गएवाली लोकगाथा गीतों की कुछ विशिष्ट प्रवृत्तियां भी है। अब हम उन प्रवृत्तियों की संक्षिप्त जानकारी दे रहे है। इन प्रवृत्तियों को रुढ़ियां भी कहा जा सकता है। क्योंकि अधिकांश गाथाओं में ये एक जैसी देखने में आती है। ऐसा लगता है जैसे इनका लोकगाथा के वर्णन में आना अनिवार्य सा अपरिहार्य हो। ये प्रवृत्तियां निम्नलिखित है-

1. प्रेम, विवाह तथा सुन्दरियों को जीतकर लाने वाली प्रवृत्ति- गढ़वाली लोकगाथा गीतों में प्रेम, विवाह और सुन्दरियों की चर्चा अधिक मिलती है। जैसे- राजुला, मालूसाही में सौक्याणी देश (तिब्बत) को सुन्दरियों का निवास स्थान बताया गया है। कई भड़ स्वप्न में उनका दर्शन करके उन्हें पाने के लिए उतावले हो उठते है और उनकी खोज में चल पड़ते है। वहां उनके पतियों को हराकर सुन्दरियों को जीतकर ले आते है। योगी बनकर, योगी का वेश धारण करप्रेयसी से मिलने का प्रयास, गढ़वाली लोकगाथा गीतों में वर्णित मिलता है । कुमांऊ में प्रचलित गंगनाथ गाथा में नायक जोगी का वेश बनाकर जोशीखोला में 'भाना से मिलने आता है। राभी बौराणी में भी उसका पति जोगी का रुप धारण कर रानी के पातिव्रत्य की परीक्षा लेता है। श्रीकृष्ण गंगू के पास जोगी का वेश धारण कर उसकी रमोली में मिलते है और मुझसे भूमि मांगते हैं।

2. सतीत्व रक्षा को प्रमुखता- गढ़वाली लोकगाथा गीतों में स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्म बलिदान देने (सती) होने को तत्पर रहती है गढ़ु सुम्याल की गाथा में गढ़ू कहता है है। यदि मेंरी मां विमला सतवन्ती होगी और मैंने उसके सहस्रधारों वाला स्तनपान किया होगा तो मेरी रधुकुंठी धोड़ी आसमान में उड़ने लगेगी। अनेक गाथाएं इसकी प्रमाण है रणूरौत की गाथा में ,रणू रौत की माता अमरावती अपने पुत्र रणू रौत से कहती है कि तेरी मंगनी तेरे पिता ने स्यूंसला से की थी। मुझे आज 'मेघू कलूनी' जबरदस्ती ब्याहकर ले जा रहा है। तुझे मेरी कसम है अपने शत्रु को मारकर स्यूंसला का डोला जीत कर ला। युद्ध में रणू के मरने के बाद स्यूंसला उसकी चिन्ता में कूदकर अपने सतीत्व की रक्षा करती हुई प्राण दे देती है। कालू भण्डारी कर गाथा में भी कालो भण्डारी के द्वारा बेदी के मंडप में छः फेरे फेर देने वाले रुपू को मार देने के बाद 'रुपू' के भाई लूला गंगोला' के द्वारा कालू भण्डारी को मार देने पर वह नवविवाहिता रुपू और काले भण्डारी के शव को अपने दोनों जांधों में रखकर चिता में भस्म हो जाती हैं। कफ्फू चौहान की गाथा में भी उसकी पत्नि और मां देवू' के द्वारा कफ्फू की सेना के पराजित हो जाने के समाचार को सुनकर चिता बनाकर जल जाती है। तैड़ी की तिलोगा की प्रेमगाथा में भी तिलोगा अमरदेव सजवाण के मारे जाने पर अपने दोनों स्तन काटकर अपनी आत्महत्या कर देती है। तिगन्या के डांडे में चिता बनाकर अमरदेव सजवाण के साथ तिलोगा के शव को भी भस्म कर दिया जाता है। इस प्रकार प्रेमी के साथ प्रेमिका की जीवनलीला का अन्त दिखाना गढ़वाल लोकगाथा गीतों की भरमार रही है।

3. जन्म व सन्तान सम्बन्धी रुढ़िया - जन्म के समय नक्षत्र आदि के सम्बन्ध में गाथाओं में प्रचलित रुढ़ियां सर्वत्र एक जैसी मिलती है। जैसे - वीर का पुत्र ही होगा, जिसके बाप ने तलवार मारी उसकर बेटा भी तलवार मारेगा' । वंशानुक्रम परम्परा का वर्णन क्रम भी एक जैसे वणित जैसे-"हिवां रौत का भिवां रौत, भिवा रौत का राणू रौत"।

4. शकुन-अपशकुन सम्बन्धी रुढ़ियां - शकुन-अपशकुन वाली प्रवृत्ति गढ़वाली लोकगाथा गीतों में सर्वत्र मिलती है। जीतू बगड़वाल की गाथागीत में जब जीतू अपनी बहिन को बुलाने जाता है तो उसकी मां द्वारा बकरी के छींकने को अपशकुन बताया गया है। इसी पकार राधिका गाथा गीत में जब राधा की माता उसकी ससुराल के लिए पुवे बनाती है तो पहला पुवा तेल में डालते ही नीला पड़ जात है, यह देखा राधिका की मां शंका से व्याकुल हो उठती है- और सोचती है न जाने मेरी राधिका कैसी होगी" ?
5. स्त्री को दोहद की इच्छा- वीर पुरुष की स्त्रियां दोहद अवस्था में अपने वीर पति को मृग का मांस खाने की इच्छा प्रकट करती है। तब वीर पुरुष अपनी नवविवाहिता पत्नी की दोहद इच्छा पूरी करने के लिए जंगल में जाकर शिकार खेलने जाता है और वहां संकट में फंस कर मर जाता है, जो विजयी होकर आता है उसके विषय विलास का भव्य वर्णन लोकगाथा गीत प्रस्तुत करते हैं कि उसकी रानी ने अपना कैसा श्रृंगार किया है । इस वर्णन में अश्लीलता नहीं रहती लेकिन अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन रहता हैं।

6. कोमल संवेदनाओं से जुड़े लोक विश्वास- गढ़वाली लोकगाथा गीत, आस्था विश्वास और रुढ़ियों से जुड़े हुए है। ज्योतिष पर विश्वास, शकुन-अपशकुन की धारणा, लोक रुढ़ियां जैसे सुअर का धरती खोदना, सूखी लकड़ी ढोता आदमी कान फड़फड़ाता कुत्ता, भेड़ियों और ऊल्लू की आवाजें, हंसिया या कुदाली-फावड़े पर धार चढ़ाते समय उसका चटकना आदि अपशकुन के रुढ़िगत विश्वास है। शुभ संकेतो में पानी का गागर भर कर लाने वाली स्त्री, कबूतर या धुधती पक्षी का दिखना शुभ माना जाता है।

7. तन्त्र-मन्त्र में विश्वास- ये लोकगाथा गीत, तन्त्र-मन्त्र के प्रभाव का भी बखान करते है।

जोगियों के कांवड़ की जड़ी, बोक्साड़ी विद्या, ज्यूदाल, तुम्बी का पानी आदि में गढ़वाली जनमानस का विश्वास इल लोकगीतों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय होता है। जगदेव पंवार और सदेई की गाथा में बलिदान का महत्त्व सिद्वा-विद्वा का संकट काल में सहायक होना आदि लोकविश्वासों का भी वर्णन गाथागीतों में मिलता है। निष्कर्षतः लोकगाथा गीत लोक विश्वास और आस्था को लेकर रचे गये मिथकीय आख्यान गीत है जो परम्परा के वाचिक साहित्य के रुप में चले आ रहे है।

8. 'चांचड़ी. लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएं- पूर्व में अभी हमनें आपकों गढ़वाली के लोगाथात्मक गीतों की प्रकृति एवं विशेषताओं से परिचित कराया था, उसमें आपने बाजूबन्द, थड़िया, चौफुलस, तान्दी, छोपती आदि गीतों के बारे में जाना था। चांचडी के अन्तर्गत पूर्व में वर्णित सभी प्रकार के गीत, जिन्हें नृत्यगीत भी कहा जाता है आ जाते है । आपकों यह भी अच्छह तरह जान लेना चाहिए कि चांचड़ी के अन्तर्गत आने वाले सभी प्रकार के गीत है। इन्हें नृत्यगीत भी कहा जा सकता है और नृत्यों के नाम भी वहीं है जो गीतों के नाम पर है। जैसे बाजूबन्द लोकगीत भी है और लोकनृत्य भी, उसी प्रकार थाड़या या चौफुला गीत भी है तो नृत्य भी। इन सभी नृत्य या लोकगीतों को 'चांचरी' के नाम से पुकारा जाता है। चांचरी या चांचड़ी गीतों के विषय में नन्दकिशोर हटवाल का कहना है कि "मेरे विचार में ढंकुड़ी, चांचरी, चांचड़ी, घोड़ा, तोड़या, झुमैला, दुस्का, जोड़ ज्वेल, छोपती, तान्दी आदि ये सब नाम एक ही गीत नृत्य के लिए प्रचलित नाम है। जैसे- कई बार चांचरी नृत्य में प्रचलित विविध प्रकार के हस्तबन्धनों, पदसंचालनों, पदगति अथवा अन्य प्रकार के अलंकारों को अलग नाम से पहचानने या सम्बोधित किए जाते है। जैसे- कि कुमांऊ के कुछ इलाकों में चांचड़ी-झोड़ा जब तेज गति से होने लगता है तो उसे धसेल, धस्येला, धौंस्योला या दरी भी कहते है। हटवाल ने अनेक विद्वानों द्वारा वर्गीकृत किए गए लोकगीतों की तुलना करके अपना निर्णय दिया है कि इन विद्वानों ने भी प्रकारान्तर इन लोकगीतों को एक ही वर्ग का माना है। जो चांचड़ी के अन्तर्गत आ जाते है। वे झुमैलों को संस्कृत के 'जम्मालिका' से निष्पन्न मानते हैं तथा महाकवि कालिदास के समय में भी ऐसे कुछ लोकगीत एवं लोकनृत्य कर प्रचलन था स्वीकार करते है। वे लिखते है चांचरी नृत्य का उल्लेख महाकवि कालिदास के विक्रमोर्वशीयम नाटक में भी किया गया है । इसमें चर्चरी नृत्य का अर्थ गीत-खेल-क्रीड़ा और ताल देना बताया गया है। गढ़वाली में 'र' की ध्वनि 'ड़' में परिवर्तित हो जाने से चाचरी या चांचरी-चांचड़ी हो गई। गढ़वाली- कुमांऊनी में 'ज ' की ध्वनि 'झ' में बदल जाती है। अतः जोड़ा का झोड़ा' शब्द नृत्यगीत के लिए व्यवद्वत होने लगा है। डॉ0 गोविन्द चातक के अनुसार, जो नृत्य अवकाश के अवसर पर आंगन (थाड़) में होते है उन्हें 'थाड्या' कहा जाता है। 'स्थल' या समतल भूमि में खेले जाने ये यह स्थाल्या ये बिगड़कर 'थाड्या' बना है। गढ़वाली में यही शब्द ' थाल' या 'थौल' के रुप में भी प्रयुक्त होता है और 'थाड्' के रुप में भी! डॉ0 चातक लिखते है, 'लोक आमोद-प्रमोद से सम्बन्धित नृत्य प्रायः सामाजिक नत्यों के अन्तर्गत आते है। स्थान परिस्थितियों और काल के अन्तर के कारण अनेक नामों से पुकारे जाते है। मोहनलाल बाबुलकर ने गढ़वाली गीतों का वर्गीकरण करते हुए थाड्या गीतों को सामूहिक गेय गीत वर्ग में रखा है, तथा सुमेलों' को खुदेड़ गीत माना है। डॉ0 पोखरियाल ने अपनी पुस्तक 'कुमांऊनी लोकगीत और लोकगाथाएं' पुस्तक में चांचरी और झोड़ा को दो पृथक-पृथक वर्ग में जिन गीतों के साथ रखा है वे भाव वण्यविषय, टेक्निक आदि की दृष्टि से देखने में एक समान लगते है। अतः स्पष्ट है कि चांचड़ी, थाङ्या, झोड़ा एक ही प्रकार का नृत्यगीत है। इनकी कुछ विशेषताएं निम्नवत् है
चांचड़ी लोकगीतों की विशेषताएं

1. टेक - इन उपरिवर्णित लोकगीतों (नृत्यों) में लोकगाथाओं और इतिहास पुराण का धाल-मेल है। चांचड़ी नृत्य गीतों में लोकगाथाओं को जिनमें जीतू बगड्वाल' पांडव, सिदुवा- विदुवा, सूर्जकौल, माधो सिंह भण्डारी क गाथाएं आती है में 'द्विभाई रम्बोला रम्मा छम्मा' या जीतू बगड्याला जीतू मारि झमाको' 'टेक' लगने से ये गाथा गीत गाने में सुन्दर तुकान्त और कर्णप्रिय लगते है। साथ ही नृत्य में पद विन्यास भी पद ध्वनि की सामूहिक थाप पर एक मधुर समां बांध देते है। टेक इन गीतों की एक विशेषता है, जो कि बार-बार दोहराई जाती है। जैसे उपर दो टेक पंक्तियां उदहारणार्थ दी गई है।

2. पट्टदार शैली - लोकगीतकार पट्ट शैली के माध्यम से चांचड़ी गीतों की रचना करते है। इसे जोड़ मिलना भी कहते है। इस शैली में लोक रचनाकार तुक और छन्द मिलाने के लिए प्रथम पद को निरर्थक बनाते है जैसे-'हलीवो रुकमस डोट्याली' या 'कियो मेरो कले लछिमा' भांगुली को प्योण आदि को उदहारण नन्दकिशोर हटवाल ने दिये है। कई लोकगीतों में टेक और पट्टदार शैली दोनों की तकनीक एक साथ प्रयुक्त मिलती है। जैसे- ' सरभायों गढ़वल छो छम बल' या गणेशी जा गणेशी घौर। 3. संवादात्मक शैली- गढ़वाली लोकनृत्य गीतों में संवादों और प्रश्नोत्तरों की एक विशेष शैली विकसित हुई है। जीजा- साली, देवर- भाभी, नायक-नायिका के गीत प्रायः संवाद या प्रश्नोत्तर शैली में मिलते है। लोकगाथाओं में लम्बे संवाद गीत मिलते है। सिदुवा-विदवा का गीत इसका प्रमाण है। श्री नन्दकिशोर हटवाल के अनुसार कभी-कभी एक की प्रश्न को बार-बार दोहराने और उत्तर देने में भी बार-बार पूर्व पंक्तियों के दोहराव के सज्ञथ महज एक नया शब्द जोड़ देने की तकनीक अपनाकर लम्बे-लम्बे गीत तैयार हो जाते है।

4. सम्बोधन शैली- का प्रयोग भी लोकगीत को रोचक बनाता है। चांचड़ी लोकगीत, करुणा, दुखः-सुख और वियोग-श्रृंगार के भाव गीतों में और अधिक द्रवणशीलता ले आते है। नायिका, धुधती, पहाड़ी, कुड़ी आदि को देखकर पिताजी यां मां को सम्बोधित करके अपने मन के भावों को व्यक्त करती है- धार्मिक गाथा गीतों में भी सम्बोधन शैली की प्रचुरता मिलती है। श्रृंगार रस की प्रचुरता- आधुनिक समय में बहुत से पुराने गीत आज भी अपनी ताजगी से लोकमानस का चित्त हरण कर लेते है। इन्हें सुनकर श्रोता भाव विभोर हो उठते है। जैसे पोसतू का छुमा, मेरी भायानी बौ' के बौल और उसकी टटकी लोकधुन, नवयुवक-युवतियों और रसिको को भाव विभोर कर देती है।
5 . आगे इस गीत का संक्षिप्तांश आपकी जानकारी के लिए गढ़वाली एवं उसके हिन्दी अनुवाद सहित दिया जा रहा है- जीजा-साली के गीत प्राचीन समय से ही ही गढ़वाली लोकमानस की रुचि के विषय रहे है और आज भी नई नई धुनों और गीतों की नई शैली तथा नृत्यनिर्देशन के सज्ञथ लिखे और प्रदर्शित किए जा रहे है जैसे- सुप्रसिद्ध नृत्य गीत है- "ग्वाल फूल फुले म्यारा भीना"| यह ऋतु गीत भी है। इसके बोल देखिए-


ग्वीराल फूल फुलीगे म्यारा भीना,

मलू-बेड़ा फ्योंलडी फुलिगे भीना
मलू-बेड़ा फ्योलडी फुलिगे भीना
 झपन्यालि सकिनि फुलिगे भीना
 धरसारी लगड़ी फुलिगे भीना 
झूल थान कूंजू. फुलिगे भीना 
गैरी गदिनी तुशरि फुलिगे भीना 
डांडयू फुलिगे बुरांस, म्यारा भीना
 डल फूलों बसन्त, बौड़िगे भीना 
बसन्ती रंग मा, रंगैदे म्यारा भीना
 ग्वीराल फूल फुलीगे, म्यारा भीना।"
अर्थात् हे जीजा जी! ग्वीराल के फूल खिल गए हैं। मालू, बेजू, फ्योंली खिल गए है । पत्तेदार सकिना फूल गया है। हे! जीजा जी! घर के नजदीक की सरसों फूल गई है, कुनजू फूल गया है। छोटी पहाड़ी नदी के किनारे की ‘लुसरी फूल गई है वृक्षों में फूल आने लगे गए है। बुरांश की डालियां फूल गई है। जीजा जी! डालियों पर बसन्त फूल खिलाने आ गया है मुझे भी तुम बसन्ती रंग में रंग दो। जीज जी! ग्वीराल (कचनार) के वृक्षों पर फूल खिलने लग गए है।

गढ़वाल लोकगीतों में भी श्रृंगार रस अपनी प्रभूत मात्रा में प्राप्त होता है। गढ़वाल की प्राकृतिक छटा ही ऐसी ही कि यहां के युवाओं के हृदय में अपने आप श्रृंगार पनपर्ने लगता है और वह अपनी संमोहकता से नायक-नायिका को भाव विभोर कर देता है। बड़े-बड़े शूरवीर (भड़) भी इसके सम्मोहन से बच नहीं पाते हैं- कहते है 'रुक्मा' माधोसिंह भण्डारी की प्रेमिका थी। कुछ लोगों का कहना है कि वह माधो सिंह की भौजाई (भाभी) थी। माधोसिंह भण्डारी पर आधारित गीत देखिए
"कनु छ भण्डारी तेरो मलेथा?

ऐ जाणू रुकमा मेरा मलेथा

मेरा मलेथा धांड्यो को धमणाट

मेरा मलेथा बाखर्यों को तादो। 
कैसो छ भण्डारी तेरो मलेथा ? 
देखेण को भलों मेरा मलेथा। 
लगदी फूल मेरा मलेथा। 
गौं मुड़े को सेरो मेरा मलेथा
गौं मथे को पंधारों मेरा मलेथा।
कैसों छ भण्डारी तेरो मलेथा?
पालिंगा की बाड़ी मेरा मलेथा 
लासण की क्यारी मेरा मलेथा
बांदा की लसक मेरा मलेथा
बैखू की ठसक मेरा मलेथा
ऐ जाणू रुकमा मेरा मलेथा।
अर्थात्- भण्डारी! कैसा है तेरा मलेथा ? ये रुकमा! तू मेरे मलेथा गांव में आ जा! रुकमा! मेरे मलेथा में भैसों का खरक है। गोरु के गले में बंधी घंटियों की धमण्धार (खनखनाहट) है। बकरियों के झुण्ड हैं। भण्डारी तेरा मलेथा कैसा है । रुकमा! मेरा मलेथा देखने में रमणीक है। उसमें चलती नहर हैं। गांव के नीचे खेत है। मेरे मलेथा गांव के ऊपर पनघट है। भण्डारी! तेरा मेरा मलेथा कैसा है ? रुकमा! मेरे मलेथा गांव में लहसन की क्यारियां हैं। पालक का बाड़िया है। मेरे मलेथा में सुन्दरियों की लचक हैं, पुरुषों की शान हैं। रुकमा, तू मेरा मलेथा आ जा।

9. धार्मिक गीत- बिनसर गढ़वाल का सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर है। इस मन्दिर पर आधारित धार्मिक गीत के बोले देखिए- इसमें देवी विन्सर टेकपद है-

विन्सर का डांडा देवी विन्सर।
ह्यूं कती आयूंच देवी विन्सर।
धुण्ड-धुण्डयों को ह्यं च देवी विन्सर
त्येरी जातरा पूरी कलू विन्सर।
जांठी ट्एकी औंलू विन्सर
छाया रख्या माया देवी विन्सर

अर्थात् 'हे देवी! पहाड़ी पर विन्सर (महादेव) का मन्दिर है। हे देवी वहां बर्फ कितना गिरा है ? घुटनों तक बर्फ है। मैं तेरी यात्रा पूरी करूंगा विन्सर देवता। छड़ी टेककर आउंगा। उपनी छांव और प्यार रखना देवता। मैं तेरे दर्शन को आऊंगा विन्सर देवता'।

आपकी जानकारी के लिए अब हम एक और धार्मिक नृत्यगीत प्रस्तुत है। जिसका टेकपद है- 'झमाकों' यह गीत नन्दा भगवती पर आधारित है

“सतवन्ती माता झम्मा को, मैणावन्ती माताझम्मा को।
मैणा की पुतरी झम्मा को, बाई गंवारा झम्मा को,
गौरा का गणा झम्मा को, क्वे देश को राजा झम्मा को,
दक्षिण को राजा झम्मा को, 
तू दैवी न कारा झम्मा को मैणावन्ती माता झम्मा को, 
बाई गंवारा झम्मा को,
गौरां का मंगणा झम्मा को, क्वे देशों राजा झम्मा को,
उत्तराखण्ड को राजा झम्मा को, तू देणी न कारा झम्मा को,
एक हाथ त्रिशूला झम्मा को, एक हाथ डमरु झम्मा को
शंकर भगवाना झम्मा को, बणीगी भगवान झम्मा को

अर्थात्- सतवन्ती माता मैणावती माता को प्रणाम (झम्मा को निरर्थक पद) केवल पद पूर्ति के लिए तथा ताल मिलाने में सहयोगी वाक्य है। मैणा की पुत्री गौरा, गौरा के गणों को प्रणाम। दक्षिण के राजा (आए है) तू फलदाई न होना। गौरा का विवाह प्रस्ताव लेकर आए हैं फलदाई न होना। उत्तराखण्ड के राजा आए हैं उस पर अनुकूल होना। कैलाश के राजा आए हैं उन पर अनुकूल होना। भगवान शंकर की बारात सज रही है। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरु है। शंकर भगवान को दाहिनी होना। गौरा शंकर की जय हो। बभूतधारी जोगी ने अपना विकट रुप छोड़ दिया है। जा बेटी गौरा फ्यूंली खिल गई हैं भगवान ने सुन्दर रुप बनाया है। बारात आ गई है झम्मा को अर्थात् आनन्द आ गया हैं।
चन्द्रामती की लोकगाथा में लोक संगीत के बोल इस प्रकार होते हैं

नाच नाचों चन्द्रामती चंदन की चौकी,
कैसे नाचूं ? कैसे खेलू ? चंदन की चौकी।
ब्याली ल्यायों नाक नथुली कां धाले बुवारी
मै त गयो नन्दा का द्यूल भेटुंली चढायो। नाच नाचों चन्द्रामती
कैसे नाचूं ? कैसे खेलू ? चंदन की चौकी।
ब्याली ल्यायों सरि सिसफूल कां धाले बुवारी ?
मै त गयो नन्दा का धूल, भेटुली चढ़ायो। नाच नाचों चन्द्रामती
कैसे नाचू ? कैसे खेलू ? चंदन की चौकी।
ब्याली ल्यायों गात धाधरी का धाले बुवारी ?

मै त गयो नन्दा का धूल भेटुली चढार्यो। नाच नाचों चन्द्रामती चंदन की चौकी।

अर्थात- चन्द्रामती चन्दन की चौकी में नाचों! मैं चन्दन की चौकी में कैसे नांचू कैसे खेलू ? अरी बहु! कल ही तो नाक की नथ लाया था वह कहां डाला ? मैं तो नन्दा के देवालय गई थी, मैंने भेंट चढ़ा दी। मैं चन्दन की चौकी में कैसे नांचू? अरी मैं नन्दा के मन्दिर में भेंट चढ़ा आई। चन्द्रामती! चन्दन की चौकी में नाच। अब मैं चन्दन की चौकी में कैसे करके नांचू ? मेरे पास धगुली नहीं है। अरी बहू कल ही तो धागुली लाई थी ? वह तो मैंने नन्दा जी के मन्दिर में चढ़ा दी है। अब मैं बिना (आभूषणों) के चन्दन की चौकी पर कैसे करके नांचू हे चन्द्रामती! चन्दन की चौकी पर नाच ? इस गीत में स्त्री के सभी आभूषणों का वर्णन आता है।
10. झूल नगेलो- देवता (प्राचीन नागवंश के राजा रहे हैं) वे गढ़वाल में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका लोकगाथा गीत देखिए

झूल नगेलो आयो जसिलों देवता।

झूल नगेलो आयो रैती देंद जस,

झूल नगेलो आयो मुलक लगे घेउ,

झल नगेलो आयो लसिया की धाती,

झूल नगेलो आयो बजीरा की गादी,

झूल नगेलो आयो तू मोतू का सिर,

झूल नगेलो आयो छै मैन का बालक,

यलगोलो भागोभीकोगों का गार

झुल नगेलो आयो भौंकोर्यों का रुगाट,

झूल नगेलो आयो धाण्डयूं का धमणाट

झूल नगेलो आयो परचो बदौंदा

अर्थात- दिवाली में नगेला देवता आया है- यशस्वी देवता। देवल में नगेला आया है, अपने भक्तों को यश देता है। देवालय में नगेला आया है देश भर में ख्याति हो गई है। लस्या की थाती में लजिश की देवभूमि में और मोतू के सिर में नगेला आया है। छः माह के बालक पर नगेला आया है। भौंकरियों की रुणआणट सुनकर, घंटों की घनघनाहट सुनकर देवालय में नगेला आया है। वह अपना परिचय देता है, जौं के चावल बनाता है, हरियाली उगाता है। देवालय में भैंस दूध देती है। करवाने को ब्याह देता है। दिवाली में नगीना ( नाग देवता) आया है"। इस प्रकार लोकगीत, गढ़वाली जनमानस की धार्मिकता, ओजस्विता, दानवीरता, कर्तव्यपरायणता, श्रृंगार-प्रेयता, प्रकृति प्रेम, विरह वेदना, और मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने के साधन है। जो कि अनाम लोकगाथा गीतकारों की अद्भुत करामाती प्रतिभा से उपजे है और समाज में व्याप्त है तथा लोक के मनोरंजन, तथा लोक व्यवहार के शिक्षक बनकर एक सभ्य आस्थावान समाज करा निर्माण करने के लिए अपनी विशिष्टता के कारण अजर-अमर है। लेकिन परम्परा से श्रुत होने के कारण, तथा वर्तमान में नए-नए संगीत प्रचार और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से परिवर्तन होने के कगार पर पहुंच रहे हैं। क्योकि पाश्चात्य संगीत का प्रभाव इन्हें विनष्ट कर देगा। यहीं लोकगाथा गीतों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न है।

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4 . सारांश
लोकगीत मन की रागात्मक प्रवृत्ति से उपजते है। इनमें मनुष्य और उसके समाज के हर्ष विषाद के छन्दबद्ध नमूनों के रुप में गीतधाराएं अनाम कवियों के कंठ स्वरों से निकलती है। गढ़वाली गीतों के नाम पर उनके गीतों के नाम भी पड़े होते है जैसे- थड्या, चौंफुला, लाली, झुमैलों। जहां वे गीत है वहीं नृत्य भी है। ढोल वादक चैत के महीने में चैती गाते है | जिनमें विवाहिता स्त्री को पातीव्रत्य में रहने व अपने कुल की मर्यादा का आभास कराते है। ऋतु गीतों में खुदेड गीत, बसन्त ऋतु में गाये जाते है तथा चौमासे वर्षा ऋतु में। प्रणय गीतों में पति-पत्नी व प्रेमी-प्रेमिका के संयोग-वियोग के बिम्ब होते है । छोपती, तान्दी, थड्या, चौफुंले, झुमैलों, बाजूबन्द, झूड़े आदि चांचरी गीतों के अन्दर समाहित है। इन लोकगीतों की विशेषता एवं इनकी प्रवृत्तियां भिन्न-भिन्न है । जिनमें काफी कुछ अन्तर भी मिलता है। लोगगीत और लोकगाथा गीत दोनों अलग-अलग प्रकार की शैली रुपों एवं वर्ण्य विषयों को लेकर चलते है।

5 . अभ्यास प्रश्न
इस इकाई का अच्छी प्रकार अध्ययन करने के बाद आप समझ गए होंगे कि -

1. लोकगीत किसे कहते है और उनकी विषय में लोकतत्व कैसे समाया वस्तु रहता है ?

2. गढ़वाली लोकगीतों का स्वरूप कैसा है ?

3. गढ़वाली लोकगीतों के पद्यात्मक साहित्य की विशेषताएं क्या है ?

4. प्रमुख गढ़वाली लोकगीत कौन-कौन से हैं ?

5. लोकगीतों के कथानक और उनकी विभिन्न शैलीयों का क्या आशय है।

6. गढ़वाली लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएं तथा उनकी प्रमुख प्रवृत्तियों कौन. = कौन सी हैं।
6 . पारिभाषिक शब्दावली
औजी (आवजी)              -           दक

उदंकारी           -          पहाड़ की चोटियों पर अकस्मात दिखने वाला प्रकाश
चौफुला           -            एक प्रकार की लोकगीत जिनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है।
झुमेलो           -          एक प्रकार की लोकगीत या लोकगीतों की अन्तिम कड़ी
पश्वा                 -             गढ़वाल का एक देवता
धुंयाल              -                पूजा के समय उठने वाला धुआ अथवा पहाड़ की चोटियों पर प्रातः सूर्योदय के समय उठने वाला धुंआ
पंवाड़ा                -          गढ़वाल के वीर बहादुरों के गीत
पालसी                -           भेड़-बकरियों कर चरवाहा
 पाखा                  -          पहाड़ का एक भाग
भूम्याल                -             भूमि पाल, एक देवता विशेष
स्यूंसाठ                -            नदियों का स्वर्ग
हंसिया                 -            रसिक

7 . अभ्यास प्रश्नों के उत्तर (संदर्भ ग्रंथ सूची)
1  संगीतात्मकता, जनभाषा का प्रयोग, मौखिक परम्परा, लिखित ब अलिखित गेय काव्य

2  "कनु छ भण्डारी तेरो मलेथा?

ऐ जाणू रुकमा मेरा मलेथा

मेरा मलेथा धांड्यो को धमणाट

मेरा मलेथा बाखर्यों को तादो।

कैसो छ भण्डारी तेरो मलेथा ?

देखेण को भलों मेरा मलेथा।

लगदी फूल मेरा मलेथा।

गौं मुड़े को सेरो मेरा मलेथा

गौ मथे को पंधारों मेरा मलेथा।

कैसों छ भण्डारी तेरो मलेथा?

पालिंगा की बाड़ी मेरा मलेथा

लासण की क्यारी मेरा मलेथा

बांदू की लसक मेरा मलेथा
बैखू की ठसक मेरा मलेथा

ऐ जाणू रुकमा मेरा मलेथा

3  - लोकगाथा गीतों की चार प्रवृत्तियां निम्नलिखित है

1. सतीत्व रक्षा की प्रवृत्ति,

2. जन्म और सन्तान सम्बन्धी रुढ़ियां,

3. सुन्दरियों को जीतकर लाने की प्रवृत्ति,

4. भड़ों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन

4  झुमैलों की संस्कृत में जम्भालिका कहते है। उदाहरण -
ऐगैन दादू झुमैलों, रितु बौडीक झुमैलो 
बरा मैनों की झुमैलों, बारा बसुन्धरा झुमैलो
बारा ऋतु मा झुमैलों को रितु प्यारी झुमैलों
 बारा ऋतु मा झुमैलों, बसंत ऋतु प्यारी झुमैलों"।

5 - छोपती में संयोग-वियोग दोनों अवस्थाएं मिलती है। प्रेम गीतों के अन्तर्गत बाजूबन्द में भी छोपती के समान ही संवाद गीत होते है। छोपती चौंक में नृत्य के साथ समूह में गाई जाती है और बाजूबन्द दो स्त्री-पुरुषों के बीच निजता के साथ बनों के एकान्त में गाये जाते है। छोपती का एक उदाहरण प्रस्तुत है

काखड़ की सींगी, मेरी भग्यानी हो,
रातू कु सुपिमा देखि, मेरी भग्यानी हो, 
दिन आख्यू रींगी, मेरी भग्यानी हो, 
ढोल की लाकूडी मेरी भग्यानी हो,
 तू इनी दिखेन्दी, मेरी भग्यानी हो
9 . सहायक उपयोगी पाठ्य सामग्री 
1. गढ़वाली लोककथाएं- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 1996, तक्षशिला प्रकाशन, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

2. गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य- डॉ0 हरिदत्त भट्ट शैलेश', प्रथम संस्करण 2007, तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

3. उत्तराखण्ड की लोककथाएं- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 2003, तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, अंसारी रोड़, दरिया गंज, नई दिल्ली।

4. गढ़वाली लोक साहित्य की प्रस्तावना- मोहनलाल बाबुलकर, प्रथम संस्करण अप्रैल 2004, भागीरथी प्रकाशन गृह, बौराड़ी, नई टिहरी।
5. गढ़वाली काव्य का उद्भव विकास एवं वैशिष्ट्य- डॉ0 जगदम्बा प्रसाद कोटनाला, प्रथम संस्करण 2011, प्रकाशक- विजय जुयाल, 558/1, विजय पार्क, देहरादून।

6. गढ़वाली लोक गीत विविधा- डॉ0 गोविन्द चातक, प्रथम संस्करण 2001 प्रकाशक (तेज सिंह) तक्षशिला प्रकाशन, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली।

7. धुंयाल- अबोध बन्धु बहुगुणा, गढ़वाली भाषा परिषद? देहरादून- संस्करण अगस्त 1983
10 . निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न-। गढ़वाली लोकगीतों की प्रमुख विशेषताएं बताओ।

प्रश्न- 2 गढ़वाली लोकगीतों के विकास एवं उसकी प्रवृत्तियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।

गढ़वाली लोक साहित्य का परिचय

गढ़वाली लोक साहित्य का इतिहास एवं स्वरुप

गढ़वाली लोक गीत : स्वरुप एवं साहित्य 

गढ़वाली लोक गाथाएं : स्वरुप एवं साहित्य

गढ़वाली लोक कथाएं : स्वरुप एवं साहित्य

गढ़वाली लोक साहित्य : अन्य प्रवृत्तियां

गढ़वाली लोक साहित्य का वर्तमान स्वरूप एवं समस्याएं

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