लाहौल स्पीति का इतिहास
लाहौल स्पीति
- जिले के रूप में गठन - 01 नवम्बर, 1966
- जिला मुख्यालय - केलांग
- जनघनत्व - 2(2011 में)
- साक्षरता - 77.24% (2011 में)
- कुल क्षेत्रफल - 13,835 वर्ग किमी. (24.85% हि.प्र. क्षेत्रफल का)
- जनसंख्या - 31,528 (2011 में)
- लिंग अनुपात - 916 (2011 में)
- दशकीय वृद्धि दर - -5.10% (2011 में)
- ग्राम पंचायतें - 204
- शिशु लिंग अनुपात - 1013 (2011 में, भारत में सर्वाधिक)
- भूगोल -
- भौगोलिक स्थिति - लाहौल-स्पीति हिमाचल प्रदेश के उत्तर भाग में स्थित है। लाहौल-स्पीति के उत्तर में जम्मू-कश्मीर, पूर्व में तिब्बत, दक्षिण-पूर्व में किन्नौर, दक्षिण में कुल्लू, पश्चिम में चम्बा और दक्षिण-पश्चिम में काँगड़ा जिला स्थित है।
- दर्रे -
(1) रोहतांग दर्रा - रोहतांग दर्रा लाहौल को कुल्लू से जोड़ता है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग - 21 पर स्थित है। रोहतांग का अर्थ है - लाशों का ढेर।(2) भंगाल दर्रा - लाहौल और बड़ा भंगाल के बीच स्थित है।(3) शिंगडकोन दर्रा - लाहौल और जास्कर के बीच स्थित है(4) कुंजुम दर्रा - लाहौल को स्पीति से जोड़ता है।(5) कुगती दर्रा - लाहौल को भरमौर से जोड़ता है।(6) बारालाचा दर्रा - लाहौल को लद्दाख से जोड़ता है। इस दर्रे पर जास्कर, स्पीति, लाहौल और लद्दाख की सड़कें आपस में मिलती हैं। इस दर्रे से चन्द्रभागा और यूनान नदियाँ निकलती हैं।
- घाटियाँ - लाहौल में तीन घाटियाँ हैं - चन्द्रा घाटी, भागा घाटी और चन्द्रभागा घाटी। चन्द्रा घाटी को रंगोली भी कहा जाता है। कोकसर इस घाटी का पहला गाँव है। भागा घाटी को गारा कहा जाता है। यह बारालाचा दर्रे से लेकर दारचा तक फैली है। चन्द्रभागा घाटी को पट्टन घाटी भी कहते हैं। स्पीती में पिन घाटी स्थित है। जो पिन नदी के साथ स्थित है। यह ढांखर के पास स्पीती घाटी से मिलती है। स्पीती घाटी स्पीती नदी से बनती है जो कुंजुमला से लेकर शुमडो (पारछू नदी शुमडो में स्पीती नदी में मिलती है।) तक फैली है। स्पीती घाटी का गेटे गाँव (4270 मी.) विश्व का सबसे आबाद गाँव है।
- नदियाँ - चन्द्रा, भागा, स्पीति और पिन लाहौल-स्पीति की प्रमुख नदियाँ है। चन्द्रा और भागा नदी बारालाचा दर्रे (4890 मी.) से निकलती हैं।
- चन्द्रा नदी - शिगड़ी ग्लेशियर से होते हुए टांडी तक बहती है। चन्द्रा नदी को बड़ा शिगड़ी और समुन्द्री ग्लेशियर से पानी मिलता है। खोकसर, सिस्सु, गोंदला चन्द्रा नदी के किनारे स्थित है।
- भागा नदी - बारालाचा दर्रे से निकलकर सूरजताल(सूर्य की झील) में प्रवेश करती है। दारचा में भागा नदी जास्कर नदी में मिलती है। दारचा और टांडी के बीच केलांग, खारडोंग, और गेमूर गाँव भागा नदी के किनारे स्थित हैं।
- स्पीति नदी - स्पीति की और किन्नौर की प्रमुख नदी है। यह खाब के पास सतलुज नदी में मिलती है। मोरंग, रंगरीक, धनकर, ताबो स्पीति नदी के किनारे स्थित प्रमुख गाँव है।
- पिन नदी - पिन नदी स्पीति नदी की सहायक नदी है।
- ग्लेशियर - एंड्रयू विल्सन ने 1873 ई. में लाहौल स्पीति को ग्लेशियर की घाटी कहा था। कैप्टन हारकोट ने 1869 ई. में शिगड़ी ग्लेशियर (लाहौल) को पार किया जो 25 किमी. लम्बा है। यह हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा ग्लेशियर है। सोनापानी ग्लेशियर 11 किमी. लम्बा है।
नामकरण -
- लाहौल - लाहौल को गारजा और स्वांगला भी कहा जाता है। कनिंघम के अनुसार लाहौल का अर्थ 'दक्षिण जिला' लद्दाख का। राहुल सांस्कृत्यायन ने लाहौल को \"देवताओं की भूमि\" कहा है जबकि एक अन्य अर्थ से इसे \"दर्रे का देश\" भी कहा जाता है। तिनान, पुनान और टोड भाषाओं (लाहौल की) में लाहौल को गारजा कहा गया है। मान्छ्द भाषा में लाहौल को स्वांगला कहा गया है। बुद्ध के पुत्र राहुल के नाम से भी लाहुल की उत्पति हो सकती है।
- स्पीति - स्पीति का शाब्दिक अर्थ है - मणियों की भूमि| स्पीति का मुख्यालय काजा है। इससे पहले स्पीति का मुख्यालय ढांखर था।
इतिहास -
- प्राचीन इतिहास - मनु की इस क्षेत्र का प्राचीन शासक बताया गया है। कनिष्क (कुषाण वंश) के समय यह क्षेत्र उनके कब्जे में था। गुप्त काल के बाद हर्षवर्धन (606-664 ई.) के समय लाहौल का संबंध हर्ष के साम्राज्य से पुन: जुड़ गया। ह्वेनसांग ने 635 ई.में कुल्लू और लाहौल की यात्रा की। 600 ई. के आसपास चम्बा ने लाहौल पर विजय प्राप्त की थी। लाहौल पर हर्ष के समय कुल्लू और चम्बा का कब्जा रहा जो स्वयं हर्ष के अधीन थे। जिससे लाहौल भी हर्ष के अधीन आ गया। ह्वेनसांग के अनुसार स्पीति पर सेन राजाओं का राज था जिसका पहला राजा समुद्रसेन था। स्पीति के राजा राजेन्द्र सेन ने कुछ समय तक कुल्लू को अपने अधीन किया। छेतसेन के समय (सातवीं सदी) स्पीति लद्दाख के अधीन आ गया। स्पीति के शासकों को 'नोनो' कहा जाता था।
- मध्यकालीन इतिहास -
- 8वीं सदी में लाहौल कश्मीर का भाग बन गया था। उदयपुर के मृकुला देवी और त्रिलोकीनाथमें कश्मीर कला के नमूने मिले हैं। कश्मीर कला 11वीं सदी तक लाहौल में रही।
- लाहौल पर लद्दाख के राजा ला-चन-उत्पल (1080-1110 ई.) का शासन तब से रहा जब से उसने कुल्लू पर आक्रमण कर उसे गाय और याक के मिश्रण 'जो' देने से मजबूर किया।
- कश्मीर के राजा जैन-उल-बद्दीन (1420-1470 ई.) के तिब्बत आक्रमण के समय कुल्लू और लाहौल लद्दाख (तिब्बत) के अधीन थे।
- कुल्लू के राजा बहादुरशाह (1532-1559 ई.) के समय लाहौल कुल्लू का भाग बन गया था। वर्ष 1631 ई. में भी लाहौल कुल्लू का भाग था।
- चम्बा के राजाओं ने भी लाहौल के अधिकतर भाग पर अधिकार किया था। उदयपुर का मृकुला देवी मंदिर चम्बा के राजा प्रताप सिंह वर्मन द्वारा बनवाया गया था।
- कुल्लू के राजा जगत सिंह (1637-1672 ई.) के समय लाहौल कुल्लू का भाग था। वर्ष 1681 ई. में मंगोलों ने लाहौल पर आक्रमण किया था क्योंकि यहाँ के लामा डुगपा मत के मानने वाले थे।
- मुगलों की मदद से कुल्लू के राजा विधि सिंह (1672-88 ई.) ने लाहौल के ऊपरी क्षेत्रों पर कब्जा किया था। विधि सिंह के समय से थिरोट, कुल्लू और चम्बा के बीच की सीमा का निर्धारण करता था।
- तिब्बत-लद्दाखी मुगल युद्ध (1681-83 ई.) में स्पीति काफी हद तक कुल्लू और लद्दाख से स्वतंत्र था।
- कुल्लू के राजा मान सिंह (1690-1720 ई.) ने गोंदला किला बनवाया था।
3. आधुनिक इतिहास -
- गेमूर गोम्पा में कुल्लू के राजा विक्रम सिंह (1806-1816 ई.) का नाम एक शिलालेख में मिला है विलियम मूरक्राफ्ट की 1820 ई. में लाहौल यात्रा का विवरण भी यहाँ पर दर्ज है। विलियम मूरक्राफ्ट के अनुसार लाहौल तब लद्दाख के अधीन था। लाहौल की राजधानी उस समय में टांडी थी।
- सिख - 1840 ई. में सिखों के कब्जे में आ गया। कनिंघम ने 1839 ई. में लाहौल की यात्रा की। सिखों के सेनापति जोरावर सिंह ने 1834-1835 ई. में लद्दाख/जास्कर और स्पीति पर आक्रमण किया।
- 1846 ई. में अमृतसर संधि (अंग्रेजों और गुलाब सिंह) के बाद 'स्पीति' अंग्रेजों के अधीन आ गया था।
- चम्बा लाहौल और ब्रिटिश लाहौल का विलय 1975 ई. में हुआ।
- अंग्रेजों ने बलिराम को लाहौल का पहला नेगी बनाया।
- 1857 ई. के विद्रोह के समय स्पीति के 'नोनो वजीर' ने अंग्रेजों की मदद की थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने लाहौल के वजीर अमीरचंद को 'रायबहादुर' (1917 ई.) की उपाधि प्रदान की।
- 1941 ई. को लाहौल-स्पीति उपतहसील बनी और उसका मुख्यालय केलांग बनाया गया। पंजाब सरकार ने लाहौल-स्पीति को 1960 में जिला बनाया। वर्ष 1966 ई. में लाहौल-स्पीति का विलय हिमाचल प्रदेश में हो गया।
4 कला, संस्कृति, मेले और गोम्पा -
- गोम्पा - खारंदोग, शांशुर, गेमूर और गुरुघंटाल गोम्पा लाहौल में और ताबो, की और धाकंर गोम्पा स्पीति में स्थित है। ताबो, की और धाकंर गोम्पा स्पीति नदी के किनारे स्थित है। गेमूर गोम्पा भागा नदी के किनारे स्थित है। 'की' हिमाचल प्रदेश का सबसे ऊंचा व बड़ा गोम्पा है। ताबो गोम्पा विश्व का प्राचीनतम गोम्पा है।
- धर्म - लाहौल में हिन्दू और बौद्ध धर्म दोनों को मानने वाले लोग हैं। गेफांग, डाबला और तंग्यूर यहाँ के प्रमुख देवता हैं। स्पीती में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग हैं।
- विवाह - लाहौल में तभाग्स्टन / मोथेबियाह व्यवस्थित / तय विवाह है। कुनमाईभाग्स्टन / कौन्ची विवाह भाग कर किया गया विवाह है।
- त्योहार / उत्सव -
- लदारचा - यह मेला हर वर्ष जुलाई में किब्बर गाँव में लगता है।
- सिस्सु मिला - यह मेला जून में शांशुर गोम्पा, जुलाई में गेमूर गोम्पा और अगस्त में गोंदला के मनी गोम्पा में लगता है।
- फागली मेला - फागली या कुन मेला फरवरी की आमावस्या को पट्टन घाटी में लगता है। यह फाल्गुन के आने का संकेत देता है।
- पौरी मेला - यह मेला अगस्त में त्रिलोकीनाथ मंदिर में लगता है जहाँ शुद्ध घी का दीपक पूरे वर्ष जलता है।
- हाल्दा/लोसर - हाल्दा या लोसर लाहौल का नववर्ष आगमन का त्योहार है जो दीवाली के जैसा है।
5. - लोकनृत्य - शेहनी, धूरे, घारफी (लाहौल-स्पीति का सबसे पुराना नृत्य)।6 . - पेय - छांग जो चावल, जौ, गेहूँ, से बनती है एक देशी शराब है।7. - ताण्डी - ताण्डी गाँव तन-देही से उत्पन्न हुआ है। ताण्डी में द्रौपदी ने अपना तन छोड़ा था। ऋषि विशिष्ठ को ताण्डी में दफनाया गया था। ताण्डी में सूर्य के बेटे का चंद्रमा की बेटी से विवाह हुआ था।
अर्थव्यवस्था -
- जर्मन पादरी A.W.Hide ने 1857 ई. में लाहौल में आलू की खेती शुरू करवाई थी। कुठ की खेती 1925 ई. में शुरू हुई। लाहौल ने प्रति हेक्टेयर आलू उत्पादन में नीदरलैंड को पछाड़कर प्रथम स्थान पाया है। लाहौल में करू, पतिश और काला जीरा जबकि स्पीति में रतनजोत मिलता है। काजा में 1978 ई. में ADC के पद को सृजित किया गया। लाहौल स्पीती में 1978 ई. में 'मरुस्थल विकास कार्यक्रम' शुरू किया गया। रेजिन अंगूर रिसर्च सब-स्टेशन की थिरोट स्थापना की गई। कुठ और सूखे मेवे अनुसंधान केंद्र की स्थापना केलांग में हुई है।
- विविध - केलांग में 1869 ई. में पोस्ट ऑफिस की स्थापना की गई। काजा में 1939 ई. में पोस्ट ऑफिस की शाखा खुली। जर्मन पादरी हाईड द्वारा 1861 ई. में केलांग में स्कूल खोला गया। स्पीति के काजा में 1932 ई. में स्कूल खोला गया।
जननांकीय आँकड़े -
- लाहौल-स्पीति की जनसंख्या 1901 ई. में 12,392 थी जो 1951 में बढ़कर 15,338 हो गई। वर्ष 1971 ई. में लाहौल-स्पीति की जनसंख्या 27,568 थी जो वर्ष 2011 में बढ़कर 31,528 हो गई। लाहौल-स्पीति का लिंगानुपात 2011 में 916 हो गया। वर्ष 2001-2011 में लाहौल-स्पीति लिंगानुपात में सर्वाधिक (+114 वृद्धि) वृद्धि दर्ज करने वाला जिला था। उसका लिंगानुपात 2011 में 802 से बढ़कर 916 हो गया। शिशु लिंगानुपात (0-6 वर्ष) में लाहौल-स्पीति 2011 में 1013 लिंगानुपात के साथ न केवल हिमाचल प्रदेश बल्कि भारत के सभी जिलों में प्रथम स्थान पर आया है। लाहौल-स्पीति में कुल 521 गाँव है जिसमें 287 आबाद गाँव है। लाहौल-स्पीति में 41 ग्राम पंचायतें हैं।
लाहौल-स्पीति का स्थान -
- लाहौल-स्पीति की जनसंख्या 2011 में 31,528 (0.46%) थी जो कि 12 जिलों में न्यूनतम है। लाहौल-स्पीति में सबसे कम (नकारात्मक) दशकीय जनसंख्या वृद्धि 2001-2011 में दर्ज की गई है जो कि -5.10% थी। लाहौल-स्पीति 2011 में दूसरा सबसे कम साक्षर जिला है चम्बा के बाद। लाहौल-स्पीति के लिंगानुपात में +114 वृद्धि दर्ज की गई है। लाहौल-स्पीति का जनघनत्व 2011 में भी न्यूनतम है। लाहौल-स्पीति में सबसे कम वर्षा, सबसे कम कृषि भूमि है। लाहौल-स्पीति और किन्नौर में 100% जनसंख्या निवास करती है। लाहौल-स्पीति का क्षेत्रफल 13,835 वर्ग किमी. (24.85%) 12 जिलों में सर्वाधिक है। लाहौल-स्पीति में सर्वाधिक वन क्षेत्रफल (10,138 वर्ग किमी.) है जबकि यह सबसे कम वनाच्छादित क्षेत्रफल 193 वर्ग किमी. (1.39 %) है। लाहौल-स्पीति में चम्बा के बाद सबसे अधिक चरागाह है। लाहौल-स्पीति में सबसे कम बकरियाँ और गाय बैल है। लाहौल-स्पीति में सबसे कम फलों का उत्पादन होता है। लाहौल-स्पीति में किन्नौर के बाद सबसे कम सड़कों की लंबाई (1218 वर्ग किमी.) है।
स्थान -
- लोसर - लोसर स्पीति का अंतिम गाँव है।
- ताबो - काजा के पास ताबो गोम्पा स्थित है। इस गोम्पा के भित्ति चित्र अजंता के भित्ति चित्रों से मेल खाते हैं। यह गोम्पा 1975 ई. के भूकम्प में क्षतिग्रस्त हो गया था। ताबो मठ महायान के 'गेलुक्पा' मत से है।
- 'की' गोम्पा - स्पीति नदी के बाएं किनारे पर स्थित यह गोम्पा स्पीति का सबसे बड़ा गोम्पा है जो 1975 ई. के भूकम्प से क्षतिग्रस्त हो गया था।
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लाहौल स्पीति का इतिहास (History of Lahaul Spiti)
संहिताओं, ब्राह्मण उपनिषदों और सूत्रों में निहित भौगोलिक जानकारी हमें यह विश्वास दिलाती है कि भारत ने कभी भी कैलाश मानसरोवर क्षेत्र को विदेशी भूमि नहीं माना था, जिसे आज भी हिंदुओं के लिए तीर्थ स्थान माना जाता है। परंपरा हमें बताती है कि भूमि के शुरुआती शासकों में से एक मनु थे जिन्होंने 3100 ईसा पूर्व और 2550 ईसा पूर्व के बीच शासन किया था। भौगोलिक ज्ञान जो महाभारत और भगवद गीता के खातों से प्राप्त होता है, यह विश्वास करने के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करता है कि लाहौल और स्पीति के लोग वह भी महान् महाभारत युद्ध में भागीदार रहा होगा। प्राचीन काल में, लाहौल-स्पीति या तो कलाक्लुटा या मंदामती क्षेत्र का हिस्सा रहा होगा।
हिमालय अशोक के साम्राज्य का हिस्सा था। कनिष्क के काल से लेकर कश्मीर से लेकर काफिरिस्तान तक एक महान जनपद था। यमुना, सतलुज और ब्यास के पड़ोस में कुइनीदास जनजाति का शासन था। इसमें लाहौल स्पीति भी एक हिस्सा रहा होगा। कुल्लू में कुलूतों का निवास था। कांगड़ा के पूर्व के क्षेत्र पर औदुंबरों का कब्ज़ा था। मालवा के यशोधर्मन (530540 ई.) का साम्राज्य उत्तर में हिमालय तक था। कपिसा, कश्मीर, कुलुता, सतादुर, मोलिपाला और सुवर्णगुत्रा के सभी मौजूदा साम्राज्य उच्च हिमालय में स्थित थे। इस पर महिलाओं का शासन था और इसे महिलाओं के राज्य के रूप में जाना जाता था। यह सर्वविदित है कि कुषाणों के अधीन, मध्य एशिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और पूर्वी ईरान सहित उत्तर भारत एक राज्य गठन में एकजुट थे। इस काल के सिक्के और शिलालेख कांगड़ा के कनिहारा में लोकप्रिय थे। महान कुषाण राजा कनिष्क से जुड़ा एक स्तूप जिसका नाम कनिका-चोद-टेन (कनिष्क चैत्य, कनिष्क स्तूप) है, ज़ांस्कर में पाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कनिका कुसान राजा कनिष्क का ही नाम है। इसी प्रकार कनिका (कनिष्क) द्वारा निर्मित पेशावर में कनिका चैत्य नामक स्तूप का वर्णन अल ब्रूनी द्वारा किया गया है। लद्दाख निस्संदेह कनिष्क साम्राज्य का था। ऐसी स्थिति में जब लाहौल के आसपास के सभी देश कुषाणों के अधीन थे, हम बिना किसी संदेह के कह सकते हैं कि लाहौल भी कुषाण साम्राज्य का हिस्सा था। गुप्त काल और कन्नौज के शासन के दौरान लाहौल की स्थिति संभवतः एक बाहरी इलाके की थी।
गुप्तों में सबसे शक्तिशाली समुद्रगुप्त का साम्राज्य केवल ब्यास घाटी तक फैला था। लेकिन थानेश्वर के हर्षवर्धन (606-664 ई.) के शासनकाल के दौरान लाहौल फिर से अपनी राजधानी ब्रह्मपुरा से जुड़ गया, कहा जाता है कि 600 ई. में लाहौल पर विजय प्राप्त कर ली थी, लेकिन जल्द ही, शायद केवल एक हिस्सा, कुल्लू के पास चला गया। हालाँकि ब्रह्मपुरा और कुल्लू की रियासतें हर्षवर्द्धन के साम्राज्य में शामिल थीं। अत: इनके माध्यम से लाहौल भी महान साम्राज्य से जुड़ गया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, उसी काल में लाहौल का पहला ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है।
ह्वेनसांग ने 635 ई. में कुल्लू का दौरा किया और लाहौल को लाहुआला नाम से एक देश के रूप में देखा। शुरुआती समय में स्पीति पर सेन राजाओं का शासन था। सबसे पहले ज्ञात शासकों में से एक समुंद्र सेन थे। समय के साथ, राजेंद्र सेन के शासनकाल के दौरान, कुल्लू थोड़े समय के लिए स्पीति की सहायक नदी बन गया। चीट सेन के शासनकाल के दौरान स्पीति की किस्मत में गिरावट आई और सातवीं शताब्दी में, इसे लद्दाख द्वारा कब्जा कर लिया गया। स्काईडल्डे निमामगोन के समय में लद्दाख का राज्य उत्तरी पर्वत श्रृंखलाओं से लेकर डेमचोंग, गुगे (राडुक के दक्षिणपूर्व और मानसरोवर के पश्चिम) और लाहौल-स्पीति के आधुनिक जिले सहित राडुक तक फैला हुआ था। उसका पुत्र LdeGtsugmgon, जांस्कर और स्पीति का शासक बना। यह निश्चित है कि स्पीति के शासक शुरू से ही नॉन थे। ऐसा लगता है कि लद्दाख के मजबूत शासन के दौरान, स्पीति लद्दाख का एक अभिन्न अंग था और कमजोर शासन के दौरान, यह नाममात्र के लिए लद्दाख से जुड़ने तक एक स्वायत्त राज्य था। आठवीं शताब्दी ई. में चम्बा का राजा अजयवर्मन कश्मीर का जागीरदार बन गया। इस प्रकार लाहौल भी अप्रत्यक्ष रूप से कश्मीर के प्रभाव में आ गया, यह लाहौल के मायलांग में पाए गए ललितादित्य काल की मिश्रित कश्मीर-कन्नौज शैली में नक्काशीदार लकड़ी की राहत से स्पष्ट है। चूंकि 9वीं शताब्दी से पहले लद्दाख का इतिहास उपलब्ध नहीं है, इसलिए उस अवधि से पहले लाहौल के साथ लद्दाख का जुड़ाव स्पष्ट नहीं है। यदि ग्यामुर के बारे में अधिक अनुमान लगाना या देखा जाना कि ग्यामूर लाहौल में है, सही है, तो ऐसा लगता है कि शुरुआती समय में लाहौल का यह हिस्सा लद्दाख के अधीन नहीं था, बल्कि लद्दाख का कुछ हिस्सा ग्यामुर के अधीन रहा होगा।
चंबा के राजा विजय वर्मा ने 1175 ई. के आसपास फिर से सत्ता हासिल की और कश्मीर और लद्दाख पर आक्रमण किया, ऐसा लगता है कि उन्होंने कम से कम चंबा-लाहौल और पैटन घाटी पर कब्ज़ा कर लिया होगा। 1207 में मंगोलों ने लद्दाख पर पहले ही हमला कर दिया था और गंगिज़ खान और उसके उत्तराधिकारियों की आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। ऐसा लगता है कि न तो लद्दाख और न ही लाहौल पर कभी मंगोलों या मुसलमानों का शासन था। लाहौल में मिली कब्रों और शवों से इन हमलों की पुष्टि होनी चाहिए, क्योंकि हिंदू और बौद्ध अपने मृतकों को दफनाते नहीं हैं। इस काल का श्रेय स्पीति प्रमुखों को भी दिया जा सकता है, जिन्हें पिट्टी ठाकुर के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने कुल्लू के एक हिस्से पर शासन किया था और कुल्लू घाटी में राजधानी जगत सुख की स्थापना की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि लाहौल चुमुर्ती से ऊपरी किन्नौर तक फैले एक छोटे बौद्ध साम्राज्य गुगे के अधीन आ गया है। 1410 ई. के आसपास तिब्बत में त्सोंग खापा (13571417) द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म का गेलुग्पा संप्रदाय, जिसे येलो हैट्स के नाम से जाना जाता है, इन क्षेत्रों में तेजी से फैल गया। 1532 और 1559 के बीच बहादुर सिंह ने गुगे या लद्दाख के अधीन रहने वाले लाहौल की पिछली स्थिति को उलट दिया। उन्होंने पहले तीनन या गोंधला घाटी पर कब्ज़ा किया और फिर घर घाटी की ओर विस्तार किया। बहादुर सिंह ने बारबोग के थालूर, त्सेरिंग अंगुरप को गहर घाटी में अपना शासक नियुक्त किया। हालाँकि, बौद्ध होने के कारण त्सेरिंग एंग्रुप वास्तव में लद्दाख के पक्षधर थे। बहादुर सिंह के बाद 1559 में प्रताप सिंह ने शासन किया, जिन्होंने 1575 तक शासन किया। प्रताप सिंह के शासनकाल के दौरान बारबोग के ट्रैशी ग्यापो लाहौल के उन हिस्सों के सबसे प्रमुख प्रमुख थे जो कुल्लू से जुड़े हुए थे।
ऐसा महसूस किया जाता है कि यदि संपूर्ण पट्टन, कम से कम जाहलमा और चंबा से परे का क्षेत्र, तो लाहौल उस समय चंबा का हिस्सा रहा होगा। 17वीं सदी की शुरुआत में बौद्ध ग्यालपो जम्या ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू किया। उसने स्पीति पर कब्ज़ा कर लिया; लाहौल पर कब्ज़ा करने का कोई उल्लेख नहीं है। सेंगे नामग्याल के बाद 1645 में उनके बेटे डेडेन नामग्याल ने शासन किया, जिन्होंने 1675 तक शासन किया। अपने पिता की तरह उन्होंने भी नुब्रा, स्पीति, ऊपरी किन्नौर, ज़ांस्कर और लाहौल को शामिल करने के लिए अपने राज्य का विस्तार किया। यहां उल्लिखित लाहौल सीधे तौर पर टॉड घाटी ही होगी, जबकि अन्य अधिकांश भाग कुल्लू के पास थे। 1671 में गोल्डन त्सेवांग के नेतृत्व में मंगोलों ने लाहौल पर आक्रमण किया, जिसे सेगपो के आक्रमण के नाम से जाना गया। ऐसा माना जाता है कि वे इस क्षेत्र में केवल कुछ वर्षों तक ही रहे। माना जाता है कि इस मंगोल सेना ने कोलोंग किले पर धावा बोल दिया था। उसके बाद उन्होंने नदी पार की और कुल्लू पर हमला करने के रास्ते में गोंधला घाटी पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया। हालाँकि, एक दुर्भाग्य ने उन पर हमला कर दिया और गोंधला घाटी में रोपसांग के पास हिमस्खलन में अधिकांश बल नष्ट हो गए। जाहिर तौर पर ये मंगोल पट्टन घाटी तक नहीं पहुंचे। 1672 में मंगोलों के पीछे हटने के बाद, कुल्लू के राजा जगत सिंह के पुत्र राजा बुद्धि सिंह ने लाहौल के लोगों को प्रभावित करने के अवसर का लाभ उठाया। बुद्धि सिंह ने किश्तवाड़ के शासक की बेटी से विवाह किया, जिसके अवसर पर वे स्वयं लाहौल होते हुए किश्तवाड़ गये। जाहिर तौर पर लाहौल का अधिकांश हिस्सा, विशेषकर पट्टन, गहर और टॉड घाटियाँ उस समय गुगे के अधीन थीं। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक गुगे सरकार कमजोर हो गई थी। इसलिए पहले बुद्धि सिंह और बाद में कुल्लू के मान सिंह ने लाहौल के अधिकांश हिस्से पर कब्ज़ा करने की कोशिश की।
दूसरी ओर, चम्बा के चत्तर सिंह ने लाहौल के पश्चिमी भाग में काफी प्रभाव प्राप्त कर लिया। इस प्रकार कुछ समय के लिए त्रिलोकनाथ और चम्बा लाहौल का शेष भाग तथा पट्टन घाटी का कुछ भाग चम्बा के अंतर्गत आ गया। बारबोग के ठाकुर गहर घाटी के लिए कुल्लू राजाओं के शासक थे। हालाँकि, इन ठाकुरों का झुकाव मुख्य रूप से उनके बौद्ध होने के कारण लद्दाख की ओर था, और शायद लद्दाख द्वारा बसाए गए लोगों को गहर घाटी में प्रवास करने की अनुमति देने के पहले के दायित्व के कारण भी। इस पर अध्यायों में अधिक चर्चा की गई है। इस प्रकार चंबा और कुल्लू के बीच लाहौल के इस अंतिम विभाजन के बाद, चरत सिंह के समय तक लाहौल में कोई अन्य प्रमुख राजनीतिक पुनर्गठन नहीं हुआ, जिन्होंने 1808 से 1844 तक चंबा पर शासन किया था। उनके समय के दौरान चंबा में पाडर के एक शक्तिशाली गवर्नर ने ज़ांस्कर पर आक्रमण किया, शायद लाहौल में मयार नाले के माध्यम से, और ज़ांस्कर को चंबा की एक सहायक नदी बना दिया। मूरक्रॉफ्ट ने यह भी लिखा है कि लाहौल में किसानों ने चार गांवों, बरकलानक और तीन अन्य को छोड़कर अपनी जमीन कुल्लू के राजा के अधिकार में रखी थी, जिन्हें वे टांडी के रास्ते में पार कर गए थे। उन्होंने कहा कि हालाँकि इन गाँवों ने कुल्लू के राजा के प्रति सैन्य निष्ठा स्वीकार की, लेकिन उन्होंने लद्दाख राज्य को लगान का भुगतान किया।
प्रथम सिख युद्ध के अंत में 9 मार्च 1846 की संधि द्वारा, सतलुज और सिंधु के बीच का पहाड़ी क्षेत्र ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया गया, और लाहौल सहित सतलुज और रावी के बीच का हिस्सा अंततः ब्रिटिश क्षेत्र बना रहा, बाकी को 16 मार्च 1846 को अमृतसर में संपन्न एक अन्य संधि द्वारा जम्मू के राजा गुलाब सिंह को बेच दिया गया। लाहौल सहित कुल्लू को तब कांगड़ा के नवगठित जिले के हिस्से के रूप में एक सहायक आयुक्त का प्रभारी बनाया गया था। उसी समय स्पीति को लद्दाख से अलग कर कुल्लू में मिला लिया गया। लाहौल और चंबा के बीच की सीमा दायीं ओर चुकाम (त्सोखांग) के नालों और चंद्रभागा के बाएं तट पर नालदा द्वारा चिह्नित की गई थी, और लाहौल और लद्दाख के बीच बारालाचा रेंज द्वारा चिह्नित की गई थी, इस हिस्से को ब्रिटिश लाहौल का नाम दिया गया था और दूसरे को ब्रिटिश लाहौल का नाम दिया गया था। थिरोट के नीचे का भाग चम्बा लाहौल के नाम से जाना जाता था। अंततः 1975 में दोनों हिस्से एक हो गए। अंग्रेजों ने शायद ही कभी क्षेत्र के लिए लड़ाई लड़ी, इसके बजाय उन्होंने बातचीत के माध्यम से टुकड़े-टुकड़े करके चुपचाप जीत हासिल की।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिक्ख भी अपेक्षाकृत कमज़ोर हो गये, जबकि ब्रिटिश प्रभाव बढ़ गया। मार्च 9,1846 की संधि में, जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह को सिखों और ब्रिटिश दोनों द्वारा एक स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दी गई थी। सिखों को कश्मीर और हजारा सहित ब्यास और सिंध नदियों के बीच का क्षेत्र अंग्रेजों को सौंपने के लिए मजबूर होना पड़ा। बदले में अंग्रेजों ने उन्हें 10 मिलियन रुपये की राशि में गुलाब सिंह को हस्तांतरित कर दिया। इस सौदे को बाद में बदल दिया गया, अंग्रेज कुल्लू और मंडी को अपने पास रखना चाहते थे और इसलिए राशि को 7,50,000 रुपये कर दिया गया। लाहौल ने कुल्लू के भाग्य का अनुसरण किया। दरअसल यह बदलाव तिब्बत के साथ व्यापार की खातिर लाहौल को बरकरार रखने के लिए किया गया था। लाहौल का वह हिस्सा जो अंग्रेजों के अधीन आया, जो पहले कुल्लू का हिस्सा था, उसमें गोंधला और गहर घाटी, दारचा तक टॉड घाटी और थिरोट तक पट्टन घाटी शामिल थी। इस हिस्से को आगे से ब्रिटिश लाहौल भी कहा जाता था और इसे कुल्लू तहसील का एक हिस्सा बना दिया गया, जो बदले में कांगड़ा जिले का हिस्सा बन गया। ब्रिटिश नियंत्रण में आये लाहौल का कुल क्षेत्रफल 2255 वर्ग मील आंका गया। कैप्टन हे कुल्लू के पहले सहायक आयुक्त थे। लाहौल के प्रमुख बाली राम को नेगी की उपाधि दी गई। किसी तरह, ऐसा लगता है कि उनके और ब्रिटिश सरकार के बीच मतभेद पैदा हो गए और बाली राम को पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, हालांकि यह दावा किया गया कि उन्होंने खुद इसे अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप कोलोंग के तारा चंद को लाहौल का नेगी बनाया गया।
ब्रिटिश लाहौल को चौदह कोठियों (काउंटियों) में विभाजित किया गया था। प्रत्येक कोठी को एक लम्बरदार (मुख्य व्यक्ति) और एक चौकीदार नियुक्त किया जाता था जिसे क्रौंका कहा जाता था। लाहौल के नेगी भी एक मानद मजिस्ट्रेट थे, जिन्हें पदेन अधीनस्थ मजिस्ट्रेट, द्वितीय श्रेणी की शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। इसलिए वह किसी अपराधी को एक महीने तक की कैद कर सकता था और पचास रुपये तक का जुर्माना या दीवानी मुकदमा दायर कर सकता था। तारा चंद नेगी को कार्यालय स्थापित करने के लिए पच्चीस रुपये प्रति माह की अनुमति दी गई। तारा चंद कोलोंग में रहते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड एल्गिन ने 1863 में रोहतांग को पार किया और उसी दिन वापस लौट आये। हरकोर्ट ने इसे एक उपलब्धि बताया जिसे बहुत कम अंग्रेज करना चाहेंगे और यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुआ। इस भ्रमण को लॉर्ड एल्गिन्स को हृदय रोग उत्पन्न करने के लिए दोषी ठहराया गया, जिसके कुछ ही समय बाद राजनेता की मृत्यु हो गई। तारा चंद को 1876 में लाहौल के नेगी के रूप में हरि चंद द्वारा सफल बनाया गया था। उन्हें लाहौल के वज़ीर की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 1914 तक लाहौल के पूरे प्रशासन का कार्यभार संभाला जब अमर चंद ने हरि चंद से पदभार संभाला।
प्रथम विश्व युद्ध में, अमर चंद को उनके अधीन पाँच लाहौलियों के साथ ब्रिटिश भारतीय सेना में जमादार के रूप में नियुक्त किया गया था। 1917 में उन्हें राज बहादुर की उपाधि दी गई। इससे ठाकुरों के भारतीय सेना में शामिल होने की परंपरा शुरू हुई। 1921 में उनकी मृत्यु हो गई, जबकि उनका बेटा अभे चंद अभी नाबालिग था। इसलिए प्रशासन का दायित्व उनके छोटे भाई मंगल चंद को सौंपा गया। वह भारत की स्वतंत्रता से पहले लोहौल के अंतिम शासक थे।
1920 से 1940 के दशक के दौरान जब शेष भारत ब्रिटिश शासन से आजादी के लिए लड़ रहा था, लाहौल में लोगों के एक समूह ने ठाकुरों के अत्याचारी शासन से मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ी। कहा जाता है कि एक समय जनता इतनी दबी हुई थी कि कोई भी ठाकुरों के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करता था, चाहे कुछ भी हो जाए। जब भी ठाकुर वहां से गुजरते थे तो लोगों को साष्टांग प्रणाम करना पड़ता था, वस्तुतः जमीन पर लेटना पड़ता था। जहां भी ठाकुर अपने घोड़ों पर सवार होते थे, राहगीरों को ठाकुरों के पैरों पर अपना माथा रगड़ना पड़ता था या फिर पीठ पर कोड़ा मारना पड़ता था। जिन लोगों पर लंबे समय तक ठाकुरों का शासन था, वे इसके आदी हो गए थे, लेकिन यह कुछ ज्यादा ही था। पट्टन घाटी के लोग जिन्होंने पहले कभी इस तरह का उत्पीड़न नहीं सहा था। वे आत्मसम्मान की परवाह करने वाले स्वाभिमानी लोग थे और इस तरह का व्यवहार उनकी बर्दाश्त के बाहर था. ऐसी स्थिति में, लोटे गांव के साजा राम नाम के एक व्यक्ति ने वजीर के अत्याचार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। साजा राम आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले पहले लोगों में से थे और हालाँकि यह केवल प्राथमिक शिक्षा थी, जब यह कार्यालय खुला तो उन्होंने तृतीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट, नायब तहसीलदार के लिए मुंशी (कार्यालय सचिव) के रूप में कार्य किया। इसी कारण से उन्हें बाद में मुंशी साजा राम के नाम से जाना जाने लगा। उनका व्यक्तित्व महान और शेर जैसा चेहरा था। उन्होंने सत्तारूढ़ ठाकुरों के खिलाफ मोर्चा संभाला, जिनके पास शक्ति, धन और पद था। हालाँकि पट्टन घाटी के अधिकांश लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे, लेकिन बहुत कम लोगों में उनके साथ खुलकर खड़े होने की हिम्मत थी। केवल कुछ ही लोगों ने बहादुरी से उनका अनुसरण किया। इस संघर्ष में प्रत्यक्ष अवज्ञा से लेकर खुले प्रदर्शन से लेकर शारीरिक हिंसा और मारपीट तक का दौर शामिल था। उनकी कई बार सीधी मुठभेड़ हुई। मुंशी साजा राम के छह बेटे थे, जिनमें से तीन सबसे छोटे उन दिनों स्कूल में थे। उन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष मुठभेड़ों के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने के लिए विशेष शारीरिक प्रशिक्षण दिया। शासक ठाकुरों के लड़के सेना में थे। जब भी वे छुट्टी पर आते, तो यह निश्चित था कि जहाँ भी वे एक-दूसरे के सामने आते, उनके और मुंशी के बच्चों के बीच झगड़ा होता। ये संघर्ष चलता रहा और एक गंभीर मुद्दा बन गया.
1938 में, कुल्लू के सहायक आयुक्त श्री आर्थर लाल ने सरकार को सर्दियों के दौरान सेवा देने के लिए लाहौल में एक नायब तहसीलदार की नियुक्ति की सिफारिश की, जब वजीरों को सैन्य ड्यूटी के लिए बुलाया गया था। इस प्रकार नायब तहसीलदार की स्थायी नियुक्ति के लिए परिवर्तन शुरू हुआ, बिना वजीर को यह महसूस कराए कि उसकी शक्तियां अचानक खत्म हो रही थीं। 1940 में, लाल के उत्तराधिकारी अजीम हुसैन ने प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता पर फिर से जोर दिया। उन्होंने देखा कि लाहौल का माहौल आतंकमय हो गया है। लोग उस समय तक वज़ीर के प्रशासन का खुलकर विरोध कर रहे थे। प्रदर्शन और अवज्ञा रोजमर्रा की बात हो गई थी। ठाकुरों ने बहुसंख्यक जनता से नियंत्रण और सम्मान दोनों खो दिया था। अजीम हुसैन को एहसास हुआ कि आर्थर लाल द्वारा सुझाई गई व्यवस्था अब पर्याप्त नहीं थी, इसलिए उन्होंने स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर होने से रोकने के लिए और अधिक कठोर कदम उठाने का सुझाव दिया। सरकार ने उनकी सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया और एक नायब तहसीलदार की नियुक्ति कर दी, इस प्रकार 1941 में वज़ारत का अंत हो गया। 1943 में एक मौसमी पुलिस पोस्ट के शामिल होने के साथ, मुक्ति के लिए संघर्ष भी समाप्त हो गया। ठाकुर प्रताप चंद सेना से कैप्टन के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद नायब तहसीलदार के पद पर कार्यरत थे। हालाँकि, नायब तहसीलदार के रूप में उनकी स्थिति वज़ीर होने से काफी अलग थी और उनके लिए एक स्वतंत्र शासक की तरह कार्य करना संभव नहीं था। आजादी के बाद लाहौल पंजाब प्रांत में कांगड़ा जिले के कुल्लू उपमंडल के हिस्से से बना रहा। अपनी सुदूरता के कारण स्पीति के साथ संयुक्त रूप से लाहौल को 1960 में एक जिला बनाया गया था, जिसका उद्देश्य प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करना और अन्यथा पिछड़े और उपेक्षित क्षेत्र में विकासात्मक कार्यों को आगे बढ़ाना था। 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के बाद, अन्य पहाड़ी क्षेत्रों के साथ इस जिले को हिमाचल प्रदेश के केंद्र शासित प्रदेश में स्थानांतरित कर दिया गया, जो 1971 (जनवरी, 25) में संसद के एक कानून द्वारा केंद्र का एक राज्य बन गया।
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