दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली, मन्त्र, ध्यानम्, कालीस्तव, कवचम, (Among the ten Mahavidyas, the first super power is Mahakali, Mantra, Dhyanam, Kali Stava, Kavach,)

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली, मन्त्र, ध्यानम्, कालीस्तव, कवचम, (Among the ten Mahavidyas, the first super power is Mahakali, Mantra, Dhyanam, Kali Stava, Kavach,)

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली

प्रथम महाविद्या काली को आद्य महाविद्या भी कहा जाता है क्योंकि उपरोक्त वर्णन के अतिरिक्त भी इन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। इन्हें भगवान विष्णु की योगनिद्रा भी कहते हैं। किसी भी महाविद्या की माया ग्रन्थों में तो उपलब्ध होती है परन्तु उनका वास्तविक प्रादुर्भाव प्रायः लुप्त ही रहता है। इसी भाँति से काली का प्रादुर्भाव भी लुप्त है क्योंकि जब कोई नहीं था तब इन्हें कौन जानता ? कैसे जानता ? इस पर भी कुछ प्राच्य विशारदों ने इनके ऊपर भिन्न-भिन्न दृष्टि डाली है, जो कि निम्नलिखित भाँति से अलग-अलग है-
यह देवी नित्य और अजन्मा है तथापि देवकार्य सम्पन्न करने के निमित्त जब यह अभिन्न रूप सेअवतरित होती है तब उसी रूप से जानी जाती है। कल्प के अन्त में जब समस्त सृष्टि एकार्णव में निमग्न हो रही थी तब भगवान विष्णु क्षीरसागर में, शेषनाग की शय्या पर योगनिद्रा का आश्रय लेकर निद्रामग्न हो गये थे। ऐसे समय पर उनके कानों की मैल से दो भयानक असुर उत्पन्न हुये जो कि मधु तथा कैटभ के नाम से विख्यात हुये हैं। यह दोनों ही ब्रह्मा को खाने के लिये अग्रसर हुये। भगवान की नाभि कमल पर स्थित ब्रह्मा यह दृश्य देखकर विचलित हो उठे। उन्होंने भगवान को अत्यधिक पुकारा, परन्तु वह सोये रहे। तब उन्होंने आद्यभवानी की स्तुति की जिसके फलस्वरूप भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय तथा वक्षःस्थल से निकल कर काली जी उनके समक्ष खड़ी हो गईं।

शिमला का कालीबाड़ी मंदिर (Kalibari Temple of Shimla)

एक अन्य वृतान्त भी पाया जाता है, जिसके अनुसार चण्ड-मुण्ड से युद्ध करते हुये अम्बिका को अतिशय क्रोध उपजा, जिसके कारण उनका मुखमण्डल काला हो गया। ललाट पर भौंहे टेढ़ी हो गयीं और वहाँ से तत्क्षण विकरालमुखी काली का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण लिखी थी जो कि आज सर्वविदित है। इन्होंने एक और गुप्त रामायण लिखी थी जिसे कि अद्भुत रामायण कहते हैं इसके अनुसार सहस्त्रमुखी रावण से युद्ध करते हुए भगवान  राम मूच्छित हो जाते हैं। सीता जी उन्हें मृत हुआ समझ कर अतिशय क्रोध  करने के कारण काली हो जाती हैं और सहस्रमुखी रावण का वध कर देती हैं।
इनके भव्य श्रीविग्रह आसाम, बंगाल में अत्यधिक दृष्टिगोचर होते हैं। जालन्धर-पीठ पर 'चामुण्डा देवी' नामक श्रीविग्रह भी इन्हीं का स्वरूप है।

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली मन्त्र'

क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्र हं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा।

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली का ध्यानम्

करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमालाविभूषिताम्।
सद्यश्छिन्नशिरः खंगवामाधोर्द्धवकराम्बुजाम् ।
अभयं वरदञ्चैव दक्षिणाधोर्द्धवपाणिकाम् ।
महामेघप्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् । 
कण्ठावसक्तमुण्डालीगलद्रुधिरचच्चिताम् ! 
कर्णावतंसनानीतशवयुग्मभयानकाम् !
घोरदंष्ट्राकरालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् । 
शवानां करसंघातैः कृतकाञ्चीं हसन्मुखीम् ।
सृक्कच्छटागलद्रक्तधाराविस्फूरिताननाम् । 
घोररावां महारौद्रीं श्मशानालयवासिनीम् । 
बालार्कमण्डलाकारलोचनत्रितयान्विताम् !
दन्तुरां दक्षिणव्यापिमुक्तालम्बिकचोच्चयाम् । 
शवरूपमहादेवहृदयोपरि संस्थिताम् । 
शिवाभिर्घोररावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् । 
महाकालेन च समं विपरीतरतातुराम् । 
सुखप्रसन्नवदनां स्मेराननसरोरुहाम् ॥

कालिकादेवी भयंकर मुखवाली, घोरा, खुले बालों वाली, चार हाथों से और मुण्डमाला से अलंकृत हैं। उनके बायीं तरफ के दोनों हाथों में तत्काल काटे गये शव का सिर एवं खंड और दक्षिण तरफ के दोनों हाथों में अभय और वरमुद्रा सुशोभित हैं। कण्ठ में मुण्डमाला है काले मेघ के समान श्यामवर्ण है, दिगम्बरी है। कण्ठ में स्थित मुण्डमाला से टपकते हुए रुधिर से लिप्त शरीर वाली है। घोर दंष्ट्रा है करालवदना है और उन्नत पीनस्तन वाली हैं। उनके दोनों कानों में मृतक के मुण्ड भूषण रूप से शोभा पा रहे हैं। देवी की कमर में शव के हाथों की करधनी विद्यमान है। वह हास्यमुखी हैं। उनके दोनों होठों से रुधिरधारा क्षरित हो रही है जिसके कारण हृदय कम्पित होता है। देवी घोर शब्द करने वाली हैं महाभयंकरी हैं और यह श्मशानवासिनी हैं। उनके तीनों नेत्र नवीन सूर्य के समान हैं। वह बड़े दाँत और लम्बे लहराते केशों से युक्त हैं। वह शवरूपी महादेव के हृदय पर स्थित हैं। उनके चारों ओर भीषण गीदड़ियाँ भ्रमण करती हैं। देवी महाकाल के सहित विपरीत रता (अर्थात् मैथुन) में आसक्त हैं। वह प्रसन्नमुखी सुहास्यवदना है यह समस्त कामनाओं की दात्री है।

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली का स्तव

कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपरहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं । 
तेषां गद्यानि च मुखकुहरादल्लसन्त्येव वाचः । 
बीजन्ते मातरेतत्रिपुरहरवधु त्रिःकृत ये जपन्ति 
स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्व सिद्धिं गतानाम् !

हे जननी! हे सुन्दरी ! तुम्हारे देह की कान्ति श्यामवर्ण मेघ के समान मनोहर है। जो तुम्हारे एकाक्षरी बीज को त्रिगना करके जप करते हैं, वह शिव की अणिमादि अष्टसिद्धियों को प्राप्त करते हैं और उनके मुख से गद्यपद्यमयी वाणी निकलती हैं।

ईशानः सेन्दुवामश्रवणपरिगतं बीजमन्यन्महेशि द्वन्द्धं 
ते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमन्य कदाचित् । 
जित्वा वाचामधीशं धनदमपि चिरं  चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षीवृन्दं !
चन्द्रार्द्धचूडे प्रभवति सम महाघोरबाणावतंसे !

हे महेश्वरी! तुम्हारे भाल पर अर्द्धचन्द्र शोभा पाता है। दोनों कानों  में दो महाभयंकर बाण अलंकार स्वरूप से विद्यमान हैं। विषयों से घिरे पुरुष भी तुम्हारे हूं' बीज को चूना करके पवित्र अथवा अपवित्र काल में एक बार जप करने से विद्या और धन द्वारा सुर गुरु भग और कुबेर को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। वह पुरुष सुन्दर स्त्रियों को भी मोहित कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं।

ईशौ वैश्वानरस्थः शशधरविलसद्वामनेत्रेण युक्तो
बीजं ते द्वन्द्वमन्यद्वि गलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति
द्वेष्टारंघ्नन्ति ते च त्रिभुवनमपि ते वश्यभावं नयन्ति 
सृक्कद्वन्द्वास्त्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति ॥

हे खुले एवं लहराते केशों वाली ! तुम विश्वसंहर्त्ता काल के संग विहार करती हो। इसी कारण तुम्हारा नाम 'कालिका' है। तुम बाँये होकर दक्षिण में स्थित महादेव को पराजित करती हुई स्वयं निर्वाण का दान करती हो। इसी कारण 'दक्षिणा' नाम से तुम प्रसिद्ध हुई हो। तुमने प्रणवरूपी शिव का अपने महात्म्य से तिरस्कार किया है। तुम्हारे दोनों होठों से रुधिरधारा क्षरित होने के कारण तुम्हारा बदन परम शोभा को पाता है। जो तुम्हारे 'ह्रीं ह्रीं' इन दोनों बीजों को जप करते हैं, वह शत्रुओं को पराजित कर त्रिभुवन को वशीभूत कर सकते हैं। अथवा जो इस मन्त्र को जपते हैं, वह शत्रुकुल को वशीभूत कर त्रिभुवन में विचरण किया करते हैं।

उर्द्धवामे कृपाणं करतलकमले छिन्नमुण्डं तथाधः
सव्ये चाभीर्वरञ्च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिकेति । 
जप्त्वैतन्नामवर्णं तव मनुविभवं भावयन्त्येतदम्ब 
तेषामष्टौ करस्थाः प्रकटितवदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य ॥ 

हे जगन्मातः ! तुम संसार के पापियों का पाप हरती हो। तुम्हारे दाँतों की पंक्ति महाभयंकर है। तुमने ऊपर के बाँये हाथ में खंग नीचे के बाँये हाथ में मुण्ड, ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे के दक्षिण हाथ में वर मुद्रा को धारण किया है। जो तुम्हारे नाम के स्वरूप 'दक्षिणकालिके' जपा करते हैं जो तुम्हारे स्वरूप का मनन किया करते हैं, उनके पास अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ उपस्थित हुआ करती हैं।
 
वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुरति ललितं तत्त्रयं कूर्च्ययुग्मं 
लज्ञ्जाद्वन्द्वञ्च पश्चात्स्मितमुखि तदधष्टद्वयं योजयित्वा
मातर्ये ये जपन्ति स्मरहर महिले भावयन्ते स्वरूपं ते 
लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरूपा भवन्ति ॥

हे स्मरहर की महिले! तुम्हारा श्रीमुखमण्डल मृदु-मधुर हास्य सर्वदा शोभित है, जो मनुष्य तुम्हारे स्वरूप का ध्यान करते हुए तुम्हारा नवाक्षरमंत्र (अर्थात् क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ हीं हीं स्वाहा) का जप किया करते हैं, वह साक्षात् कामदेव के समान मनोहर आकर्षण शक्ति को प्राप्त करते हैं। उनके नेत्र कमल की लीला पद्म दल के सदृश लम्बी और रमणीय होते हैं।

प्रत्येकं वा त्रयं वा द्वयमपि च परं बीजमत्यन्तगुहां 
त्वन्नाम्ना योजयित्वा सकलमपि सदा भाववन्तो जपन्ति ।
तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमला वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बे 
वाग्देवी दिव्यमुण्डस्त्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढ्ये !!

हे जगन्मातः ! तुम्हारे उपदेशानुसार यह त्रिभूवन अपने-अपने कार्य में नियुक्त होता है, इसी कारण तुम 'देवी' नाम से कथित हो। तुम्हारा कण्ठ मुण्डमाला के धारण से, परम शोभा को पाता है। तुम्हारे वक्ष पर पुष्ट ऊँचे स्तन शोभित हो विराजित हैं। हे महेश्वरी ! जो पुरुष तुम्हारा ध्यान करते हुए 'दक्षिणेकालिके' और अन्त में पूर्वकथित एकाक्षर मंत्र अथवा यह त्रिगुणित तीन अक्षर मंत्र, वा 'ईशो वैश्वानरस्थं' श्लोक कथित द्वयक्षर मंत्र या 'वर्गाद्यः' इत्यादि श्लोक में कहे नवाक्षर मंत्र अथवा गुह्य बाइसाक्षर मंत्र मिलाकर जप करते हैं. लक्ष्मी उनके नेत्र, पद्मों में और सरस्वती जिह्वा पर निवास करती है।

गतासूनां बाहु प्रकरकृतकञ्चीपरिलस-
न्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम्॥
श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत-
प्रसक्तां त्वां ध्यायञ्जञ्जननि जडचेता अपि कविः ।।

हे जननी ! तुम त्रिलोक की सृष्टिकर्ती त्रिलोचना हो। तुम दिगम्बरी हो। तुम्हारे नितम्ब बाहुनिर्मित, कर काञ्ची से अलंकृत हैं। तुम श्मशान में स्थित शवरूपी महादेव के हृदय पर महाकाल के संग रति क्रीड़ा में रत हो। विषयमत्त व्यक्ति भी तुम्हारा इस प्रकार ध्यान करने से अलौकिक कवित्वशक्ति पाता है। 

शिवाभिर्घोराभिः शवनिवसमुण्डास्थिनिकरैः ।
परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् ॥
प्रविष्टां सन्तुष्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं ।
सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभवः ॥


हे देवी! हे कालिके ! तुम महादेव की प्रियतमा हो। तुम विपरीत विहार में सन्तुष्ट होती हो। तुम नवयुवती हो। जिस स्थान में भयंकर शिवायें भ्रमण करती हैं तुम उसी शव मुंडों की अस्थियों से आच्छादित श्मशान में नृत्य किया करती हो। तुम्हारा इस प्रकार मनन करने से पराभव को प्राप्त नहीं होना पड़ता है। 

वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैजैडधियो । 
न धाता नार्पाशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम् ॥
तथापि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकमसिते ।
तदेतत्क्षन्तव्यं न खलु शिशुरोषः समुचितः ॥

हे जननी ! जब महादेव, ब्रह्मा और नारायण भी तुम्हारा परमतस्व नहीं जानते, तब मूढ़मति हम तुम्हारा तत्व किस प्रकार से वर्णन कर सकते हैं? हम जो तुम्हारे विषय में प्रवृत्त हुए हैं। तुम्हारे प्रति भजन में हमारी उत्सुकता ही उसका कारण है। हमें अनधिकार विषय में उद्यम करता हुआ देखकर तुमको क्रोध उत्पन्न हो सकता है किन्तु मूर्ख सन्तान जानकर हमको क्षमा कर देना।

समन्तादापीनस्तनजघनधृग्यौवनवती  !
रतासक्तो नवतं यदि जपति भक्तस्तवममुम् ॥
विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः ।
समस्ताः सिद्धोघा भुवि चिरतरं जीवति कविः ॥
समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः ।
प्रसक्तोऽस्मि स्वैरं रतिरस महानन्दनिरताम् ॥

हे जगदम्बे ! तुम निरन्तर रति रस के आनन्द में निमग्न रहती हो। तुम्हीं सबकी आदिस्वरूपिणी हो। अनेक मूढ़ बुद्धि मनुष्य अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं किन्तु वे अवश्य ही तुम्हारे उस अनिर्वचनीय परम तत्व को नहीं जानते। उनके उपास्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि देवता लोग भी सदा तुम्हारी उपासना में ही लगे रहते हैं।

धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं।
त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् ॥
स्तुतिः का ते मातस्तवकरुणया मामगतिकं । 
प्रसन्ना त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ॥

हे जननी ! क्षिति, जल, तेज, वायु और आकाश यह पंचभूत भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं भगवान् महेश्वर की हृदय रंजिनी हो। तुम्हीं इस त्रिभुवन का मंगल करती हो। हे जननि! इस अवस्था में तुम्हारी फिर क्या स्तुति करूँ ? क्योंकि किसी विलक्षण गुण का आरोप न करके वर्णन करने की स्तुति कहते हैं। हे माता! तुम में कौन सा गुण नहीं है, जो उसको जान करके तुम्हारा स्तव न करूँ ? तुम स्वयं जगन्मयी माता हो। तुम्हारे विषय में जो कीर्तन है वह सब तुम्हारे स्वरूप वर्णन पर आश्रित है। हे कृपामयी ! तुम दया प्रकाश करके इस निराश्रय सेवक के प्रति सन्तुष्ट प्रसन्न हो तो फिर इस सेवक को संसार में पुनः जन्म लेना नहीं पड़ेगा।

श्मशानस्थस्स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः । 
सहस्त्रन्त्वर्काणां निजगलितवीर्येण कुसुमम् ॥
जपंस्त्वत्प्रत्येकममुमपि तव ध्याननिरतो । 
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ॥
जपंस्त्वत्प्रत्येकममुमपि तव ध्याननिरतो । 
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ॥

खोलकर यथाविधि आसन पर बैठकर स्थिर मन से तुम्हारे स्वरूप का मनन/ध्यान करते हुए तुम्हारे मन्त्र का जाप करता है, और अपने निकले वीर्य में सहस्र आक के फूल एक-एक करके तुम्हारी प्रसन्नता के निमित्त अर्पण करता है, वह सम्पूर्ण धरती का स्वामी होता है। गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्य्य हि चिकुरं ।

समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने ।
समुच्चार्य्य प्रेम्णा जपमनु सकृत कालि सततं ।
गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ॥

हे देवी! जो मंगलवार के दिन मध्याह्न काल के समय कंघी द्वारा श्रृंगार किये गृहणी वाले कंघी के समूल केश लेकर पूर्व वर्णित तुम्हारे जिस किसी एक मन्त्र का जप करता हुआ तुम्हें भक्ति सहित वह सामग्री चिताग्नि में अर्पण करता है, वह धरा का अधीश्वर होकर निरन्तर हाथी पर चढ़कर विचरण करने में समर्थ होता है और व्यासादिक कवि कुल की प्रधानता को प्राप्त होता है।

सुपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मंदिरमहो ।
पुरो ध्यायन् यदि जपति भक्तस्स्तवममुम् ॥
स गन्धर्व्वश्रेणींपतिरिव  कवित्वामृतनदी ।
नदीनः पर्य्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ॥

हे जगन्मातः ! साधक यदि स्वयं फलों से रंजित कामगृह को अभिमुख करके मन्त्रार्थ के सहित तुम्हारा ध्यान करता-करता पूर्व वर्णित किसी एक मन्त्र का जप करे तो वह कवित्व रूपी नदी के सम्बन्ध में समुद्रस्वरूप हो जाता है और महेन्द्र की समानता प्राप्त कर लेता है। वह देहान्त के समय तुम्हारे चरण कमल में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करता है तो यह विचित्र बात नहीं है।

त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां । 
महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् !!
महासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो । 
जनो यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात्स्मरहरः ॥

हे जगन्मातः ! तुम्हारे मुखमण्डल पर मृदु हास्य विराजित है। तुम सदा शिव के संग विहार अनुभव करती हो। जो साधक रात्रि में अपना विहार सुख अनुभव करता हुआ शव हृदय रूप आसन पर पाँच दशकोण युक्त तुम्हारे यंत्र में तुम्हारा पूर्वोक्त प्रकार से ध्यान करता है, यह शीघ्र शिवत्व का लाभ प्राप्त करता है।

सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते । 
परञ्चौष्ट्रं मैषं नरमहिषयोश्छागमपि वा ॥ 
बलिन्ते पूजायामपि वितरतां मर्त्यवसतां । 
सतां सिद्धिः सर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ॥

हे जननी ! पृथ्वीवासी साधकगण यदि तुम्हारी पूजा में बिल्ली का माँस, ऊँट का माँस, नरमाँस, महिषमाँस अथवा छाग माँस रोमयुक्त और अस्थियों के सहित अर्पण करें, तो उनके चरण कमल में आश्चर्य भरे विषय सिद्ध होकर विराजित होते हैं।

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो।
दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिपुणः ॥
परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं ।
जनो लक्षं स स्यात्स्मरहरसमान, क्षितितले ॥

हे जगन्मातः ! जो इन्द्रियों को अपने वशीभूत रखकर हविष्य भोजनपूर्वक प्रातःकाल से दिन के दूसरे प्रहर तक तुम्हारे दोनों चरणों में चित्त लगाकर जप करते हैं, और पशु भाव से एक लाख जप का पुरश्चरण करते हैं, अथवा जो साधक रात्रि काल में नग्न और रति में लीन होकर वीरसाधनानुसार एक लाख जप का पुरश्चरण करते हैं, यह दोनों प्रकार के साधक पृथ्वी तल में स्मरहर शिव के समान होते हैं।

इदं स्तोत्रं मातस्तवमनुसमुद्धारणजपः ।
स्वरूपाख्यं  पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् ॥
निशार्द्ध वा पूजासमयमधि वा यस्तु पठति ।
प्रलापे तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ॥

हे जननी ! मेरे द्वारा वर्णित इस स्तंव में तुम्हारे मन्त्र का उद्धार और तुम्हारे स्वरूप का वर्णन हुआ है। तुम्हारे चरण कमल की पूजा विधि का भी विधान इसमें व्यक्त किया है। जो साधक निशा द्विपहर काल में अथवा पूजा काल में इस स्तव को पढ़ता है, उसकी अनर्थक वाणी भी कवित्व सुधारस को प्रवाहित करती है। 

कुरंगाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं ।
वशस्तस्य क्षोणी पतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः ॥
रिपुः कारागारं कलयति च तत्केलिकलया।
चिरं जीवन्मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनुः ॥

मृग के समान नेत्रों वाली नारियाँ इस स्तव को पढ़ने वाले साधक को प्रिय जानकर उसकी अनुगामिनी होती हैं। कुबेर के समान राजा भी उसके वश में रहते हैं। उस साधक के शत्रुगण कारागार में बन्द होते हैं। वह साधक प्रत्येक जन्म में जगदम्बिका का परम भक्त होता है। वह सर्वदा महाआनन्द से विहार करता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है।

दस महाविद्याओं में प्रथम महाशक्ति महाकाली कवचम्

  • भैरव्युवाच
कालीपूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधः प्रभो।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं पूर्वसूचितम् ॥
त्वमेव शरणं नाथ त्रापि मां दुःखसंकटात् ।
त्वमेव स्त्रष्टा पाता च संहर्ता च त्वमेव हि ॥

भैरवी ने पूछा- हे नाथ! हे प्रभो! मैंने काली पूजा और उसके विविध भाव सुने। अब पूर्व में व्यक्त किया कवच सुनने की इच्छा हुई है, उसका वर्णन करके मेरी दुःख संकट से रक्षा कीजिये। आप ही सृष्टि की रचना करते हो, आप ही रक्षा करते हो और आप ही संहार करते हो। हे नाथ! तुम्हीं मेरे आश्रय हो।
भैरव उवाच

रहस्यं शृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे । 
श्रीजगन्मंगलं नाम कवचं मंत्रविग्रहम् ।
पठित्वा धरयित्वा च त्रेलोक्यं मोहयेत् क्षणात् ॥

भैरव ने कहा- हे प्राण वल्लभे ! 'श्रीजगन्मंगलनामक' कवच कहता हूँ। सुनो! इसका पाठ करने अथवा इसे धारण करने से शीघ्र त्रिलोकी को मोहित किया जा सकता है।

नारायणोऽपि यद्धृत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ।
योगेशं क्षोभमनयद्यद्धृत्वा च रघूद्वहः।
वरवृप्तान् जघानैव रावणादिनिशाचरान् ॥

नारायण ने इसको धारण करके नारी रूप से योगेश्वर शिव को मोहित किया था। श्रीराम ने इसी को धारण करके रावणादि राक्षसों का संहार किया था।

यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी प्रभुः । 
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छत्रीपतिः ।
एवं हि सकला देवाः सर्व्वसिद्धीश्वराः प्रिये ॥ 

हे प्रिये ! इसके ही प्रसाद से मैं त्रैलोक्यजयी हुआ हूँ।  कुबेर इसके प्रसाद से धनाधिप हुए हैं। शचीपति सुरेश्वर और सम्पूर्ण देवतागण इसी के प्रभुत्व से सर्वसिद्धिश्वर हुए हैं। 

श्रीजगन्मंगलस्यास्य कवचस्य ऋषिश्शिवः ।
छन्दोऽनुष्टुब्देवता च कालिका दक्षिणेरिता ॥
जगतां मोहने दुष्टानिग्रहे भुक्तिमुक्तिषु । 
योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्त्तितः ॥

इस कवच के ऋषि शिव, छन्द अनुष्टुप्, देवता दक्षिण कालिका और मोहन दुष्ट निग्रह भुक्तिमुक्ति और योषिदाकर्षण के लिए विनियोग है।

शिरो मे कालिका पातु क्रींकारेकाक्षरी परा।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटञ्च कालिका खंग धारिणी ॥
हूं हूं पातु नेत्रयुग्मं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुती मम।
दक्षिणा कालिका पातु घाणयुग्मं महेश्वरी ॥
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हुं हुं पातु कपोलकम् ।
वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी ॥

कालिका और क्रींकारा मेरे मस्तक की, क्रीं क्रीं क्रीं और खंगधारिणी कालिका मेरे ललाट की, हुं हुं दोनों नेत्रों की, ह्रीं ह्रीं मेरे कर्म की, दक्षिण कालिका दोनों नासिकाओं की, क्रीं क्रीं की मेरी जीभ की, हुं हुं कपोलों की और ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी महाकाली मेरी सम्पूर्ण देह की रक्षा करें।

द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा।
खंगमुण्डधरा काली सर्वांगमभितोऽवतु ॥
क्रीं हूं ह्रीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम।
हे हूं ओं ऐं स्तनद्वन्द्वं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ॥
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तृका । 
क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं करौ पातु षडक्षरी मम ॥

बाईस अक्षर की गुह्य विद्या रूप सुखदायिनी महाविद्या मेरे दोनों स्कन्धों की, खंगमुण्डधारिणी काली मेरे सर्वांग की, क्रीं हूं ह्रीं चामुण्डा मेरे हृदय की, ऐं हुं ओं ऐं मेरे दोनों स्तनों की, ह्रीं फट् स्वाहा मेरे कन्धों की एवं अष्टाक्षरी महाविद्या मेरी दोनों भुजाओं की और क्रीं इत्यादि षडक्षरी विद्या मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें।

क्रीं नाभिं मध्यदेशञ्च दक्षिणा कालिकाऽवतु ।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठन्तु कालिका सा दशाक्षरी ॥
ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूं ह्रीं पातु कटीद्वयम् ।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातूरुयुग्मकम् ।
ॐ ह्रां क्रीं मे स्वाहा पातु कालिका जानुनी मम ॥
कालीहृन्नामविद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा।

क्रीं मेरी नाभि की, दक्षिण कालिका मेरे मध्य, क्रीं स्वाहा और दशाक्षरी विद्या मेरी पीठ की, ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूं ह्रीं मेरी कटि की, दशाक्षरीविद्या मेरे ऊरुओं की और ओ३म् ह्रीं क्रीं स्वाहा मेरी जानु की रक्षा करें। यह विद्या चतुर्वर्गफलदायिनी है।

क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु गुल्फं दक्षिणे कालिके ऽवतु । 
क्रीं हूँ ह्रीं स्वाहा पदं पातु चतुर्द्दशाक्षरी मम ॥ 

क्रीं ह्रीं ह्रीं मेरे गुल्फ की, क्रीं हूँ ह्रीं स्वाहा और चतुर्दशाक्षरीविद्या मेरे शरीर की रक्षा करें।

खंगमुण्ड धरा काली वरदा भयवारिणी। 
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वांगमभितोऽवतु ॥ 

खंग मुण्डधरा वरदा भवहारिणी काली सब विद्याओं के सहित मेरे सर्वांग की रक्षा करें। 

काली कपालिनी कुल्वा कुरुकुल्ला विरोधिनी ।
विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः ॥
नीला घना बालिका च माता मुद्रामिता च माम्।
एताः सर्वाः खंगधरा मुण्डमालाविभूषिताः ॥
रक्षन्तु मां दिक्षु देवी ब्राह्मी नारायणी तथा।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता ॥
वाराही नारसिंही च सर्वाश्चामितभूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधैर्दिक्षु मां विदिक्षु यथा तथा ॥

ब्राह्मी, नारायणी, माहेश्वरी, चामुण्डा, कुमारी, अपराजिता, वाराही, नृसिंही देवियों ने सर्व आभूषण धारण किए हुये हैं। यह सब माताएँ मेरे दिक् विदिक् की सर्वदा सर्वत्र रक्षा करें।

इत्येवं कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम् । 
श्रीजगन्मंगलं नाम  महामंत्रौघविग्रहम् ॥ 
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् !
गुरुपूजां विधायाथ गृह्णीयात् कवचं ततः । 
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावञ्जीवञ्च वा पुनः ॥

यह जगन्मंगलनामक' महामन्त्रस्वरूपी परम अद्भुत दिव्य कवच कहा गया है। इसके द्वारा त्रिभुवन आकर्षित होता है। गुरु की पूजा करने के पश्चात् इस कवच को ग्रहण करना चाहिये। इसका एक बार या तीन बार अथवा यावज्जीवन पाठ करें।

एतच्छतार्द्धमावृत्य त्रैलोक्यविजयो भवेत् ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः । 
महाकविर्भवेन्मासात्सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥

इसकी पचास आवृत्ति करने से त्रैलोक्य विजयी हो सकता है। इस कवच के प्रसाद से त्रिभुवन क्षोभित होता है। इस कवच के प्रसाद से एक मास में सर्वसिद्धीश्वर हुआ जा सकता है।

पुष्पाञ्जलीन् कालिकायैमूलेनैव पठेत् सकृत्। 
शतवर्षसहस्त्राणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥


मूल मन्त्र द्वारा कालिका को पुष्पाञ्जलि देकर इस कवच का एक पाठ करने से शतसहस्रवार्षिकी पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। 

भूर्जे विलिखित्तञ्चैव स्वर्णस्थं धारयेद्यदि । 
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद्यदि ॥
 त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् ।
 बह्वफ्त्त्या जीवत्सा भवत्येव न संशयः ॥

भोजपत्र अथवा स्वर्णपत्र पर यह कवच लिखकर सिर व दक्षिण हस्त या कण्ठ में धारण करने से धारक त्रिभुवन मोहित या चूर्णकृत करने में समर्थ हो जाता है। नारी जाति बहुत सन्तान देने वाली और जीव वत्सा होती है। इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।

न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यम्चान्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥
स्पर्द्धामुद्भूय कमला वाग्देवी मंदिरे मुखे।
पौत्रान्तस्थैर्य्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥

अभक्त अथवा परशिष्य को यह कवच प्रदान न करें। केवल भक्ति युक्त अपने शिष्य को ही दें। इसके अन्यथा करने से मृत्यु के मुख में गिरना होता है। इस कवच के प्रसाद से लक्ष्मी निश्चल होकर साधक के घर में और सरस्वती उसके मुख में वास करती है।

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत्कालिदक्षिणाम्। 
शतलक्षं प्रजप्यापि तस्य विद्या न सिध्यति । 
स शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥

इस कवच को न जानकर जो पुरुष काली मन्त्र का जाप करता है वह सौ लाख जपने पर भी उसकी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता है और वह पुरुष शीघ्र ही शस्त्राघात से प्राण त्याग्र करता है।

शिमला जिला - के मन्दिर

  • तारा देवी मंदिर - यह मंदिर शिमला से 5 किलोमीटर दूर तारा देवी में स्थित है। यह अष्टधातु की 18 भुजाओं वाली प्रतिमा है। यह मंदिर माँ तारा देवी को समर्पित है। इसका निर्माण क्योंथल के राजा बलबीर सेन ने करवाया था।

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  • भीमाकाली मंदिर - भीमाकाली मंदिर शिमला जिले के सराहन में स्थित है। सराहन को प्राचीन समय में शोणितपुर के नाम से जाना जाता था।

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  • हाटकोटी मंदिर - यह मंदिर शिमला के रोहडू तहसील के हाटकोटी में स्थित है। यह मंदिर हाटकोटी माता को समर्पित है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी की अष्टधातु की अष्टभुजा वाली विशाल प्रतिमा स्थापित है। वीर प्रकाश ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था।

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  • जाखू मंदिर - यह मंदिर शिमला के जाखू में स्थित है। यह मंदिर भगवान हनुमान को समर्पित है। भगवान हनुमान की 108 फुट ऊँची मूर्ति यहाँ बनाई गई है।

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  • कामना देवी मंदिर - कामना देवी मंदिर शिमला के प्रोस्पेक्ट हिल में स्थित है।
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  • कालीबाड़ी मंदिर - यह मंदिर शिमला में स्थित है। यह मंदिर काली माता (श्यामला देवी) को समर्पित है।

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  • सूर्य मंदिर - यह मंदिर शिमला के 'नीरथ' में स्थित है। यह मंदिर सूर्यदेव को समर्पित है। इसे 'हिमाचल प्रदेश का सूर्य मंदिर' भी कहा जाता है।

  1. सूर्य मंदिर शिमला हिमाचल प्रदेश (Sun Temple Shimla Himachal Pradesh) 

  • संकट मोचन मंदिर -संकटमोचन मंदिर का निर्माण 1926 ई. में नैनीताल के बाबा नीम करौरी ने करवाया था। यह मंदिर भगवान स्नुमान को समर्पित है। यह तारादेवी के पास स्थित है।

  1. हिमाचल प्रदेश के शिमला संकट मोचन मंदिर (Shimla Sankat Mochan Temple, Himachal Pradesh)
  2. संकट मोचन आरती (श्री हनुमान जन्मोत्सव, मंगलवार व्रत, शनिवार पूजा, बूढ़े मंगलवार) (Sankat Mochan Aarti (Shri Hanuman Janmotsav, Tuesday Vrat, Saturday Puja, Old Tuesday))

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