गाँव की यादें: "आपणी गौ की पुराणी याद"
हमारे गाँव की पुरानी यादें, जिनमें हर दिन की खास बातें शामिल थीं, आज भी हमारे दिलों में बसी हैं। कविता "आपणी गौ की पुराणी याद" उन दिनों को याद करती है जब जीवन की हर छोटी बात भी हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा थी।
कविता:
एक समय था, जब आग के लिए मोहताज थे हम,
उस आग को संजोकर, घर की गर्मी बनाते थे।
पढ़ाई के लिए लंफू था साथी, लालटेन की हल्की रौशनी में,
उसकी बत्ती को घुमा-फिरा कर, मुश्किल से काम चलाते थे।
गेहूँ की रोटी एक विशिष्ट वस्तु थी, केवल बड़े बुजुर्गों के लिए,
दाल भात से मेहमानों की खातिरदारी, बाकी सभी छछिया खाते थे।
मडुवा, कौणी और झूगरा ही गाँव का आहार था,
गाजण, डूबुक और छछिया, हर घर में बनती थी।
गौहथ के डुबुक, मास की दाव, खास दिनों का स्वाद,
गजड़े का भात और दही की झोली, यादों में बसा अद्वितीय स्वाद।
पुतिंग की चटणी, लूण मसाला, माँ के हाथों की बनी,
जखिए और मिर्च की छोकाॅण, पड़ोसियों तक पहुँचती थी।
स्कूल से लौटकर पानी लाना, गाय और बैल चराना,
साँझ को माँ के साथ घास काटकर लाना, जीवन की यही दिनचर्या थी।
जाॅनरे से मडुवे की पिसाई, माँ की यादों को ताजा करती है,
उखल में धान कुटाई, माँ के पास बिताए गए समय को याद कराती है।
बेडू, हिसालू, किलमोड़ा, काफल भर-भर लाना,
त्योहारों में बण से तैडू खोदकर लाना, जीवन का हिस्सा था।
राख, लिसा और छिलुका जलाकर दिवाली की रौनक,
जो पटाखे डर के मारे गिर जाते थे, उन्हें सुबह ढूँढना।
लघण, प्रसाद और भुड बना कर चावल का कसार तैयार करना,
बेटी या बहू ससुराल या मायका जाती थी, यही मिठाई होती थी।
पटाल बिछाकर गुठयार में भूजिलो की याद आना,
बुबू की फरसी, नैरू और चिलम की गुड़-गुड़, कानों में बजती है।
कितनी खुशी मिलती थी हमें, कौतिक में शामिल होने की,
पकौड़ी, आलू के गुटके और जलेबी खाकर झूलों पर चढ़ने की।
गाँव से दूर होने पर, अब वहाँ जाने की इच्छा नहीं,
सिर्फ यादों के सहारे, आँखों में पानी भर आता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें