उत्तराखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल गोपेश्वर
केदारखण्ड में वर्णित 'गोस्थल' ही राजस्व अभिलेखों में 'गोथला' गाँव है जो वर्तमान में गोपेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। सुन्दर स्वास्थ्यवर्द्धक आबोहवा तथा मनमोहक प्राकृतिक छटा बिखेरता हुआ, यह पर्वतीय नगर गंगा की सहायक धारा बालसुती (बालखिल्य) के बायें किनारे पर अवस्थित है। बदरीनाथ-केदारनाथ को जोड़ने वाले यात्रा-पथ के ठीक मध्य में स्थित यह एक तीर्थ था तथा उक्त यात्रा-पथ पर होने के कारण ही प्रारम्भ से ही यह एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। इसकी भौगोलिक स्थिति को देखने से ज्ञात होता है कि यह नागपुर परगना में स्थित है। 'नागपुर मंडल' प्राराम्भिक काल से ही एक प्रशासनिक इकाई रही है। समय-समय पर कुणिन्दों एवं नागों द्वारा इस स्थल को अपना केंद्र बनाये जाने के साक्ष्य प्राप्त होते है। अतः सम्भव है कि कभी इस मण्डल का मुख्यालय गोपेश्वर भी रहा हो।
छठी शताब्दी के लगभग नागवंशीय राजा गणपतिनाथ यहाँ तक आया था। अपनी विजयों के उपलक्ष्य में उसने यहाँ अपना अभिलेखयुक्त एक त्रिशूल की स्थापना की। यहाँ के मंदिर परिसर को देखने से ऐसा जान पड़ता है कि अपने त्रिशूल-लेख में गणपतिनाग द्वारा जिस 'रुद्रमहालय' का उल्लेख किया गया है, वह किसी प्राकृतिक आपदा द्वारा नष्ट हो गया हो। कालान्तर में वर्तमान शिव मंदिर का निर्माण आठवीं शती ई० के अन्तिम दशकों में कार्तिकेयपुर के आरम्भिक राजाओं के काल में हुआ।
गुप्तोत्तर काल से लेकर मध्यकाल तक गोपेश्वर राजनीतिक घटनाओं के अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण तीर्थ के रूप में धार्मिक गतिविधियों का भी केद्र स्थल रहा। 1960 ई0 में सीमांत जनपद चमोली के अस्तित्व में आने के पश्चात् गोपेश्वर को इसका मुख्यालय बनाया गया। 1948 ई० में गीता स्वामी द्वारा सर्वप्रथम यहाँ एक विद्यालय की स्थापना हुई जो 1954 में हाईस्कूल तथा 1862 में इंटर कॉलेज बन गया। इसके अतिरिक्त नवीन संचार एवं परिवहन की सुविधाओं के विकसित होने से यह नगर ऊखीमठ, चमोली के अन्य आन्तरिक भागों से भी जुड़ गया है। इस प्रकार प्राचीन यात्रा-पथ पर एक पड़ाव' से एक नव नगर के रूप में विकसित होकर यह जनपदीय मुख्यालय बना।
• देवप्रयाग
पंच प्रयागों में सर्वाधिक धार्मिक महत्व रखने वाला यह देवतीर्थ 'देवप्रयाग', अलकनंदा व भागीरथी के संगम पर स्थित है जिसका धार्मिक महात्मय पुराण केदारखंड के अध्याय 148 से 163 तक विस्तारपूर्वक वर्णित है। देवप्रयाग से अलकनंदा व भागीरथी के संगम के पश्चात् बहने वाली जलधारा को गंगा के नाम से जाना जाता है। अन्य शब्दो में कहे तो देवप्रयाग से ही आगे बढ़ने पर भागीरथी को गंगा के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु द्वारा राजा बलि से तीन पग धरती का दान यहाँ देवप्रयाग में ही मांगा गया था। यहाँ पर दो कुण्ड हैं जिनमें से भागीरथी की ओर वाले कुण्ड को ब्रह्मकुण्ड तथा अलकनंदा की ओर वाले कुण्ड को वशिष्ठकुण्ड कहते है। पौराणिक कथाओं में इस स्थल के नाम के सम्बध में ही उल्लेख मिलता है कि सतयुग में देवशर्मा नाम ऋषि ने यहाँ पर तप किया था जिसके कारण इस क्षेत्र का नाम देवप्रयाग पड़ा। धार्मिक महात्म्य के साथ-साथ पुरातात्विक दृष्टि से भी यह स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहाँ स्थित श्री रघुनाथ मंदिर के पृष्ठभाग की शिला पर ब्राही लिपि में यात्रा-लेख' उत्कीर्ण हैं जिनकी संख्या लगभग चालीस है। डॉ. छाबड़ा द्वितीय इन्हे पंचम शताब्दी ई० का मानते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ शिलाओं, भित्तियों, घण्टों तथा ताम्रपत्रों पर अनेक पवाँरकालीन लेख भी प्राप्त हुए है जिनमें से 34वें राजा जगतपाल का वि0सं01512 का तामपत्र सर्वाधिक प्राचीन है।
पश्चिमोन्मुख वर्तमान श्री रघुनाथ मंदिर 'छत्र रेखा-प्रसाद' रूप में मध्य हिमाद्री शैली का एक सुन्दर उदाहरण है। जिसका निर्माण 12वीं-13वीं शती ई. में किसी पंवार राजा द्वारा किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। 1803 ई. में आये एक भीषण भूकंप ने मन्दिर एवं मन्दिर परिसर के अन्य भवनों को अत्यधिक क्षति पहुँचायी। कालान्तर में दौलत राव सिंधिया द्वारा दिये गये दान से इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया। मन्दिर के पार्श्व भाग में आज भी एक प्राचीनतम 'परिवार-मन्दिर' के अवशेष देखे जा सकते हैं। इन्हें देखकर यह ज्ञात होता है कि वर्तमान मंदिर से पूर्व भी यहाँ श्री रघुनाथ जी का भव्य मन्दिर रहा होगा। इसी मन्दिर के प्रांगण के नीचे 'आदि विश्वेश्वर' का एक प्राचीन मन्दिर स्थित है। श्री रघुनाथ जी के इस मन्दिर को धर्मपरायण पवार राजाओं द्वारा पच्चीस गाँव गूँठ पर चढ़ाये जाने का उल्लेख प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा भी श्री रघुनाथ के प्रधान मन्दिर के जीर्णोद्धार किया जाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
• श्रीगनर-
श्रीनगर उत्तराखण्ड के आद्य ऐतिहासिक नगरों में से एक है। परगना देवलगढ़, पट्टी कलस्यूँ में यह नगर अलकनंदा के बायें तट पर स्थित है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 526 मी. है। गंगाद्वार (हरिद्वार) से बदरी-केदार के प्राचीन यात्रा मार्ग पर अवस्थित यह नगर प्राचीन काल से ही अनेक राजवंशो की राजधानी के रूप उनके उत्थान व पतन का साक्षी रहा है। महाभारत काल में इसके कुलिन्दाधिपति सुबाहु की राजधानी होने का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसके अनुसार पाण्डवों ने अपने गन्धमादन से कैलाश की तीर्थयात्रा करते हुए 'सुबाहुपुर' में आतिथ्य ग्रहण किया था। इसके अतिरिक्त एक लंबे समय तक यह नगर अजयपाल से लेकर प्रद्युम्नशाह तक पँवार नरेशों की राजधानी रहा। अनुश्रुतियों के अनुसार राजधानी के रुप में इसकी स्थापना अजयपाल ने की थी। 1804 ई0 इस पर गोरखों द्वारा अधिकार कर लिया गया। इसके पश्चात् 1815 ई0 में अंग्रेजो ने महाराजा सुर्दशनशाह से श्रीनगर को हस्तगत कर इसे ब्रिटिश गढ़वाल का मुख्यालय बना दिया, जो 1840 ई0 तक मुख्यालय बना रहा।
हरिद्वार से 133 किमी की दूरी पर बसे श्रीनगर के समय-समय पर बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदा के कारण कई बार क्षतिग्रस्त होने तथा पुर्नस्थापित होने के भी साक्ष्य प्राप्त होते हैं। एक पूर्वकालीन बाढ़ तथा 1803 ई. में आये भीषण भूकंप ने पंवारवंशीय इस राजधानी को अपार क्षति पहुँचायी थी। इसके पश्चात् 25 अगस्त, सन् 1894 में अलकनंदा में आयी विनाशकारी बाढ़ पुर्नस्थापित श्रीनगर को एक बार फिर बहा ले गई और इस बार बाढ़ का प्रभाव इतना अधिक था कि महाराजा अजयपाल के सुदृढ राजभवन का कोई अवशेष नाममात्र के लिए भी न रहा । वर्तमान श्रीनगर की स्थापना अंग्रेजी शासनकाल में 'पुराने श्रीनगर' के उत्तर-पूर्व में कोदड़ के समतल मैदान में सुनियोजित रूप से की गई। अलकनंदा में आयी इस विनाशकारी बाढ़ के कारण 'पुराने श्रीगनर में कमलेश्वर तथा अन्य दो-तीन देवालयों के ही ध्वंसावशेष शेष रहे। पँवारकालीन देवालयों में लक्ष्मीनारायण-समूह, वैरागणा के पाँच मन्दिर, भक्तयाणा में गोरखनाथ गुफा मन्दिर, गंगा-तट पर पच्चायतन केशवरायमठ तथा लक्ष्मीनारायण ठाकुर द्वार (शंकरमठ) आदि मन्दिरों को आज भी जर्जर अवस्था में देखा जा सकता है। 'केशवरायमठ' के द्वारा लेख में "श्री शाके 1547 संवत् 1682 माघ माह से राज बैस्यीयों केसोराई को मठ महीपतिसाही।" उत्कीर्ण है। ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार, यह मठ आचार्य केशवराय (दास) द्वारा 1625 ई0 में बनवाया गया था। इसके अतिरिक्त महाराज 'अजयपाल-का-राजप्रसाद जो ऐतिहासिक स्मारक था, को फै० हार्दविक द्वारा सन् 1976 ई में नगर के मध्य जीर्ण-शीर्ण अवस्था में देखे जाने का उल्लेख मिलता है। 1894 ई0 में अलकनंदा में आयी भीषण बाढ़ के कारण पुराने श्रीनगर में तो प्राक्-पँवारकालीन कोई भी पुरावशेष नहीं मिलता है किन्तु 'वर्तमान श्रीनगर' के समीप श्रीकोट गंगानाली में प्राक्-पँवारकालीन एक शिव मन्दिर के अवशेष प्राप्त हुए है। जिनमें छः आकारवादी लिंग, एक वलययुक्त लिंग, लकुलीश तथा नंदी आदि की मूतियाँ, उसी स्थल पर नवनिर्मित वर्तमान चन्द्रेश्वरमहादेव मन्दिर में एकत्र है। गंगा पार रणीहार गाँव में राजराजेश्वरी मन्दिर प्राक्- पँवारकालीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
उत्तराखण्ड के इतिहास में श्रीगनर मात्र ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं वरन् धार्मिक व सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है। 'श्रीक्षेत्र', 'श्रीपुर' आदि नामों से पुकारे जाने वाले इस नगर में स्थित 'कमलेश्वर मन्दिर' गढ़वाल के प्राचीनतम् मंदिरो में से एक है। यहाँ प्रत्येक वर्ष अनन्त चतुर्दशी के दिन विशाल मेला लगता है। इस दिन मन्दिर परिसर में निःसंतान दम्पति द्वारा संतान प्राप्ति हेतु की जाने वाली खड़ दीपक पूजा के कारण यहाँ का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। यहाँ अलकनंदा के मध्य श्रीयंत्र के आकार की एक शिला है जिसे श्रीयंत्र टापू के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त नगर के चारों ओर चार शिवलिंगो की स्थापना भी पुरानी ही प्रतीत होती है।
चूँकि तत्कालीन गढ़वाल में तब कोई बाजार अथवा 'नगर' नहीं था। अतः गढ़वाल क्षेत्र का एकमात्र नगर होने के कारण पहले लोग इस स्थान को 'बाजार' के नाम से भी पुकारते थे। यह नगर तब आम्र-कुजों से सुशोभित हुआ करता था। 'सामशाही बागान' का नाम बीसवीं शती ई० के प्रारम्भ तक लिया जाता था। यह क्षेत्र प्रारम्भ से ही मूर्तिकला का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। आज भी भक्तयाणा में तत्कालीन मूर्तिकारों के वंशज परिवार निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त राजधानी में संस्कृत व हिन्दी साहित्य के अनेक विद्वानों को भी आश्रय प्राप्त था। राज्य द्वारा सम्मान पाने वाले सहित्यकारों में मतिराम, भूषण तथा रतन कवि आदि प्रमुख थे। पँवार राजा चित्रकला में भी अपार रूचि रखते थे। गढ़वाल चित्रशैली' को विकसित करने में उनके द्वारा दिया गया सहयोग, उनके चित्रकला प्रति प्रेम को प्रमाणित करता है। यही कारण है कि दिल्ली से आये चित्रकार श्यामदास तँवर को पँवारवंशी राजा ने ससम्मान राज्य का चित्रकार नियुक्त किया गया। गढ़वाल चित्र-शैली' को विकसित करने में विख्यात चित्रकार मौलाराम का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन श्रीनगर में रहते हुए चित्र साधना में व्यतीत किया। इस प्रकार यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही साहित्य एवं ललित कलाओं के उत्थान में अन्य पर्वतीय क्षेत्रो की अपेक्षा अधिक विशिष्ट स्थान रखता है। इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए 1973 ई0 में यहाँ गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तथा आज गंगा पार चौरास में भी विश्वविद्यालय परिसर का विस्तार हुआ।
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